समय की करवट (भाग २४) – युरोपियन कोल अँड स्टील कम्युनिटी

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

हम १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया, उसके आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक  हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर

कई सदियों तक दुनियाभर में अपना अपना साम्राज्यविस्तार करने के बाद प्रबल बन चुके युरोपीय देश बीसवीं सदी में दो विश्‍वयुद्धों के आघातों से दुर्बल भी हुए और अधिकांश रूप में, दुनियाभर में बिखरे उनके साम्राज्य भी विलयित होकर, युरोप में रहनेवालीं उनकी भौगोलिक सीमाओं तक ही इनमें से अधिकांश देश सीमित रह गये। ऐसी परिस्थिति का सामना पुनः न करना पड़ें इसलिए कई देशों के विचारक इसका हल ढूँढ़ ही रहे थे। किसी भी प्रकार के युरोपबाह्य आक्रमण से युरोप के देशों को सुरक्षा मिलें और युरोप के देशों को एक-दूसरे पर आक्रमण करनेजैसी स्थिति ही पैदा न हों इसलिए, क्या युरोपीय देशों का किसी प्रकार का संघ बनाया जा सकता है, इस दिशा में विचार शुरू हो गया। ‘युनायटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका’ की तरह ‘युनायटेड स्टेट्स ऑफ़ युरोप’ का गठन होना चाहिए, ऐसी सूचना ब्रिटन के प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने झुरिच में सन १९४६ में ही की थी।

‘समय की करवट’
किसी भी प्रकार के युरोपबाह्य आक्रमण से युरोप के देशों को सुरक्षा मिलें और युरोप के देशों को एक-दूसरे पर आक्रमण करनेजैसी स्थिति ही पैदा न हों इसलिए, क्या युरोपीय देशों का किसी प्रकार का संघ बनाया जा सकता है, इस दिशा में विचार शुरू हो गया। उसी दिशा में उठाया पहला कदम था – ‘युरोपियन कोल अँड स्टील कम्युनिटी’ – सन १९४७-४८ में फ़्रान्स के प्रधानमंत्री रहे और सन १९४८ के बाद फ़्रान्स के विदेशमंत्री रहे रॉबर्ट शुमन के दिमाग से निकली अनोखी कल्पना!

उसी दिशा में उठाया पहला कदम था – ‘युरोपियन कोल अँड स्टील कम्युनिटी’ – सन १९४७-४८ में फ़्रान्स के प्रधानमंत्री रहे और सन १९४८ के बाद फ़्रान्स के विदेशमंत्री रहे रॉबर्ट शुमन के दिमाग से निकली अनोखी कल्पना! युद्ध के बारे में कोई देश सोचे तक नहीं; इतना ही नहीं, बल्कि युरोपीय देशों के किसी ऐसे संगठन का निर्माण किया जाये, जिससे कि उसके सदस्य राष्ट्रों के हितसंबंध एक-दूसरे पर निर्भर होने के कारण एक-दूसरे के खिला़फ़ युद्ध के बारे में सोचना तक उनके लिए भौतिक दृष्टि से संभव ही न हों, इस उद्देश्य से यह ‘शुमन’नामा लिखा गया था।

दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद के, दरअसल उससे भी भयंकर होनेवाले अमरीका और सोव्हिएत रशिया के बीच के ‘कोल्ड वॉर’ के कारण पूरा युरोप ही एक तरह से पूर्व एवं पश्चिम युरोप में विभाजित हुआ था। पूर्व युरोप के अधिकांश देश कम्युनिस्ट राज्यप्रणाली अपनाये होकर सोव्हिएतपरस्त थे; वहीं, पश्चिम युरोप के देशों ने अमरीकापरस्त पूँजीवादी व्यापारपद्धति का स्वीकार किया था। पूर्व एवं पश्चिम युरोप ऐसा बँटवारा करनेवाली इस अघोषित विभाजनरेखा को ‘आयर्न कर्टन’ ऐसा संबोधन था। ये सारे पुराने रिश्तेनाते पीछे छोड़कर पूरा युरोप एक महासंघ के रूप में एकत्रित होने की प्रक्रिया इस संगठन के द्वारा ही शुरू हुई।

इस, एक क़िस्म के बहुराष्ट्रीय प्राधिकरण के तहत सदस्य राष्ट्रों के, स्टील एवं कोयले जैसे हेवी उद्योग से प्राप्त होनेवाले उत्पादन का फ़ायदा सदस्य राष्ट्रों को उनकी उनकी ज़रूरत के अनुसार मिलनेवाला था। इस संगठन के संस्थापक सदस्य देशों में थे – सदियों से एकदूसरे के परंपरागत जानी दुश्मन रहनेवाले फ़्रान्स और पश्चिम जर्मनी!

फ़्रान्स और पश्चिम जर्मनी के अलावा इस संगठन में सहभागी हुए थे – इटली, बेल्जियम, लक्झेंबर्ग और नेदरलँड्स ये देश।
इस ‘शुमन’नामे पर हस्ताक्षर करने के समारोह में शुमन ने कहा था –

आज एक नये युरोप का जन्म हो रहा है। इस आंतर्राष्ट्रीय संगठन का निर्माण होने के कारण उसके सदस्य राष्ट्रों के लिए आपस में युद्ध करना नामुमक़िन होनेवाला है और दुनिया में शान्ति स्थापित होनेवाली है। ‘आयर्न कर्टन’ के कारण विभाजित हो चुके पूर्व तथा पश्चिम युरोप का एकत्रीकरण आज से शुरू हुआ है। इसी तरह के अन्य भी कुछ आंतर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण होगा और उनके ज़रिये युरोप धीरे धीरे राजनीतिक दृष्टि से एक देश ना सही, लेकिन कम से कम एक महासंघ के रूप में आकार धारण करने की शुरुआत करेगा। स्टील तथा कोयला क्षेत्रों में ‘कॉमन मार्केट’ तैयार करके, रसातल पहुँच चुकी युरोपीय अर्थव्यवस्था को पुनः विकास के मार्ग पर ले आने का काम यह संगठन करेगा और आगे चलकर अन्य क्षेत्रों में भी इसी तरह के संगठन बनाकर, संघटित रूप से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था यह महासंघ ही सँवारनेवाला है।

इस प्रकार के संगठन के बारे में बातचीत करते समय शुमन ने, युद्धपश्चात् जर्मनी यह उसका भाग होना ही चाहिए, ऐसा आग्रहपूर्वक कहा था। जर्मनी में पुनः वांशिकवाद तथा अतिरेकी राष्ट्रवाद सिर न उठायें, इसके लिए जर्मनी का इस प्रकार के, लोकतांत्रिक मार्ग से चलनेवाले किसी आंतर्राष्ट्रीय संघ में होना आवश्यक है, ऐसा प्रतिपादन शुमन ने किया था।

गत कई सदियों से युरोप को ग्रसित की हुई युद्धखोरी से युरोप को ऐसे ही क़िस्म का संगठन बचा सकता है, ऐसा विश्‍वास शुमन ने जताया था। क्या वह सार्थक साबित हुआ?

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