समर्थ इतिहास-१

samartha-itihas-part-1

सम्राट समुद्रगुप्त का कालखंड यह भारत के ज्ञात इतिहास के स्वर्णयुग के रूप में जाना जाता है| उस समय भारत आये अनेक विदेशी प्रवासियों द्वारा लिखित प्रवासवर्णनों और शिलालेखों से उस समय के भारत के वैभव, समृद्धि एवं सामर्थ्य की जानकारी प्राप्त होती है| कुछ अनुसन्धानकर्ताओं की राय में समुद्रगुप्त के साम्राज्य में आज के भारत का लगभग दो तिहाई हिस्सा शामिल था; वहीं कुछ अध्ययनकर्ताओं की राय में समुद्रगुप्त के साम्राज्य में आज के भारत का दो तिहाई हिस्सा प्रत्यक्ष रूप से और अन्य हिस्सा अप्रत्यक्ष रूप से समुद्रगुप्त के अधिपत्य में था| इतना ही नहीं, बल्कि भारत की आज की सीमा के बाहर रहने वाले छोटे-बड़े लगभग ३० से ३५ राज्य समुद्रगुप्त के अधिपत्य में थे|

कहा जाता है कि उस समय भारत में सर्वत्र सोने का धुआँ निकलता था, ऐसा वर्णन लगभग सभी विदेशी प्रवासियों ने किया है| हमें देखना है कि इस कालखंड में यानी इस साम्राज्य में ऐसा क्या अलग हो रहा था कि जिससे भारत में इतनी समृद्धि एवं संपन्नता उत्कर्ष पर पहुँच गयी थी|
ऐतिहासिक जानकारी और लोककथाओं की सहायता से समुद्रगुप्त के शासन के अनेक बलस्थानों की जानकारी मिलती है| हमारे पाध्ये घराने के कोई विष्णुप्रसाद शर्मा मुद्गल नामक पूर्वज इस समुद्रगुप्त के कुलाचार्य और महामंत्रि भी होने के कारण पाध्ये घराने में समुद्रगुप्त की अनेक कथाएँ प्रचलित थीं|  इस कारण इस कालखंड का गहराई से अध्ययन करने की इच्छा बचपन में ही मन में उत्पन्न हुई थी|

यह राजघराना मूलत: व्यापारी वर्ग के साथ परंपरागत रूप से जुड़ा होने के कारण इस काल में राज्यशासन द्वारा राष्ट्रीय एवं आंतरराष्ट्रीय व्यापार को प्राथमिकता और बहुत अधिक बढ़ावा दिया गया| व्यापारियों के कई काफ़िलें भारत के विभिन्न बंदरगाहों से मध्यपूर्व के देशों, ग्रीस, इजिप्त तक व्यापार करने जाते थे| समुद्रगुप्त और उनके अधिकारियों ने भारत में प्राप्त होने वाले कच्चे माल से पक्का माल, साधन एवं वस्तुओं का निर्माण करने के लिए विभिन्न कारखानें बनाने के लिए प्रचंड प्रोत्साहित किया था| रेशम के वस्त्र, सूती कपड़ें, मसाले की चीज़ें, केसर, कस्तूरी, इत्र, उबटन, सौंदर्यप्रसाधन इनके साथ साथ तांबे के बर्तन, संदूकें, तिजोरियॉं और प्रदर्शन वस्तुएँ इनके भी उत्पाद और व्यापार को विभिन्न भारतीय प्रदेशों में से निरंतर बढ़ता रखा गया था| भारत में बनाये गये सोना, मोती, पन्ना, माणिक आदि रत्नों के और हिरों के विभिन्न अलंकार तो सभी राजघरानों में (विदेश में) और उमराव घरानों में विख्यात थे| ब्रिटेन, स्पेन स्थित अमीर लोग भी ख़ास भारतीय माल और भारत में बनी चीज़ों को खरीदने के लिए ग्रीस तक आते थे और इसी कारण डच, स्पॅनिश, पुर्तगाली, ङ्ग्रेंच और ब्रिटिश व्यापारियों तथा राजसत्ताओं को भारत पूरी तरह ज्ञात था, परन्तु उनका व्यापारी नाविक दल, नौका निर्माण और नौकानयन शास्त्र भारत की तुलना में दसवॉं हिस्सा भी न होने के कारण, भारत तक आ पहुँचना उनके लिए संभव नहीं हो सका था| उन्हें केवल ग्रीस से भारत आने का खुष्की का मार्ग यानी भूमार्ग पता था| लेकिन यह रास्ता बहुत मुश्किल था और अहम बात यह थी कि मार्ग में रहने वाले बहुत बड़े भूप्रदेशों में स्थित अनेक ही नहीं, बल्कि लगभग सभी टोलियों का व्यवसाय केवल लूटपाट यही था|

अन्य देशों के साथ व्यापार को बढाते समय समुद्रगुप्त ने निश्‍चित रूप से एक बात का खयाल रखा कि नौका निर्माण का शास्त्र उन्होंने ग्रीस और इजिप्त के किसी को भी कभी भी प्राप्त नहीं होने दिया| आगे चलकर केवल भारत की खोज में ही यानी भारत में रहने वाले वैभव की आस रखकर ही ङ्ग्रेंच, ब्रिटिश, डच और पुर्तगालियों ने अपने स्वयं के नौकानयन शास्त्र को अधिक से अधिक विकसित किया और भारत को निगलने के लिए आवश्यक होनेवाला समुद्री मार्ग निश्‍चित किया और ठीक इसी काल में (समुद्रगुप्त कालखंड के कई वर्ष बाद) भारतीयों के लिए ‘समुद्र’व्यापार ‘गुप्त’ ही हो गया; क्योंकि कुछ विवेकहीन और गैरज़िम्मेदार, धर्माचार्य कहलवाने वालों ने ‘समुद्रगमन यह पाप है’, ऐसा घोषित करके उस बात की आड़ में व्यापारियों को बंधन में डाल दिया| साथ ही इस पाप का निवारण करने के लिए बहुत महँगे प्रायश्‍चित्त व्रत शुरू कर दिये और यही वह बिन्दु था, जहॉं से भारत सभी प्रकार से दुर्बल होना आरंभ हुआ|

समुद्रगुप्त ने अपने शासनकाल में ही भारत में जगह जगह पर शस्त्र-अस्त्रों के प्रचंड बड़े कारखानें कार्यान्वित किये और शस्त्र-अस्त्र तथा बख़्तर-कवच के व्यापार को केवल भारत के ही अधिकार में रखा| भारत में बने हुए शस्त्र-अस्त्रों का दर्जा इतना ऊँचा होता था कि दूर दूर तक बड़े-बड़े राज्य अपनी सेना के लिए केवल उन्हीं शस्त्रों का इस्तेमाल करते थे| इससे जिस तरह इतना प्रचंड धन भारत को प्राप्त हो रहा था, उसी तरह भारत के इस शस्त्र-सामर्थ्य के कारण अन्य देशों पर भारत का दबदबा और धाक भी था|

(क्रमशः)

 

 

 

इस अग्रलेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें   

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.