समर्थ इतिहास-६

सम्राट समुद्रगुप्त के कार्यकाल में उनके द्वारा किया गया एक और महत्त्वपूर्ण कार्य था – उन्होंने पूरे साम्राज्य में विभिन्न स्थानों पर दो बड़े शहरों को जोड़नेवाले महामार्गों का निर्माण किया। कुल २४ महामार्गों का निर्माण करने का उल्लेख प्राप्त होता है। इस महामार्ग पर से तीन हाथी एक साथ एक ही समय पर आराम से चल सकने जितनी इन महामार्गों की चौड़ाई होती थी। इन महामार्गों के पास बरगद, पीपल, अशोक, सागवान आदि ऊँचे और घने पेड़ लगाने के आदेश उन्होंने दिये थे। इन महामार्गों पर जहॉं बसती नहीं थी, वहॉं उन्होंने दो प्रकार के विश्रामगृह बनाये थे। इन्हीं के धर्मशाला और व्यापारगृह ये नाम थे। धर्मशालाओं में सामान्य नागरिक प्रवासी और तीर्थयात्रियों के लिए विनामूल्य रहने की व्यवस्था थी; वहीं, खास व्यापारियों के लिए बनाये गये व्यापारगृह, प्रचंड माल को अच्छी तरह रखना और नौकरों की व्यवस्था इन सबके लिए आकार में बहुत विशाल होते थे और उन गृहों के आसपास पशुओं के लिए गोशाला और घोड़ों के लिए अस्तबल तथा हाथियों को रखने के हाथीखाने के लिए खास जगह का इंतज़ाम होता था। लेकिन यहॉं पर निवास मुफ़्त नहीं होता था। महामार्गों का निर्माण करनेवाले ये पहले ही भारतीय सम्राट थे। शूर्पारक बंदरगाह से सुरत तक इनके द्वारा बनाया गया महामार्ग विदेशी व्यापारियों के आकर्षण का विषय था।

केवल खेती पर (और वह भी साल में एक ही बार) निर्भर रहनेवाले किसान और खेती में मज़दूरी करनेवाले घर के एक पुरुष को सेना में हक से प्रवेश मिलता था। इस कारण समुद्रगुप्त की सेना निरंतर समर्थ होती थी और किसानों पर भी भीषण सूखे में भी भूखे रहने की नौबत कभी नहीं आती थी। किसान और सैनिक इनका समुद्रगुप्त द्वारा बिठाया गया मेल अपूर्व ही था। लालबहादुर शास्त्रीजी द्वारा दी गयी ‘जय जवान जय किसान’ इस घोषणा के अधिक उत्कृष्ट स्वरूप को, तेरह सौ साल पहले ही समुद्रगुप्त ने भारत को प्रत्यक्ष में लाकर दिखाया था।

समुद्रगुप्त के दरबार में आचार्य नंदिघोष नामक एक वास्तुकार (आर्किटेक्ट) थे। स्थापत्यशास्त्र में रहनेवाला इनका ज्ञान अत्यंत परिपक्व था और वे समुद्रगुप्त की प्रेरणा से नये नये प्रयोग करते थे। इन्होंने एक सुरंगी मार्ग राजधानी से बाहर यानी लगभग बत्तीस किलोमीटर की लंबाई का, स्वयं की कल्पकता से बनवाया था। अहम बात यह है कि इस सुरंगी मार्ग में हवा की आवाजाही होती रहे, इसका उपाय भी छिद्र रहनेवाले पत्थरों का इस्तेमाल करके किया था, ऐसा बताया जाता है। नेपाल में गंडकी नदी पर, पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी पर, पश्‍चिम में नर्मदा नदी पर एवं गोदावरी नदी पर, वहीं, दक्षिण में कावेरी नदी पर इनके द्वारा पत्थर के पूल बनाये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। भारत में उम्र के २४ साल तक स्थापत्यशास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने के बाद ये नंदिघोष कुछ ग्रीक व्यापारियों के संपर्क में आये और इस कारण इनके मन में ग्रीस की स्थापत्यकला सीखने का आकर्षण उत्पन्न हुआ और इन्होंने उन व्यापारियों के साथ ग्रीस जाकर तीन साल तक ग्रीक स्थापत्यशास्त्र का अध्ययन किया। इसी कारण कई गुप्तकालीन वास्तुओं पर ग्रीक प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखायी देता है। इन्हीं नंदिघोष ने महाबलीपुरम्, गया, आग्रा और कुंभीग्राम (? कुंभकोणम्) में स्थापत्यशास्त्र के विद्यालय शुरू किये थे।

समुद्रगुप्त के काल में ही विष्णु के अवतारों के अक्षरशः सैकड़ों मंदिरों का निर्माण हुआ। इन सभी की रचना के पीछे समुद्रगुप्त की भक्ति और नंदिघोष के ज्ञान की प्रेरणा थी।

भारत में शासकीय अस्पताल यह शायद पहली बार समुद्रगुप्त के द्वारा ही प्रत्यक्ष में लाया गया। उन्होंने उस जमाने में आयुर्वेद के साथ साथ, युनानी चिकित्सा के विशेषज्ञों को प्रोत्साहित करके नगर के बाहर अस्पताल बनवाये थे और इन अस्पतालों में सुश्रुतसंहिता के अनुसार विभिन्न शस्त्रक्रियाएँ भी की जाती थीं। तोरडमल्ल का अध्यापक कुमारस्वामी ये इसी प्रकार के एक अस्पताल के मुख्य वैद्य के परपोते थे। हेमभास्कर नामक अय्यर कुल के एक वैद्य इस संपूर्ण यंत्रणा के प्रमुख थे।

आज जिस प्रकार ऊँचे सरकारी अधिकारियों के लिए आय.पी.एस., आय.ए.एस. इस तरह की परीक्षाएँ आवश्यक होती हैं, उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने यह नियम बनाया था कि हर एक अहम शासकीय अधिकारी द्वारा कौटिल्य के अर्थ एवं नीतिशास्त्र का अध्ययन पूरा किया गया होना ही चाहिए और शासकीय अधिकार के पद वंशपरंपरा के आधार पर न रखते हुए गुणक्रम पर आधारित रखे थे। यह राजकीय व्यवस्था में हुआ एक बहुत बड़ा सुधार ही था।

जब व्यापारियों को और उत्तरी सीमा पर रहनेवाले नागरिकों को कुछ रेगिस्तान के लुटेरों की टोलियों से निरंतर उपद्रव होने लगा, तब समुद्रगुप्त ने अपने भद्रसेन नामक गुप्तचर को इन टोलियों का अध्ययन करने के लिए गुप्त रूप से भेजा और फिर उनकी ही गुप्त बातें जानकर उन टोलियों को बहुत दूर तक पीछे हटा दिया।

अपनी प्रजा के बारे में गहराई से विचार करके प्रजा का, पिता की वत्सलता से पालनपोषण करनेवाला दूसरा राजा मिलना बहुत ही मुश्किल है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने इसी तरह राज्यशासन शुरू किया था, लेकिन दुर्भाग्यवश उनका जीवन केवल पचास वर्षों का था।
(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है।)

 

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