समय की करवट (भाग ५१) – कौन किसका शत्रु-मित्र?

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

——————————————————————————————————————————————————-
‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
——————————————————————————————————————————————————-

इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

सन १९२४ में सोव्हिएत रशिया की सत्ता हस्तगत करने के बाद लगातार रशिया का सोव्हिएटायझेशन करने का उपक्रम हाथ में लिये जोसेफ स्टॅलिन के लिए, सन १९३४-१९३८ के ‘द ग्रेट पर्ज’ ऑपरेशन के बाद कम से कम रशिया में तो उल्लेखनीय विरोधक नहीं बचा था| उसके लिए उसे एक पूरी पीढ़ी को लिए सोव्हिएटायझेशन के ‘अनुशासन’ की ‘ड़ोस’ पिलानी पड़ी| उस दौर में जिनका जन्म हुआ, उनके प्रति डर रखने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि उनके जन्म से ही वे सोव्हिएतपद्धति के आदी थे| रशिया के कम्युनिझम का गुणगान यही उनका पलना-गीत था और पूँजीवादविरोधी प्रचार ही उनकी लोरियॉं थीं|

तब तक दुनिया पर दूसरे विश्‍वयुद्ध के बादल मँड़राने लगे थे और ऐसे में कहीं हम अकेले ना पड़ जायें इस डर से विभिन्न राष्ट्र अन्य राष्ट्रों के साथ समझौतों से जुड़ना चाहते थे – गुटों का निर्माण करने की कोशिशें कर रहे थे| विश्‍वयुद्ध जैसे हालात निर्माण होने का तात्कालिक कारण था – जर्मनी को साम्राज्यवादी कारनामें| जर्मनी पहला विश्‍वयुद्ध हार जाने के बाद ब्रिटन आदि विजयी राष्ट्रों ने जर्मनी पर अपमानजनक शर्तें थोंपीं थीं, उनपर प्रचंड टॅक्सेस लगाये थे, सेनासंख्या एवं उत्पादन पर पाबंदियॉं लगायीं थी; जिससे कि हमेशा नीचे देखने की नौबत आने के कारण जर्मनी का राष्ट्राभिमान ही नष्ट होगा और फिर दुनिया को उनसे कोई खतरा ही नहीं बचेगा|

….लेकिन हुआ उल्टा ही – विजयी राष्ट्रों से मिल रहे इस निरंतर अपमानजनक सुलूक़ के परिणामस्वरूप हिटलर जैसा अजब रसायन जर्मनी में जन्म ले चुका था| जर्मनी में सत्तासंपादन करने के लिए हिटलर ने जर्मनीवासियों के मन में जो सुप्त बदले की आग सुलग रही थी, उसका इस्तेमाल कर लिया, प्रेशर कूकर की तरह उनके मन में धधक रहे असंतोष को रास्ता दिया| सत्तासंपादन करने के बाद हिटलर ने जर्मनी को दुनिया की आर्थिक, औद्योगिक एवं लष्करी ताकतों में पहली लाईन में बिठाने की कोशिशें शीघ्र ही शुरू कीं| विजयी राष्ट्रों की शर्तें ठुकरा दीं| औद्योगिक उत्पादन बढ़ाया, सेनाबल बढ़ाया और उद्योग तथा सेना का अत्याधुनिकीकरण करने की शुरुआत की| शुरू शुरू में उसे नेत्रदीपक सफलता अवश्य मिली और जल्द ही वह जर्मन जनता की आँखों का सूरमा बन गया; लेकिन कुछ ही सालों के लिए….!

वहॉं पर भी धीरे धीरे हिटलर का देशप्रेम का नक़ाब उतरकर उसकी जगह केवल वांशिक दुरभिमान होनेवाला एक तानाशाह जर्मन जनता के सामने आया| वहॉं पर भी ‘पार्टी-अनुशासन’ की आड़ में, विरोधी सूर अलापनेवाले को हिटलर की कुविख्यात कुप्रसिद्ध टॉर्चर कॅम्प्स में, गॅस चेंबर्स में भेजा जाता था, फिर चाहे वह श़ख्स जर्मन ही क्यों न हों! इस कारण जल्द ही हिटलर के बारे में जर्मन जनता का भ्रमनिरास होकर जर्मन लोग उससे ऊब गये| लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी| तब तक हिटलर ने जर्मनी की पूरी सत्ता अपने हाथ में ली होने के कारण, अब हिटलर के पीछे घसीटते हुए जाने के अलावा जर्मन जनता के लिए और कोई चारा ही नहीं था|

हिटलर को अपेक्षित ताकत जर्मनी के परों में आने के बाद हिटलर ने अपना साम्राज्यवादी स्वरूप खुला करने की शुरुआत की| उसकी ताकत का पूरा अँदाज़ा न होने के कारण ब्रिटन तथा उसके दोस्तराष्ट्रृ जर्मनी में होनेवाले इन बदलावों की ओर बेचैनी से देखते हुए, हिटलर की शुरुआती साम्राज्यवादी करतूतों को अनदेखा कर रहे थे| यहॉं तक कि हिटलर की मर्ज़ी सँभालने के लिए उन्होंने उसके साथ अनाक्रमण का समझौता भी किया| लेकिन उस क़रारनामे की स्याही सूखने से पहले ही उसे तोड़कर हिटलर ने झेकोस्लोव्हाकिया, पोलंड आदि राष्ट्रों के टुकड़ें तोड़ने की या फिर उन्हें पूरी तरह निगलने की मुहिमों की योजनाएँ बनाना शुरू किया था|

पहले विश्‍वयुद्ध में पूरी तरह झुलस जाने के बाद जन्मे सोव्हिएत रशिया का नेतृत्व अब पिछले अनुभव से होशियार हो चुका था| अहम बात, जुल्म से ही सही, लेकिन एक स्थिर औद्योगिक नीति पर अमल करने के कारण एक समर्थ औद्योगिक सत्ता बन चुका सोव्हिएत रशिया अब जागतिक मंच पर ‘शर्तें रखने की’ स्थिति में (‘कमांडिंग पोझिशन’ में) था|

समय की करवट, अध्ययन, युरोपीय महासंघ, विघटन की प्रक्रिया, महासत्ता, युरोप, भारत
२३ अगस्त १९३९ को सोव्हिएत रशिया एवं जर्मनी में अनाक्रमण-समझौता हुआ| रशियन विदेशमंत्री मॉलॉटोव्ह एवं जर्मन विदेशमंत्री रिबेनट्रॉप ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये|

ऐसी परिस्थिति में, पहले विश्‍वयुद्ध में रशियन झार की सेना इंग्लैंड़ के पक्ष में लड़ी होने के कारण इंग्लैंड़ तथा दोस्तराष्ट्र सोव्हिएत रशिया से मित्रता-समझौता करेंगे ऐसी स्टॅलिन को उम्मीद थी| लेकिन वह व्यर्थ साबित हुई| ‘मुक्त व्यापार’ (‘फ्री ट्रेड़’) के अलावा अन्य बातों में कुछ ख़ास दिलचस्पी न होनेवाले वे पूँजीवादी राष्ट्र, कम्युनिस्ट सोव्हिएत रशिया की ओर बतौर ‘इस संकल्पना के मार्ग का एक रोड़ा’ देखते होने के कारण, इंग्लैंड़ आदि देश स्टॅलिन के साथ समझौता करने आगे नहीं आये| आख़िरकार उनकी राह तकते ऊब चुके स्टॅलिन ने २३ अगस्त १९३९ को ठेंठ जर्मनी के साथ ही अनाक्रमण का समझौता किया| रशियन विदेशमंत्री मॉलॉटोव्ह एवं जर्मन विदेशमंत्री रिबेनट्रॉप ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये|

इस समझौते के अनुसार स्टॅलिन ने युरोप का सीधे सीधे ‘पूर्व युरोप’ एवं ‘पश्चिम युरोप’ ऐसा कागज़ पर विभाजन कर दिया| पूर्व युरोप में भूतपूर्व झारशाही के रशिया का हिस्सा होनेवाले कई राष्ट्र थे| उन्हें रशिया के कब्ज़े में ‘दे दें’ और पश्चिम युरोप जर्मनी ‘ले लें’, ऐसा सीधा सीधा ‘विभाजन’ इस समझौते के तहत हुआ| उसके अनुसार शुरुआत तो हुई| हिटलर ने पोलंड पर आक्रमण करने के बाद रशिया ने भी आधे पोलंड को निगल लिया| इस समझौते के बलबूते पर अन्य भी कुछ देश रशिया ने निगल लिये|

लेकिन यह सहूलियत-परस्त समझौता कुछ ही दिन टिक सका! हिटलर ने उसे तोड़कर रशिया पर आक्रमण किया| लेकिन अतिकुशल एवं माहिर राजनीतिज्ञ होनेवाले चर्चिल ने यहॉं पर विलक्षण राजनीति का प्रदर्शन कर, रशिया-जर्मनी समझौते के अनुसार रशिया इंग्लैंड़ का दुश्‍नन होने के बावजूद भी – ‘हिटलर या स्टॅलिन’ इनमें से स्टॅलिन को चुनकर स्टॅलिन की सहायता की| रशिया पर आक्रमण करने के हिटलर के इरादों की गुप्तचरों के ज़रिये ख़बर लग जाते ही चर्चिल ने स्टॅलिन को उसकी अगाऊ सूचना दे दी|

तेईस साल रशिया की सत्ता की बागड़ोर सँभाल रहे स्टॅलिन ने भी, पूँजीवादी राष्ट्रों से सहायता लेते हुए, इस चुनौती का स्वीकार कर हिटलर को ख़त्म करने की ठान ली;

….और अगले चार साल स्टॅलिन विश्‍वयुद्धविषयक रणनीति तय करनेवालीं सभी उच्चस्तरीय चर्चाओं में, चर्चिल एवं रूझवेल्ट इन दो, क्रमानुसार इंग्लैंड़ एवं अमरीका ऐसे कट्टर पूँजीवादी देशों के प्रमुखों के साथ कँधे से कँधा मिलाकर शामिल हो रहा था|

कौन किसका शत्रु-मित्र? ‘आन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई भी किसी का प्रदीर्घ समय तक मित्र या शत्रु नहीं होता है’….‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’….‘सारा सहूलियत का मामला होता है’…. ये सारे तत्त्व अधोरेखित करनेवालीं ये घटनाएँ!

इन घटनाओं ने आगे चलकर क्या मोड़ लिया?

Leave a Reply

Your email address will not be published.