समर्थ इतिहास-७

समुद्रगुप्त के संपूर्ण साम्राज्य में ‘वसंतोत्सव’ को राष्ट्रीय उत्सव का स्थान प्राप्त हुआ था| सभी पंथीय एवं भाषिक प्रजाजन एक साथ आकर वसंतोत्सव मनाते थे|

माघ शुक्ल पंचमी के दिन वसंतोत्सव का आरंभ होता था और फाल्गुन पूर्णिमा तक यह उत्सव मनाया जाता था| चैत्र-वैशाख यह वसंत ऋतु का काल माना जाता है, परन्तु मकर संक्रांति से उत्तरायण प्रारंभ हो जाते ही संपूर्ण भारत में माघ के महिने में ही वसंत ऋतु के चिह्न दिखायी देने लगते हैं, यह एक कारण है; वहीं, दूसरा कारण यह है कि इस समय भारतीय महाद्वीप में सुविधाजनक मौसम होता है|

वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही प्रकृति अधिक से अधिक सुंदर एवं चैतन्यमय होने लगती है और प्रकृति का पुत्र रहनेवाला मानव इन परिवर्तनों के कारण प्रङ्गुल्लित हो जाता है और इस प्रसन्नता को शिखर पर पहुँचाने वाला यह उत्सव होता है|

इसके पहले दिन कामदेव का जन्म होने के कारण समुद्रगुप्त के कालखंड में इस दिन सर्वत्र रति-मदन इस युगल का पूजन होता था| पहले दिन सुबह नगर अथवा गॉंव के सभी नागरिक धूमधाम से नगर के बाहर रहनेवाले किसी जलस्थान (नदी, तालाब, समुद्रतट, सरोवर) के यहॉं जाते थे और वहॉं कदंब वृक्ष का पौधा लगाकर उस पौधे की छाया में रति-मदन युग्म की आराधना की जाती थी| इस समय मंत्रों के साथ पूजन करने के बाद सभी नागरिक गोलाई में घूमते हुए और बीच बीच में झुकते हुए गाने गाते थे और नृत्य आरंभ करते थे| इसमें स्त्री-पुरुष ऐसा भेद नहीं किया जाता था| इस तरह सामूहिक नृत्य-गायन में बहुत समय बिताने के बाद वे सभी जन भोजन एवं थोड़ा विश्राम करके दोपहर के ढलते ढलते सजायी हुई बैलगाड़ियों में से नगर में लौटकर आते थे और वहॉं के मुख्य चौक में अथवा मुख्य मंदिर के प्रांगण में ‘सुवसंतक’ स्तंभ की स्थापना की जाती थी| इस सुवसंतक स्तंभ का निर्माण आम अथवा पलाश के तने से किया हुआ होता था और उसके छोर पर विधिपूर्वक ‘वसंतध्वज’ खड़ा किया जाता था| यह ‘वसंतध्वज’ तीर के आकार का होता था और उस पर मोर का चित्र बनाया हुआ होता था| इस ध्वज के आरोहण के समय हर एक नागरिक स्वयं की सामाजिक प्रतिष्ठा, कुल, वर्ण आदि को भूलकर छोटे बच्चों के जैसा चिल्लाता था और प्राणियों और पंछियों के मुखौटे पहनकर नाचता था| बड़े नगरों में साधारणत: २०० से ५०० लोग सामूहिक रूप से इस प्रकार से खुशियॉं मनाते थे| इस नृत्य में अहम बात यह थी कि इसमें किसी को भी मुखौटे का चयन करने की स्वतन्त्रता नहीं होती थी और जिस प्राणि का मुखौटा धारण किया है, उस प्राणि का शत्रु रहनेवाले प्राणि के मुखौटे जिन्होंने पहने हैं, उन्हें ले जाकर, बनाये गये कीचड़ में गिराना अथवा रंगीन पानी के तालाब में डुबाना यह अहम हिस्सा होता था और यह सब कुछ नाचते नाचते ही किया जाता था| मान लीजिए कि बाघ का मुखौटा पहना हुआ व्यक्ति हिरन का मुखौटा पहने हुए व्यक्ति को कीचड़ में गिराने का तय करें, तो अन्य हिरन उस हिरन की सहायता कर सकते थे और हिरन का शिकार करनेवाले अन्य प्राणि बाघ की सहायता कर सकते थे|

रात का भोजन नगरशाला में यानी नगर सभागार में होता था और उसके बाद ही सभी लोग घर जाते थे| अगले हर एक दिन अलग अलग कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था| हर रोज़ दोपहर ढलने के समय ये कार्यक्रम शुरू होते थे और आधी रात तक चलते थे| इस उत्सव में विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता था| साथ ही विख्यात कलाकारों के कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते थे| इस वसंतोत्सव के दौरान ही इस काल में ही प्राकृतमिश्रित संस्कृत नाटकों के प्रयोग शुरू हुए| शिलप्पधिकारम्, मणिमेखला, जीवकचिंतामणि, वलयापति, कुंडलकेशी, कलीत्तोर्ग, महारामायणम्, राधाविलासचंपु, परिजातापहरण आदि महाकाव्यों पर आधारित नाटक प्रस्तुत किये जाते थे| यक्षगान और गंधर्वगणसंहिता को इस दौर में पूरे भारत में प्रस्तुत करनेवाले दक्षिण भारतीय कलाकार संघ थे| दक्षिण भारतीय कलासंघों की सबसे अधिक मॉंग होती थी| उनमें से इळंगोअडीगळ इस अत्यंत श्रेष्ठ लेखक द्वारा पद्य में लिखा गया शिलप्पधिकारम् यह महानाट्य सबसे विख्यात था| इनमें से अनेक काव्य और नाटक जैन और बौद्ध संस्कृत पंडितों द्वारा भी लिखे गये थे|

वसंतोत्सव के दौरान आनेवाली दोनों पूर्णिमाओं के समय सायंजलक्रीड़ा का कार्यक्रम होता था| शाम के समय सभी पुरुष और महिलाएँ तालाब, सरोवर और नदी में जलक्रीड़ा करने जाते थे| वहॉं अनेक विभिन्न जलक्रीड़ाप्रकारों का आयोजन किया जाता था|

फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा के दिन अशोकोत्सव मनाया जाता था| यह दिन प्रकृति-देवता के ऋण का निर्देश करने का दिन होता था| इस दिन भोर के समय उठकर सभी महिलाएँ-पुरुष केवल पीले रंग के वस्त्र धारण करते थे और केवल वास्तविक फूलों के आभूषण पहनते थे| फूलों की मालाओं से मेखला, मुकुट, कर्णभूषण, पायल, इतना ही नहीं बल्कि फूलों के उत्तरीय (उपरनेे) भी बनाये जाते थे| नूतन दंपति को इस दिन खास सम्मान दिया जाता था| ऐसे सभी दंपतियों को अलग अलग मज़ाकिया अंदाज़ में छेड़ा जाता था| अशोक के पेड़ पर नूतन विवाहित पुरुष प्रथम चढता था और उसकी पत्नी (पेड़ के) नीचे से फूलों की माला की मोटी रस्सी उस पुरुष के पैरों को स्पर्श होने तक ऊपर फेंकती थी, यह एक खेल होता था| इसमें जीतने वाली महिला को ‘वसंतदेवी’ के रूप में सम्मानित किया जाता था और उसके द्वारा अशोक के पेड़ की पूजा की जाती थी|

वहीं, फाल्गुन शुक्ल पंचमी के दिन जिनकी शादी को ५० वर्ष पूरे हुए हैं, ऐसे दंपतियों के लिए रंगरसोत्सव का आयोजन किया जाता था| इसमें ऐसे वृद्ध दंपतियों को सम्मानपूर्वक नदी पर ले जाकर उन्हें मंगलस्नान कराया जाता था और उन्हें सभी की ओर से उपहार दिये जाते थे| साथ ही इन दंपतियों को एक सुंदर व्यासपीठ पर बिठाकर उनके चारों ओर गोलाई में घूमते हुए और बीच बीच में झुककर गाने गाये जाते थे और बड़े सम्मान के साथ उनमें से एक-एक दंपति को नृत्य में सम्मिलित किया जाता था और अंत में उन वृद्धों के शरीर पर पहनी हुई फूलों की मालाएँ उनके आशीर्वाद के रूप में अन्य लोग घर लेकर जाते थे| वयस्क व्यक्तियों का सम्मान करने की यह कितनी सुंदर एवं सुसंस्कृत पद्धति थी ना!

इस वसंतोत्सव के अन्तिम तीन दिनों में यानी फाल्गुन शुक्ल द्वादशी, त्रयोदशी और चतुर्दशी इन तिथियों को यात्रा का आयोजन किया जाता था| इस यात्रा (मेले) में अलग अलग व्यापारी अपने ठेले लगाते थे| परंतु इस वसंतयात्रा की मुख्य विशेषता होती थी, ‘रथदोला’ नामक मनोरंजन के साधन|

१) वसंततिलक दोला – इस यंत्र में बारह फीट ऊँचाई की दो मंज़िलें होती थीं| उस यन्त्र की सबसे नीचे की पहली मंज़िल पर एक पर एक इस तरह लकड़ी के छह विशाल चक्र होते थे, इन चक्रों में उनकी भव्यता के अनुसार हाथी अथवा घोड़े अथवा बैल जोड़े जाते थे| इन प्राणियों के घूमने के साथ ही निचले हिस्से में रहनेवाले सभी छह चक्र घूमने लगते थे और सबसे ऊपरी चक्र पर ही ऊपरी मंज़िल स्थित होती थी| इसमें कटघरा होता था और भीतर एक ही समय पर १० से ५० लोगों के बैठने की व्यवस्था की हुई होती थी| यह ऊपर की मंज़िल जब घूमने लगती थी, तब ज़मीन पर रहनेवाले लोग और यंत्र में रहनेवाले लोग एक-दूसरे पर रंग फेंकते थे|

२) वसंतनौका दोला – इस यंत्र का आकार किसी बड़ी नौका के समान होता था| यंत्र का तलहटी का हिस्सा तांबा (कॉपर) और सख़्त लकड़ी से बनाया हुआ होता था| इस हिस्से में पॉंच चक्र एक दूसरे से सटकर बिठाये हुए होते थे| इस यंत्र के दोनों तरफ़ प्राणि बॉंधे हुए होते थे और वे भी विरुद्ध दिशा में घूमते थे| इस कारण इस यंत्र पर की नॉंव में बैठे हुए लोग निरंतर विभिन्न दिशाओं में घुमाये जाते थे|

३) विभ्रमक दोला – इस यंत्र में मध्य भाग में धातु का एक दृढ खंभा ज़मीन में गाड़ा हुआ होता था और उसके छोर पर एक बड़ा चक्र होता था| इस चक्र में कई छोटे छोटे झूले लगाये हुए होते थे| ये झूले ऊपर-नीचे होते हुए चक्र के साथ गोल गोल घूमते थे और चक्र जब घूमता रहता था, तब एक झूले से दूसरे झूले में जाने का खेल खेला जाता था|

ऐसे कई मनोरंजन करनेवाले यंत्र समुद्रगुप्त के काल में खोजे जा रहे थे और हर गॉंव को मेले के लिए राज्य शासन से आर्थिक सहायता दी जाती थी|

अंतिम और समापन का दिन यानी फाल्गुन पूर्णिमा कादिन था होलिकोत्सव| यह दिन यानी पश्चिमी देशों में होनेवाले कार्निव्हल का एक सुसंस्कृत प्रकार था| इस दिन सभी नागरिक दिन भर खुले में यानी मैदान, रास्तों और बगिचों में मौज करते थे| नाचते, गाते, फुदकते हुए इन लोगो का मुक्त संचार चलता रहता था| स्वयं सम्राट समुद्रगुप्त अपनी राजस्त्रियों के साथ इस दिन राजधानी में मनाये जानेवाले उत्सव में खुल कर शामिल होते थे और ये सभी लोग सामान्य प्रजाजनों में घुल मिलकर रंग जाते थे| फिर भला क्यों यह सम्राट सभी प्रजाजनों को अपना सा नहीं लगेगा! इस उत्सव का समापन रात को भोजन के बाद मुख्य चौक में अथवा मंदिर के प्रांगण में होली जलाकर किया जाता था| हर कोई लकड़ियॉं, सूखी पत्तियॉं आदि और उपले साथ लेकर आता था| इस समय नाच-गानों का सामुदायिक जल्लोष होता था और अंत में भगवान विष्णु की प्रार्थना कर, ‘गत वर्ष की गलतियों को इस अग्नि में जला दो’ यह प्रार्थना की जाती थी| अग्नि की तीन प्रदक्षिणाएँ करके ही सभी प्रजाजन घर लौटते थे|

आर्थिक संपन्नता के साथ साथ सांस्कृतिक समृद्धि प्रकट करनेवाला यह महान उत्सव इसी कारण भारत के देदीप्यमान लोक-इतिहास का एक भव्य मीनार है|

(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

 

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