समर्थ इतिहास-१८

लोपामुद्रा ये विदर्भ देश की राजकन्या थीं। ये दिखने में अत्यंत सुंदर, अप्सरा के समान और गुणों में भी अत्यंत पवित्र तथा मर्यादाशील थीं। अदिति माता नेे (अगस्त्य ऋषि की दादी – पितामही) लोपामुद्रा से विवाह करने की अगस्त्य ऋषि को आज्ञा दी। परन्तु ये तो ठहरें नैष्ठिक ब्रह्मचारी, पारिवारिक सुख का बिलकुल भी आकर्षण न होनेवाले, शाश्वत की खोज में निकले और शाश्वत मूल्यों को जतन करनेवाली महान भारतीय संस्कृति को एकसंध करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध। इन्होंने अदिति माता से प्रश्न पूछा, “माता, क्या मुझ जैसे व्यक्ति से एक राजकुमारी को गृहस्थी का सुख प्राप्त होगा?” तब अदिति माता ने “लोपामुद्रा यह तुम्हारे लिए ही उत्पन्न हुई है और अत एव तुम्हें किसी भी प्रकार की चिंता करने का कारण ही नहीं है” ऐसा कहा। उसी समय ‘वैदथिन` नामक वेदकर्ता ऋषि लोपामुद्रा से मिले। ये वैदथिन ऋषि मूलतः विदथी राजा के ज्येष्ठ पुत्र एवं युवराज थे। ये आत्यंतिक इंद्रभक्त थे और ब्राह्ममुहूर्त के समय ये इंद्र को हवि अर्पण करते थे और ‘मैं इंद्र की सेवा करूँ`, यह इच्छा करते थे। इससे प्रसन्न होकर इंद्र ने उनसे वर माँगने के लिए कहा, तब भी इन्होंने, ‘तुम्हारी सेवा चाहिए` इतना ही माँगा। साथ ही इंद्र ने पिप्रु युद्ध में इनसे सहायता ली और दोनों ने मिलकर पिप्रु के सभी नगरों का विध्वंस किया। इसके बाद इंद्र ने इन्हें विभिन्न सिद्धियाँ और विद्याएँ प्रदान कीं। ऐसे ये श्रेष्ठ राजर्षि लोपामुद्रा से मिलने आये और उन्होंने अगस्त्य मुनि का और उनके कार्य का वर्णन लोपामुद्रा के समक्ष किया। अगस्त्य मुनि के इस कर्तृत्व के बारे में सुनकर लोपामुद्रा अत्यंत प्रभावित हुईं, तब वैदथिन ने लोपामुद्रा से “इंद्र ने, ‘तुम अगस्त्य ऋषि की पत्नी बनो` यह अगस्त्य ऋषि के साथ विवाह करने का प्रस्ताव तुम्हारे सामने रखा है” यह कहा। इसके बाद अगस्त्य और लोपामुद्रा का विवाह ‘सिंधुतीर्थ` इस पवित्र स्थान पर सिंधु नदी के किनारे हुआ।

विवाह से पूर्व ही अगस्त्य ऋषि के लोकोत्तर कर्तृत्व की जानकारी रहनेवालीं लोपामुद्रा विवाह के बाद नित्य सहवास के कारण अगस्त्य ऋषि की भक्त ही बन गयीं। ‘ऋषि अगस्त्य के कार्य में मेरे अस्तित्व के कारण कोई भी बाधा उत्पन्न न हो`, इसके लिए लोपामुद्रा सदैव प्रयास करती थीं; परन्तु विवाह पश्चात्‌‍ पच्चीस वर्ष बीत जाने के बाद भी वे माता नहीं बन सकीं। दक्षिण में विख्यात ‘लोपामुद्रा-बद्रिका` आख्यान के अनुसार, अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा के परिश्रम के कारण प्रसन्न होकर लोपामुद्रा को वरदान दिया; तब लोपामुद्रा ने “मुझे आपके समस्त गुणों के अंश रहनेवाले पुत्र चाहिए और वे (पुत्र) आप ही का कार्य आगे करते रहें” यह वर माँग लिया। ऋग्वेद के एक सूक्त में अगस्त्य-लोपामुद्रा का यह पुत्रप्राप्ति-संवाद है। यह संवाद यानी किसी आम पति-पत्नी के बीच हुआ पुत्रैषणा (पुत्रप्राप्ति की इच्छा) अथवा कामवासना का संवाद नहीं है; बल्कि यह संवाद यह सत्य-अधिष्ठित पराक्रम और प्रेम-अधिष्ठित भक्ति इन दो परस्पर-निर्भर श्रेष्ठ मानवी भावनाओं का पवित्र संवाद है। भक्तिविहीन पराक्रम (भक्ति के बिना किया गया पराक्रम) और पराक्रमविहीन भक्ति (पराक्रम के बिना की गयी भक्ति) इनका अस्तित्व ही हो नहीं सकता, यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त इस संवाद से प्रकट होता है।

लोपामुद्रा को ऋषि अगस्त्य से इंद्रबाहु, दृढायु, पौलह और अय ये चार पुत्र हुए। ये सभी पुत्र आगे चलकर अपने पिता का ही कार्य उतनी ही निष्ठा से करने लगे।

अगस्त्य मुनि द्वारा दक्षिण में किये गये कार्य में लोपामुद्रा का बहुत बड़ा सहभाग होना, यह लोपामुद्रा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। उन्होंने अगस्त्य मुनि के आश्रमों में रहनेवाले शिष्यों का ध्यान रखने के साथ साथ नगरों में राजस्त्रियों के लिए, साथ ही विद्यासंपादन करने की इच्छा रखनेवाली कन्याओं के लिए ‘तीरुकन्निगै` पाठशालाओं की स्थापना की। इससे अगस्त्य मुनि का कार्य और भी आसान हो गया। लोपामुद्रा स्वयं निपुण संगीत विशेषज्ञ थीं। इनकी पाठशालाओं में अन्य अध्ययन के साथ साथ संगीत और वीणावादन भी सिखाया जाता था। दक्षिण भारत के सम्माननीय घरों की लगभग हर एक कन्या संगीत अथवा वादनकला से परिचित होती ही है; इसका मूल (कारण) लोपामुद्रा के प्रयासों में है, यह माना जाता है।

लोपामुद्रा स्वयं राजकुमारी एवं ऋषिपत्नी इन दोनों भूमिकाओं को जाननेवाली होने के कारण, शायद ये राजस्त्रियों को, आचार्यकुल की स्त्रियों को, साथ ही वनवासी स्त्रियों को भी अपनी सी लगती थीं; क्योंकि आज भी दक्षिण में महिलाओं द्वारा अनेक व्रत किये जाते हैं, जो लोपामुद्रा से जुड़े हुए हैं। दक्षिण में, अगस्त्य मुनि का पूजन लोपामुद्रा के मंत्र के उच्चारण के बिना पूरा नहीं होता, ऐसा माना जाता है और इसी से लोपामुद्रा का कर्तृत्व ध्यान में आता है। यह मंत्र निम्नलिखित है –

राजपुत्रि महाभागे ऋषिपत्नि वरानने।
लोपामुद्रे नमस्तुभ्यं अर्घ्यं मे प्रतिगृह्यताम्‌‍॥

(हे राजकन्या और ऋषिपत्नी, इस प्रकार संपूर्णत: महाभाग्यवान ऐसीं पवित्र लोपामुद्रा, आप को मेरा प्रणाम है। आप मेरे द्वारा दिये गये अर्घ्य को ग्रहण कीजिए।)
पति को कार्य में सफलता प्राप्त हो, इसलिए इस मंत्र का दक्षिण में जाप किया जाता है और यही इन महान पतिव्रता के कार्य का गौरव एवं सुस्पष्ट प्रमाण है।

(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

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