सावन्तवाडी भाग-३

सावन्तवाडी से चंद कुछ ही किलोमीटर्स की दूरी पर हमारी मुलाक़ात होती है, साफ़ सुथरे सागरकिनारे से। नीला गहरा सागर, स़फेद रेत, मनचाही शान्तिके साथ ही यहाँ के कई किनारों पर सरो के पेड़ों के बन भी है। यह इलाक़ा किसी चित्र में दिखायी देनेवाले नज़ारे जैसा ख़ूबसूरत दिखायी देता है। इसी सावन्तवाडी से दूसरे रास्ते से हम जा पहुँचते हैं, पर्वत की चोटी पर। चारों ओर हरियाली से भरे हुए पर्वत, उन्हीं में से छलाँग लगाते हुए जलप्रपात (वॉटरफॉल) और हमारा यह सफ़र होता है, कभी कोहरे में से, तो कभी बादलों में से। फिर कहाँ चलें? सागर की ओर ले जानेवाली सड़क से चलें या हरेभरे पर्वत की चोटी पर ले जानेवाले रास्ते पर से निकल पड़ें? मुझे लगता है कि पहले पर्वत पर चलते हैं और फिर वहाँ से सागर की ओर। ठीक है!

सावन्तवाडी से महज़ २७-२८ किलोमीटर की दूरी पर बसा है, ‘आंबोली’। आज ‘आंबोली’ यह महाराष्ट्र का एक जाना माना हिल स्टेशन बन गया है।

भारत में सबसे अधिक बरसात होती है, ‘चेरापुँजी’ में; वहीं महाराष्ट्र में यह सम्मान ‘आंबोली’ को प्राप्त हुआ है।

आंबोली का यदि संक्षेप में वर्णन करना हो, तो कुछ इस तरह किया जा सकता है – सालभर हरी भरी रहनेवालीं वादियाँ, गर्मियों में भी सुकून देनेवाली आबोहवा, बरसात के मौसम में धुआँधार बारिश, कभी कोहरे में तो कभी बादलों मे खोये हुए रास्ते और बरसात के बाद भी कई दिनों तक पर्वतों पर से अपना सबकुछ निछावर करते हुए धरती की गोद में समा जानेवाले कई छोटे बड़े जलप्रपात।

देखिए, महज़ वर्णन को पढ़ते हुए भी कितना अच्छा लग रहा है ना! चलिए, तो फिर मन से ही सही, इस आंबोली में दाखिल हो जाते हैं।

समुद्री सतह से ६९० मीटर्स की ऊँचाई पर बसी इस आंबोली में सालभर में लगभग ७५० सेंटीमीटर्स यानि २६९ इंच जितनी बारिश होती है, ऐसा कहते है। अब इसमें से अधिकतर वर्षा मानसून के यानि की बरसात के मौसम में होती है, यह तो स्वाभाविक ही है।

इस वर्षा की वजह से ही आंबोली की वादियाँ साल भर हरी भरी रहती है। दूर दूर तक फैले हुए घने जंगल यहाँ पर हैं और जंगलों में वन्य प्राणि भी हैं। यहाँ के जंगलों में कई तरह की वनस्पतियाँ, पेड़ पौधें, पुष्पवृक्ष, लताएँ पायी जाती हैं और औषधि वनस्पतियाँ भी यहाँ पर बड़ें पैमाने पर पायी जाती है।

भारत के कई हिल स्टेशन्स की तरह अंबोली को भी हिल स्टेशन के रूप में विकसित किया गया, अँग्रेज़ों के ज़माने में।

आंबोली को उस ज़माने में कैसे बसाया गया, इसकी जानकारी कुछ इस तरह मिलती है। अँग्रेज़ों के ज़माने में कर्नल वेस्ट्रॉप नाम के किसी अँग्रेज़ पॉलिटिकल एजंट ने इसकी खोज की। हुआ यूँ कि सागरी तट पर बसे वेंगुर्ला से सड़क बनाने का काम शुरू किया गया था। यह सड़क ठेंठ बेलगाँव तक बनायी गयी और इसी दौरान इस बेहद ख़ूबसूरत अंबोली के बारे में उसे जानकारी मिली।

कई हिल स्टेशन्स की तरह आंबोली में भी कुदरती सुन्दरता को देखने के लिए अनेक पॉईंट्स् हैं। इन पॉईंट्स् से हम आंबोली के कुदरती नज़ारों को देख सकते हैं। पूर्व दिशा में लालिमा बिखेरते हुए उगते सूरज को हम एक पॉईंट से देख सकते हैं; वहीं डूबते हुए सूरज के दर्शन हम दूसरे पॉईंट से कर सकते हैं। सूरज द्वारा आसमान में बिखरे गये रंगो के नज़ारे को देखते देखते जब सूरज पूरी तरह डूब जाता है, तब नीले नीले सितारों से भरा वह आकाश मन को एक अनोखी ही शान्ति से भर देता है।

इसीलिए यदि आंबोली की कुदरती ख़ूबसूरती को देखना हो, ऑक्सिजन से भरपूर रहनेवाली यहाँ की नटखट हवा को जी भर कर सीने में भर लेना हो, तो यहाँ की मुसाफ़िरी करना ज़रूरी है।

बरसात के मौसम में यहाँ का नज़ारा तो बस ‘चारों तरफ़ पानी ही पानी’ ऐसा ही रहता है। ऊपर से बरसनेवालें कालें बादल, उनका बरसना रुक जाते ही कभी धीरे से नीचे उतर आते हैं और देखते ही देखते हम मानों बादलों में तैर रहे हैं, ऐसा महसूस होता है और बादलों के बीच में से सैर करने का मज़ा तो कुछ और ही होता है। आंबोली के जलप्रपात और बारिश इनकी गहरी दोस्ती होना, यह तो स्वाभाविक ही है। जितना जल उन्हें आसमान से मिलता है, उसे ‘इदं न मम’ इस भावना के साथ वे (जलप्रपात) पूरी तरह धरती को दे देते हैं। बारिश में तो देखते ही देखते राह कोहरे में खो जाती है; जी हाँ, जैसे हम किसी हॉरर फिल्म में देखते हैं ना, बिलकुल वैसे ही।

बरसात के बाद आनेवाली सर्दियाँ भी आह्लाददायक एवं दर्शनीय रहती हैं। बहते हुए पसीने की धाराओं से परेशान व्यक्ति यदि गर्मियों में भी यहाँ आ जाता है, तो उसे ऐसा सुकून मिलता है, जिसे ल़फ़्ज़ो में बयान नहीं किया जा सकता।

आंबोली में ही ‘हिरण्यकेशी’ नाम की नदी उद्गमित होती हे। उसके उद्गमस्थल के पास ही शिवजी का एक मन्दिर भी है।

यहाँ पर छोटे छोटे कई जलप्रपात हैं, लेकिन जिसे इन सबका ‘बॉस’ कहा जा सकता है, ऐसा एक बहुत बड़ा घनगंभीरता से गरजनेवाला जलप्रपात यहाँ पर है, जिसका नाम है- ‘नांगरतास/नागरतास’।

यहाँ के जंगल वनसंपदा से भरपूर तो हैं ही, साथ ही यहाँ की ख़ासियत है, यहाँ के जंगलों में खिलनेवाली ‘कारवी’। भारत में कई दक्षिणी पहाड़ी इलाक़ों में कारवी खिलती है। उसे अलग अलग नामों से जाना जाता है। कारवी की विशेषता यह है कि वह कुछ विशिष्ट वर्षों के बाद ही खिलती है और एक के बाद एक करके खिलती ही रहती है। इसीलिए कारवी के खिले हुए जंगल को देखना या जंगलों में खिली हुई कारवी को देखना यह आँखों और मन को सुकून देता है। आंबोली के जंगलों मे यह कारवी हर सात साल बाद खिलती है, ऐसा कहा जाता है।

तो ऐसे इस कुदरती ख़ूबसूरती से लैस रहनेवाली आंबोली के अन्तरंग को जानने के बाद, जैसा कि शुरू में कहा था, अब चलते हैं, सागर की ओर।

पर्वत की चोटी और सागर को कुदरत के दो छोर के रूप कहा जा सकता है। सावन्तवाडी के पास में कुछ ही फ़ासले पर कई सागरकिनारें हैं। आज वे किनारें और उनके पास बसें गाँव सुपरिचित हो चुके हैं। इन सागरकिनारों की ख़ासियत यह है कि इनमें से अधिकतर सागरकिनारें और वहाँ का समुद्र प्रदूषण से मुक्त है। आज पर्यटन स्थल के रूप में कई समुद्रकिनारों का विकास हो रहा है। चलिए, तो आंबोली से ठेंठ चलते है, सागर किनारे की सैर करने।

यह कोंकण की ज़मीन बहुत ही उपजाऊ है। आम, काजू इन दो प्रमुख उत्पादों के साथ साथ यहाँ का एक अन्य महत्वपूर्ण उत्पाद है, ‘कोकम’ का। दर असल कोकम (अमसोल) यह हमारे सफ़र का मुद्दा तो नहीं है, लेक़िन महाराष्ट्र में कई जगह खाने में उसका उपयोग किया जाता है, इसलिए उसके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त करते है।

जिस पेड़ से कोकम मिलता है, उसे ‘रातांबी’ का पेड़ कहा जाता है। इस पेड़ के लाल रंग के फल की छाल को सुखाकर कोकम बनाया जाता है और इसीलिए इसे ‘सोल’ भी कहते हैं। कोकम का नाम लेते ही सोलकढ़ी और कोकम शर्बत की याद आती है और ये दो शब्द ही कोकम का परिचय देने के लिए काफ़ी है।

यहाँ का ‘हापूस आम’ तो दुनिया भर में मशहूर है। साथ ही यहाँ पर अनगिनत छोटे बड़े आकार के, विभिन्न नामों से जाने जानेवाले और ल़ज़्ज़तदार आम उगते हैं। सावन्तवाडी और आसपास का इलाक़ा समुद्री तट के क़रीब होने के कारण मत्स्यप्रेमीयों के लिए यहाँ का भोजन तो दावत ही रहती है।

सावन्तवाडी से चंद कुछ ही घण्टों की दूरी पर कई महत्त्वपूर्ण स्थल है। कुडाळ, वेंगुर्ला,कणकवली और मालवण ये उनमें से कुछ नाम है।
यह भी पढ़नें में आया है कि ‘कुडाळ’ यह यहाँ का सबसे पुराना बसा हुआ गाँव है।

दो नदियों के तट पर बसा ‘कणकवली’ आज आधुनिक युग के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है और इसी वजह से उसकी शक्ल-सूरत भी बदल रही है।

सावन्तवाडी हो, कणकवली हो या कुडाळ, कोंकण के छोटे बड़े हर एक गाँव में वहाँ के ग्रामदेवता के साथ साथ अन्य देवताओं के मन्दिर भी दिखायी देते है। इन सब मन्दिरों का स्वरूप वैसे देखा जाय तो छोटा सा खपरेला मन्दिर, पास ही में चंपा का पौधा और किसी मन्दिर के सामने स्थित ऊँची दीपमाला, ऐसा होता है।

इस दिपमाला में शाम के समय मिट्टी की दीअलियाँ या दीपक जलाये जाते है और वह ऊँची दीपमाला रात के अँधेरे को चीरते हुए प्रकाश का दिलासा मुसाफ़िरों को प्रदान करती रहती है।

इन छोटे बड़े गाँवों की ख़ासियत यह है कि आज भी इनमें से अधिकतर गाँवो में ‘मेला’ लगता है। मेला यह दर असल वर्णन करने की नहीं, बल्कि अनुभव करने की बात है। जिन्होंने गाँव के मेले को अनुभव किया है, उनके मन उन मेलों की यादों से यक़ीनन ही खिल उठे होंगे।

आज कल शहर में हमें मॉल में ‘अंडर वन रूफ़’ कई वस्तुएँ मिल जाती है। कहने की बात यह है कि मेला यह गाँव के जीवन में खुले आकाश के विशाल छत के नीचे खरीदारी, खानपान,खेल, मनोरंजन और मुख्य रूपसे ख़ालिस आनन्द का स्थल है। साधारणत: ग्रामदेवता के उत्सवों के दिन खास मेलों का भी आयोजन किया जाता है।

देखिए, बातों बातों में हम ‘मालवण’ कब पहुँच गये, इसका हमें पता ही नहीं चला। मालवण कहते ही मालवणी भोजन और मालवणी भाषा इन दो बातों की याद आ जाती है और जिन्होंने इन दोनों का जायका चखा है, वे इनकी ख़ासियत जानते ही होंगे।

पुराने ज़माने में यहाँ पर बड़े पैमाने पर ‘नमक’ बनाया जाता था और इसी वजह से उस समय इस गाँव को ‘महा-लवण’ (लवण यानि नमक) कहा जाता था। इसी ‘महालवण’ का आगे चलकर मालवण यह अपभ्रंश हो गया। यह थी पढ़ने में आयी हुई एक जानकारी।

मालवण की एक और पहचान है, मालवणी खाजा । खाजा यह गुड़ और दाल के आटे से बनायी जानेवाली एक मिठाई है। साथ ही मालवण की दूसरी ख़ासियत है, खटखटे लड्डू (सेव से बनाये जानेवाले लड्डू)।

मालवण की विशेषता यह भी है कि बड़ा ही ख़ूबसूरत सागरकिनारा और उतनी ही कुदरती सुन्दरता इसने पायी है। देखिए,सागर में दूर एक बहुत बड़ी वास्तु नज़र आ रही है। क्या होगा वह? इस प्रश्‍न का जवाब प्राप्त करने के लिए हमें पहले बोट का इंतज़ार करना होगा।

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