समय की करवट (भाग ८ ) – मैं ही हॅरी….मैं ही हरी

‘समय ने करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका हमारे भारत के विषय में अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

गरीब ग्रामीण भारत अभी कुछ साल पहले तक अमीर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए किसी महत्त्व का ही नहीं था। पॅरिस, लंडन, मिलान, न्यूयॉर्क इनके बाहर न जानेवालीं कई कंपनियाँ तो ८-१० साल पहले तक भारत की ओर देखती तक नहीं थीं, क्योंकि अपने उत्पाद भारत के अमीर ‘एलाईट क्लास’ को छोड़कर, अन्य लोगों की पहुँच के बाहर हैं, यह वे अच्छी तरह जानते थे। समय के कदमों के निशान पहचानीं कुछ गिनीचुनी विदेशी कंपनियों ने भी, भारत में अपना कारोबार शुरू करते समय ‘शहरी इंडिया’ यही अपना लक्ष्य रखा था। शहरी भारतीयों में रहनेवाली विदेशी वस्तुओं की क्रेझ को देखते हुए, ‘शहरी भारत’ ही उनके लिए काफ़ी था। अतः ग्लोबलायझेशन के बाद के पहले आठ-दस साल एकदम अच्छे बीते।

अबतक दुर्लभ प्रतीत होनेवाले विदेशी ब्रँड्स अब हमारे पीछे पड़ गये हैं, यह देखकर खुश हुए ‘इंडिया’ से शुरू शुरू में इन कंपनियों ने बेतहाशा पैसा कमाया। उत्पादों की क़ीमतें भी बहुत ही ज़्यादा – कभी कभी तो सीधे डॉलर्स में से रुपयों में रूपांतरित की हुईं रहती थीं। उदा. उस कंपनी का कोई उत्पाद – मान लीजिए स्पोर्ट्स शूज् – विदेश में यदि पचास डॉलर्स में बेचे जा रहे हैं, तो उन शूज् को बेचने के लिए भारत ले आने के बाद, उनकी क़ीमत को रुपयों में रूपांतरित करते हुए (उदाहरण के तौर पर यदि साठ रुपये=१ डॉलर माना, तो) सीधे साठ गुणा पचास यानी तीन हज़ार रुपयों में बेचेंगे। अब अमरिकी जीवनस्तर के हिसाब से वहाँ के किसी आम मध्यमवर्गीय आदमी को यदि महीना तीन हज़ार डॉलर तऩख्वाह मिलती हो और उसे नये जूते ख़रीदने हों, तो साल में एक बार पचास डॉलर के ये शूज यक़ीनन ही उसकी पहुँच में होंगे। लेकिन भारत में बेचते समय उन्हीं शूज् की क़ीमत तीन हज़ार रुपये हो जाने के बाद, भारतीय जीवनस्तर के अनुसार कितने लोग उसमें पैर रखेंगे, इसका केवल अंदाज़ा ही किया जा सकता है!

ऐसा होने के बावजूद भी, केवल अपने ब्रँडनेम्स के बलबूते पर इन कंपनियों ने शुरू शुरू में ऐसी ‘ठेंठ रूपांतरित’ क़ीमतों में अपने उत्पाद बेचे और हमारे ‘शहरी इंडियन्स’ ने उन्हें ख़रीदा भी! ये उत्पाद ख़रीदते समय, ब्रँडनेम को बाजू में रखा, तो क्या ये उत्पाद वाक़ई इतने पैसे देने के लायक हैं, इसका विचार तक हमारे मन को छूता नहीं है। हमें तो केवल उस फलाना फलाना कंपनी के शूज् पहनकर दुनिया के सामने शान दिखानी होती है, बस्स! लेकिन इस तरह विदेशी उत्पादों का इस्तेमाल कर हम हमारे ही देश का नुकसान करते हैं, यह विचार भी हमारे मन को छूता नहीं है।

यही है वह – हमारे मन में नाच करनेवाली ‘हॅरी-हरि’ मानसिकता। हम भारतीय हैं, इसपर हमें गर्व वगैरा ज़रूर रहता है। लेकिन वह किस तरह का, तो – ‘अरे! हमारे भारतीयों को देखो, दुनिया के कोने कोने में जाकर चमक रहे हैं। कोई भी अमरिकी कंपनी ले लो, उसमें अहम पोस्ट्स पर आप भारतीयों को ही पाओगे’ वगैरा वगैरा। अपने बुद्धिसामर्थ्य के बलबूते पर भारतीय दुनियाभर में गर्दन ऊँची करके जी रहे हैं, इस बात पर हमें बेशक़ गर्व महसूस होना ही चाहिए, मग़र फिर भी उनके बुद्धिसामर्थ्य का उपयोग विदेशियों के लिए हो रहा है, इसका दुख भी होता है। लेकिन ऐसे इस तरह हमारी भारतीयता पर गर्व महसूस करनेवाले हम, कोई भी वस्तु ख़रीदते समय, भारतीय वस्तुओं को ‘लास्ट प्रायॉरिटी’ देते हैं। दर्ज़े में शायद ये विदेशी उत्पाद हमारे भारतीय उत्पादों से कुछ हद तक अच्छे हो भी सकते हैं; लेकिन अब जबकि वैश्‍विक परिस्थिति, पहले कभी नहीं थी उतनी मात्रा में – ‘सर्व्हायवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट’ इस सूत्र के अनुसार चल रही है, तब भारतीय उत्पादों को नकारकर ख़रीदा हुआ एक एक विदेशी उत्पाद, यह हमारे भारत को हानि पहुँचाता है, इस बात को हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए। लेकिन हम ये विदेशी उत्पाद ख़रीदते समय, यही – ‘विदेशी उत्पादों के तथाकथित (सो-कॉल्ड) ऊँचे दर्ज़े की’ सबब दूसरों को और खुद को भी सुनाते रहते हैं। (‘फ़ॉरेन प्रॉडक्ट्स की क्वालिटी रिअली सुपऽऽर्ब! इंडियन प्रॉडक्ट्स तो उसके आसपास भी नहीं पहुँच सकते’ वगैरावगैरा बहाने हमारे मुँह से तुरन्त टपकते रहते हैं)।

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Photo Courtesy: slideshare.net

कई हॅरियों के; या ‘हॅरी’ की मानसिकता रहनेवालों के मुँह से जब यह सुनते हैं, तो सहज ही एक विचार मन को छू जाता है। जब अँग्रेज़ों द्वारा किये जानेवाले हमारे शोषण का प्रतिकार करने के लिए लोकमान्य टिळकजी ने भारतीयों को ‘चतुःसूत्री’ का नारा दिया, उनमें ‘विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार’ और ‘स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल’ ये दो मुख्य सूत्र थे। उस समय भी मुलायम विदेशी कपड़ों की तुलना में हमारे देश में बननेवाले खादी के वस्त्र भद्दे ही प्रतीत होते थे। तो क्या वे टिळकजी के बदन को चुभे नहीं होंगे? लेकिन उनके लिए देश के विचार के सामने बाक़ी सभी विचार गौण थे। वह भले ही मेरे बदन को चुभें, लेकिन यह मेरे देश में बना खादी का कपड़ा है और मैं उसी का इस्तेमाल करूँगा, यह उनका वज्रनिग्रह था; केवल टिळकजी का ही नहीं, बल्कि उनपर भरोसा करके विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर, स्वदेशी वस्तुओं को अपनानेवाले सभी का। टिळकजी की यह चतुःसूत्री यह ‘जनआंदोलन’ हुआ, इसीलिए यह आंदोलन भविष्यकालीन स्वतन्त्रतासंग्राम की सफलता की नींव बन पाया। हमारे देश के व्यापार को हानि पहुँचानेवालीं इन विदेशी वस्तुओं को ‘ना’ कहने का वज्रनिग्रह होने के कारण ही टिळकजी हमारी मानसिकता को, जो सामाजिक, आर्थिक और मुख्य रूप से वैचारिक ग़ुलामी में फँसी थी, उसे सभी प्रकार की स्वतंत्रताओं के लिए तैयार कर सके।

हममें से कइयों का तो – ‘स्वदेशी का बहिष्कार और विदेशी का स्वीकार’ यह जीवनसूत्र रहता है और ग्लोबलायझेशन के बाद विदेशी कंपनियाँ जो भारत में अपनी जड़ें मज़बूत कर सकीं, उसकी वजह – ऐसे लोगों का यह जीवनसूत्र ही था; और एक बार जड़ें मज़बूत करने के बाद फिर इन कंपनियों ने अपने ‘खाने के दाँत’ दिखाना शुरू किया। इन कंपनियों की कार्यपद्धति भी ‘सरल’ थी – विज्ञापनों में बेतहाशा पैसा डालकर, किसी न किसी तरह अपनी कंपनी का नाम लोगों की नज़र में रहें ऐसा करो और जो प्रतिद्वंद्वी साबित हो सकती हैं, ऐसी स्थानीय कंपनियों को, या तो उनका अधिग्रहण करके या उन्हें बंद कराके, किसी न किसी प्रकार से नामशेष कर दो! ‘वैश्‍विकीकरण’ इस शब्द का अर्थ शायद उन्हें – ‘सारे विश्‍व में हमारे ही उत्पाद’ ऐसा प्रतीत हुआ होगा। ख़ैर!

हममें ही रहनेवाली – ‘विदेशियों का सबकुछ ही अच्छा’ मानकर चलने की इस ‘हॅरी’ प्रवृत्ति ने, ‘भारत मेरा देश है’ ऐसा माननेवाली इस ‘हरी’प्रवृत्ति पर हावी होने की पुनः शुरुआत की थी।
लेकिन आगे चलकर समय के कदम कुछ अलग तरी़के से ही पड़े!

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