सावन्तवाडी भाग-५

सिन्धुदुर्ग की सैर करते हुए हम सिन्धुदुर्ग की कई बातों को देख चुके हैं, जिनमें कुछ कुदरती करिश्में भी शामिल थे। अब एक महत्त्वपूर्ण बात देखते हैं। लेकिन उसे देखना यहँ कहने से उसके बारे में जानकारी हासिल करना यह कहना मुनासिब है। क्योंकि यह करना ही आसान हैं।

सिन्धुदुर्ग में महादेवजी का एक मन्दिर है। इस मन्दिर के अहाते में ही एक चौकोर आकार का कुआँ है। अब कुआँ कहते ही गोलाकार रचना हमारी आँखों के सामने आ जाती है। इसीलिए इस कुए के चौकोर आकार को देखकर थोड़ा बहुत ताज्जुब भी होता है। इस कुए में से ही एक सुरंग बनायी गयी है, जो ठेंठ समुद्री तट के गाँव में जाकर खुलती है। यानि यदि कभी क़िले पर कब्ज़ा करने में दुश्मन क़ामयाब हो गया, तो क़िले में से सुरक्षित रूप में बाहर निकला जा सकें। यह सुरंग क़रीब ५ कि.मी. लंबी है। अब ग़ौर करने लायक बात यह है कि यह क़िला एक टापू पर बसा है, अत: इसके नीचे से बनायी गयी सुरंग, जो समुद्रतटीय गाँव में जाकर खुलती है, उस सुरंग का रास्ता समुद्र के नीचे से जाता होगा। इसके विषय में सुरंग विषयक विशेषज्ञ एवं अन्वेषक ही अधिक जानकारी दे सकते हैं।

सिन्धुदुर्ग की इस सुरंग का निर्माण भी इस तरह और ऐसी जगह किया गया है कि इसे क़िले के जानकार ही जानते थे।

सिन्धुदुर्ग के परिसर की एक आख़िरी जगह को देखकर ही हम यहाँ से बिदा लेंगे। इस जगह को ‘रानी की वेला’ (वेला यानि जहाँ सागर और ज़मीन मिलते हैं ऐसी जगह) कहा जाता है। यह एक तरह की छोटीसी चौपाटी है, जिसका इस्तेमाल पुराने ज़माने में राजा-महाराजाओंकी रानियों द्वारा किया जाता था।

सिन्धुदुर्ग से वापस मालवण के किनारे तक लौटने के लिए हमें फिरसे बोट से यात्रा करनी होगी। अब इस सफ़र में सागर को जी भर कर देखते हैं, सागर और आकाश की नीलिमा को आँखों में भर लेते हैं और सागर की ताज़ी हवा (ऑक्सिजनयुक्त हवा) को फेफड़ों में भर लेते हैं।

यहाँ के सागर में विपुल जैविक विविधता है। यहाँ मछलियों की एवं पानी में उगनेवालीं वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियाँ पायी जाती है। इनमें मुख्य रूप से कोरल्स, पर्ल आयस्टर (जिनमें से मोती मिलते हैं, वह बड़ी सीप), सी अ‍ॅनिमोन्स, पॉलिचीटस् और सी-वीड्स हैं। अब यह जरूरी नहीं है कि सागरी यात्रा में ये सभी हमें दिखायी देंगे, लेकिन हाँ, तेज़ी से यहाँ वहाँ तैरती हुई मछलियाँ हमें दिखायी देती हैं। कोरल्स, सी बीडस् और समुद्रतल में स्थित अन्य संपदा को देखने के लिए हमें स्नॉर्केलिंग या अन्य कुछ तकनीकों का उपयोग करके समुद्रके तल में डुबकी लगानी पडेगी।

मालवण और उसके आसपास का कुछ किलोमीटर्स तक का समुद्र आज भी प्रदूषण से काफ़ी हद तक सुरक्षित है और इसी वजह से यहाँ के सागरी जीव और वनसंपदा महफ़ूज रह पाये हैं और पर्यावरण के सन्तुलन को बनाये रखने में अपना सहयोग दे रहे हैं।

यहाँ के कई समुद्री तट आज भी साफ़-सुथरें, खूबसूरत हैं एवं लोगों की भीड और शोरगुल से कुछ अछूते ही हैं।

कोंकण और मुंबई का रिश्ता वैसे तो काफ़ी क़रीबी है। जब से मुंबई विकसित होने लगी, तब से कोंकण में से कई लोग रोज़ीरोटी के लिए मुंबई आने लगे। फिर वे मुंबई में ही बस गये। लेकिन आज भी उत्सव-त्योहार के समय अपने गाँव जाने की चाहत उनके मन में रहती है। आज भी होली, गौरी-गणपति जैसे त्योहारों के अवसर पर कोंकण जानेवाली एस्.टी. की बसें खचाखच भरकर जाती हैं।

कोंकण की इस भूमि में होली (शिमगा) के त्योहार को महत्त्वपूर्ण माना जाता है और उसी तरह भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी से मनाये जानेवाले गणपतिबाप्पा के और मायके आनेवाली गौरी के उत्सव के लिए कोंकणवासी आज भी अपने गाँव अवश्य जाते हैं।

उत्सव, त्योहार, समारोह में आनन्द यह एक महत्त्वपूर्ण घटक होता है। फिर ऐसे अवसर पर लोग विभिन्न प्रकारकी कलाओं को भी प्रस्तुत करते हैं। ‘लोककला’ यह मानवी जीवन का एक अविभाज्य अंग है। हर प्रदेश के अनुसार इस लोककला के अविष्कार का अपना एक रंगरूप होता है। लेकिन लोककलाओं का उद्देश्य मनोरंजन के साथ साथ लोकजागृति भी रहता है।

भारत की मिट्टी में रामायण और महाभारत ये दो बातें इतनी समरस हो चुकी हैं कि किसी न किसी रूप में उन्हें लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाता आ रहा है। आज हज़ारों वर्ष बितने के बाद भी कई कलाओं के माध्यम से ये दोनों महाकाव्य भारत की भूमि में जीवित हैं।

अधिकतर लोककलाओं का विषय भगवान और भगवान के अवतार यही रहता है। कोंकण की भूमि में भी ऐसे कई कलाप्रकारों को प्रस्तुत किया जाता है। उनमें से ही एक महत्त्वपूर्ण कलाप्रकार के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

इस कलाप्रकार को या लोकनाट्य को ‘दशावतार’ इस नाम से जाना जाता है। ‘दशावतार’ कहते ही आप समझ गये होंगे कि इसका संबंध भगवान विष्णु के दस अवतारों के साथ होगा। आपने ठिक पहचाना। इस लोकनाट्य में भगवान विष्णु के दस अवतारों को नृत्य-नाट्यमय रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

मत्स्य अवतार से शुरु होनेवाला यह सफ़र विष्णु के दसवें अवतार तक पहुँचता है। मन्दिर देवताओं के उत्सव-पर्व पर दशावतारों को प्रस्तुत किया जाता है।

‘दशावतार’ नाट्य का आरम्भ कैसे हुआ इसके बारे में ऐसी जानकारी मिलती है कि श्री. श्यामजी काळे ने अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में कोंकण की भूमि में इस नाट्य की शुरुआत की। इसका प्रारंभिक प्रयोग (शो) कोंकण के ‘अडिवरे’ नाम के गाँव में देवी के सामने किया गया और इसके बाद कोंकण एवं गोवा के कई गाँवो में इसका प्रचार हुआ। अडिवरे गाँव में इसका पहला प्रयोग होने के कारण इसे ‘अडिवरे दशावतार’ भी कहा जाता है। जिन श्री. श्यामजी काळेने इस लोकनाट्य प्रकारकी शुरुआत इस भूमि में की, उनके प्रति हर प्रयोग की शुरुआत में ही कृतज्ञता व्यक्त करने की पद्धति भी है।

दशावतार का उल्लेख वाङ्मय-साहित्य में भी मिलता है। साधारणत: कार्तिक महीने से लेकर चैत्र महीने तक इस लोकनाट्य के प्रयोग होते हैं। गाँव के मन्दिर के अहाते में इसे प्रस्तुत किया जाता है। कहा जाता है कि इसके किरदार स्वयंस्ङ्गूर्ति से ही संवाद (डायलॉग) कहते है।

रात को शुरु हुआ यह ‘दशावतार’ नाट्य पौं फटने तक चलता है। हार्मोनियम, तबले की साथ में शुरु हुआ यह दशावतार नाट्य आगे चलकर और भी रोचक बनता है और दर्शकों के मन को कब्ज़े में कर लेता है।

इस नाट्य का प्रारम्भ ही गणेश वन्दना से होता है। हमारे भारतवर्ष में सभी पूजनों के समय सबसे पहले गणेशजी का पूजन करने की परिपाटी है। इसी तरह दशावतार की शुरुवात भी गणेशवंदना से होती है।

दशावतार के इस प्रयोग में नाट्य एवं नृत्यमय प्रसंगों के साथ साथ हास्यनिर्मिती करनेवाले प्रसंग और किरदार भी बीच बीच में रंगमंच पर आते हैं और घड़ी-दो घड़ी के लिए सबका दिल बहलाते हैं।

दशावतार की शुरुआत मत्स्य-अवतार से होती है और उसके बाद एक एक अवतार का प्रस्तुतीकरण संवाद और नृत्य के माध्यम से किया जाता है। दशावतार के अन्त में दही-काला होता है और इसीलिए दशावतार को ‘दशावतारी काला’ भी कहते हैं।

दशावतार का प्रस्तुतीकरण करनेवाले कई ग्रुप्स होते हैं। आज भी ऐसे कई ग्रुप्स कोंकण में मौजूद हैं।

जिस में लोग सम्मीलित होते हैं, ऐसी कोंकण की एक और ख़ासियत है- ‘भजन’। भजन ग्रुप में भी कई लोग रहते हैं। भजनमंडली में से एक व्यक्ति भजन की एक पंक्ति गाता है और बाक़ी के लोग उसे दोहराते हैं। आज भी यदि हम कोंकण के किसी गाँव में जायेंगे तो रात के समय किसी मन्दिर से भजन के सुर अवश्य सुनायी देंगे।

आज भी कोंकण ने अपने निसर्ग और लोककला को जतन किया है। लेकिन बदलते व़क़्त के साथ साथ बहनेवाली आधुनिकीकरण की हवा में इन ज्योतियों को सुरक्षित रखना ज़रुरी है।

सावन्तवाडी और उसके आसपास के परिसर में इतने दिनों तक किये हुए सैरसपाटे में जंगलों की हरियाली, सागर और आकाश की अथाह नीलिमा, सूर्योदय और सूर्यास्त के समय की लालिमा ऐसे कई रंग हमने देखे। अब इसी रंगभरे इन्द्रधनुष्य को मन के आकाश में अंकित करके इस परिसर से विदा लेते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published.