समर्थ इतिहास-२

ईसवी ३२० में रामनवमी के दिन समुद्रगुप्त का जन्म हुआ| चंद्रगुप्त (प्रथम) और कुमारदेवी का यह कनिष्ठ (छोटा) पुत्र था| गुप्त घराना उस समय की समाजव्यवस्था के अनुसार वैश्य वर्ण का था यानी व्यापार एवं व्यवसाय को भली भॉंति जानता था| उसी प्रकार, समुद्रगुप्त की माता कुमारदेवी ये लिच्छवी क्षत्रिय राजघराने की राजकुमारी थीं| इस कारण समुद्रगुप्त पर क्षत्रिय और वैश्य इन दोनों कुलों के समर्थ संस्कार हुए थे| ईसवी ३३८ इस वर्ष में पिता की मृत्यु के बाद पिता की ही आज्ञा के अनुसार समुद्रगुप्त ने राज्य सँभाला| उनके बड़े भाइयों को चंद्रगुप्त ने दूर किया; क्योंकि समुद्रगुप्त यह असामान्य बुद्धिमान, अध्ययनशील, दूरदर्शी, कर्तृत्वशाली एवं पराक्रमी थे| राज्य सँभालने के बाद कौटिल्य के राजकीय तत्त्वों का उपयोग करके समुद्रगुप्त पूरे भारत को अपने अधिपत्य में ले आये| अनेक राज्य (लगभग ७०%) केवल उनके धाक के कारण ही उनकी शरण में आ गये|

प्रयाग में स्थित अशोकस्तंभ पर महादंडनायक हरिषेण द्वारा रचित ‘समुद्रगुप्त प्रशस्ति’ अंकित की गयी है| इस रचना में समुद्रगुप्त के रूप, व्यक्तित्व, शूरता, राजनीतिनिपुणता और महत्त्वाकांक्षी कर्तृत्व का अत्यंत सुस्पष्ट रूप से एवं विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है| समुद्रगुप्त ने अपने संपूर्ण शासनकाल में कुल सौ युद्ध (बड़े) किये, ऐसा स्पष्ट उल्लेख इस रचना में है| विदेशी इतिहासकार उन्हें भारतीय नेपोलियन मानते हैं अथवा उनकी तुलना सिकंदर से करते हैं; परन्तु यह पूर्णत: गलत एवं मूर्खता भरा है| क्योंकि नेपोलियन और सिकंदर ने लड़ाईयॉं तो ल़ड़ीं, लेकिन आगे चलकर उनका क्या हुआ? नेपोलियन को अपने जीवन के अन्त के कई वर्ष एक छोटे से द्वीप पर कारागार में ही गुज़ारने पड़े; वहीं, सिकंदर तो ठीक तरह से अपनी मातृभूमि तक भी नहीं जा सका| अत एव इन दोनों के कर्तृत्व से भी भारतीय महासम्राट समुद्रगुप्त का कर्तृत्व हज़ारों गुना बड़ा है; क्योंकि समुद्रगुप्त ने बहुत बड़े भूभाग को जीत लिया, इतने तक ही उनका कर्तृत्व सीमित नहीं है; बल्कि अत्यंत समर्थता से जीते हुए साम्राज्य को सँभाला, उसे कायम रखा और उस साम्राज्य को वैभव के शिखर पर भी ले जाकर स्थित किया| परन्तु भारत के इतिहास और संस्कृति को हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश में रहनेवाले पश्‍चिमी इतिहासकारों के लिए, ‘समुद्रगुप्त ये नेपोलियन और सिकंदर से भी अत्यन्त श्रेष्ठ और अधिक समर्थ थे’ यह मानना भला कैसे संभव होगा?

और अहम बात यह है कि हम सुशिक्षित भारतीयों को भी नेपोलियन और सिकंदर ज्ञात होते हैं; परन्तु उनसे भी प्रचंड महान ऐसे हमारे भारतीय सम्राट समुद्रगुप्त ज्ञात नहीं होते, यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है| समुद्रगुप्त की श्रेष्ठता यह कोई सुनी सुनायी बात अथवा कल्पित कथा से निर्माण हुई बात नहीं है, बल्कि उससे संबंधित विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले पु़ख्ता सबूत आज भी प्रत्यक्ष उपलब्ध हैं|

अपने देश और संस्कृति के वैभवशाली इतिहास की जानकारी होना आवश्यक ही होता है, क्योंकि इस अध्ययन के कारण ही उस संबंधित समाज को उसके अपने बलस्थानों की जानकारी मिलती है और उन बलस्थानों का पुन: सामर्थ्यशाली उपयोग करने की कला भी अवगत हो जाती है|

अपने देश और संस्कृति के र्‍हास काल का भी अध्ययन करना उतना ही आवश्यक होता है; क्योंकि उससे अपने देश और संस्कृति के दुर्बल स्थानों की भी पहचान हो जाती है और इन दुर्बल केंद्रों को खोजकर नये समय के अनुसार सामाजिक, सांस्कृतिक और राजकीय बदलाव करवाना धुरिणों के लिए संभव हो जाता है|

दुर्भाग्यवश भारत के गौरवशाली कालखंड में भारतीय पंडितों ने इतिहास को सुयोग्य पद्धति से नहीं लिखा और जो कुछ भी लिखा गया था, वह असंस्कृत आक्रमणकारियों के हमलों में विश्‍वविद्यालयों के साथ ही नष्ट हो गया और पुराणों में जो कुछ इतिहास बाकी बचा, उसमें मतलबी मसाले और अंधश्रद्धाओं का इस्तेमाल करके मनगढ़ंत कथाओं को घुसेड़ने के कारण, वह स्पष्टत: प्रकट रूप में समाज की समझ में नहीं आ सका|

इस लेखमाला को लिखने का मेरा उद्देश्य, ‘हमारे पूर्वज कितने ग्रेट थे’ इस प्रकार के निरर्थक स्तुतिस्तोत्र गाकर अहंकार को सुख पहुँचाना नहीं है| हमें आगे आनेवाले समय की जबरदस्त चुनौतियों को स्वीकार करने और निबाहने के लिए भारतीय समाज का, संस्कृति का और राजकीय घटनाओं का अध्ययन करने की इस पल नितांत आवश्यकता है| मुझे हर एक भारतीय को यह एहसास दिलाना है कि वास्तव में हमारा भारत कैसा है| यह किसी एक धर्म और पन्थ का वृत्तान्त नहीं है; बल्कि भारतीय संस्कृति का जीता जागता वृत्तान्त है, जिसके निर्माण और रचना में विभिन्न मानववंशों, धर्मसंबधित मतों एवं पंथों का निश्‍चित ही सहभाग है|

‘हॉं, भारत सदैव महान ही था, आज भी महान ही है’ इसमें कोई भी संदेह नहीं है| पुन: वैसा ही स्वर्णयुग लाने के लिए पहले आवश्यकता है इस बात की, कि सभी भारतीय इस एहसास को दृढ़ करें कि ‘हॉं, हम सब श्रेष्ठ ही हैं|’

(क्रमशः)

(यह अग्रलेख मूलत: मराठी में प्रकाशित किया गया और अब हिन्दी में अनुवादित और पुन:प्रकाशित किया गया है।)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

 

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