समर्थ इतिहास-१०

समुद्रगुप्त के बारे में लेख लिखकर पूरे किये और समुद्रगुप्त के बारे में एक आख्यायिका ज्ञात हुई। उसे लोककथा कहा जा सकता है, प्रत्यक्ष इतिहास नहीं कहा जा सकता, परन्तु मेरी राय में लोककथाओं को भी ऐतिहासिक खज़ाने की रक्षा का सूत्र होता ही है; दर असल लोककथा यह मूल ऐतिहासिक तने में उत्पन्न हुई शाखाएँ ही होती हैं।

एक बार सम्राट समुद्रगुप्त अपने परिवार के साथ समुद्रस्नान करने गये थे। ज़ाहिर है कि उनके साथ उनका लवाज़िमा भी था ही। समुद्रस्नान करते समय ही समुद्रगुप्त की अंजुलि में एक केकड़ा आ गया। समुद्रगुप्त ने उसे झटक दिया और वह केकड़ा समुद्रगुप्त के एक दास के गर्दन पर जाकर गिर गया। उस केकड़े ने उस दास की गर्दन को काट लिया। समुद्रगुप्त यह बात नहीं जानते थे। समुद्रस्नान होने के बाद सभी लोग विश्राम करने उनके तत्कालीन निवासस्थान लौट गये। राजपरिवार के लिए स्वादिष्ट भोजन लेकर दास आने लगे। समुद्रगुप्त के सामने झुककर भोजन परोसते समय उस दास की गर्दन पर हुए ज़ख्म को समुद्रगुप्त ने देखा और ज़़ख्म के बारे में पूछा। समुद्रगुप्त के उस दास ने समुद्रगुप्त से, उसकी गर्दन को पेड़ की टहनी लगकर ज़ख्म होने की बात कही; परन्तु समुद्रगुप्त के विदूषक ने राजा को सच्ची बात बतायी। खाना खाने के बाद समुद्रगुप्त ने उस दास को अपने दालान में बुलाया, स्वयं के खास राजवैद्य के द्वारा संपूर्ण उपचार करने की व्यवस्था की और उसे उसके वजन जितने सोने के सिक्के दिये। विदूषक यह देखकर अचंभित हो गया। सभी राजा का गुणगान करने लगे। अगले दिन एक बड़े जलाशय में नौका से विहार करते समय एक मगरमच्छ ने उस नौका पर हमला किया और नौका में बैठे समुद्रगुप्त के प्रमुख नाविक अधिकारी के हाथ का पंजा ही तोड दिया। जल्दी में समुद्रगुप्त ने नौका को वापस लौटाया। उसके (उस अधिकारी के) भी इलाज की व्यवस्था हो ही गयी। परन्तु उसके ठीक हो जाने के बाद समुद्रगुप्त द्वारा उसे छह महिने के कारावास की सज़ा सुनायी गयी।

यह देखकर विदूषक और अमात्य भी अचंभित हो गये। उस ज़माने के राजाओं के विदूषक बहुश्रुत, व्यासंगी और विचारक होते थे। उसने समुद्रगुप्त से एकान्त में मुलाकात कर समुद्रगुप्त के इस असंगत बर्ताव के बारे में प्रश्‍न पूछा। तब समुद्रगुप्त ने उसे जवाब दिया, ‘‘विदूषक, राजा होने के कारण प्रजा का हित करना यह मेरा आद्य कर्तव्य है और फिर इसी कारण गलती से ही सही, मेरे हाथों यदि प्रजा को क्षति पहुँचती है तो वह बहुत बड़ा अपराध है। अत एव उस नुकसान की भरपाई करना मेरे लिए आवश्यक ही है। परन्तु राजा के नौकाविहार का सूत्रसंचालन करने की ज़िम्मेदारी जिस अधिकारी को सौंपी गयी है, उसे उस नौकाविहार में क्या मुश्किलें और संकट आ सकते हैं, इस बात की पूर्ण रूप से जानकारी कर लेनी चाहिए थी। जिस सरोवर में इतनी बड़ी संख्या में मगरमच्छ हैं, वहाँ विहार नहीं करना चाहिए और यदि विहार करना आवश्यक ही है, तो अलग नौकाओं का उपयोग करना चाहिए, यह देखना उस अधिकारी का कर्तव्य था। उसने इसमें ग़लती कर दी और इस ग़लती के कारण बहुत भारी नुकसान हो सकता था, इसलिए यह गुनाह ही है। उसकी सेवा को ध्यान में रखते हुए मैंने उसका भी इलाज़ अच्छे से करवाया ही है। परन्तु यदि उसे उसके गुनाह की सज़ा नहीं दी जायेगी, तो वह मेरी बड़ी ग़लती होगी; क्योंकि जो राजकीय अधिकारी राजा का अच्छी तरह खयाल नहीं रखता, वह आम जनता का भला क्या खयाल रखेगा? यह अधिकारी व्यापारियों के प्रचंड नौकानयन को सँभालने में निश्‍चित रूप से असमर्थ है, इस कारण मैंने उसे पद से भी दूर हटा दिया है। इससे उसके परिवार की बुरी हालत न हो, इसलिए उसके परिवार की परवरिश की ज़िम्मेदारी को स्वीकार करना यह निश्‍चित रूप से ही मेरा कर्तव्य है।’’

राजा कैसा होना चाहिए, विदूषक कैसा होना चाहिए और शासकीय अधिकारी कैसा नहीं होना चाहिए, यह सुस्पष्ट रूप से बतानेवाली यह कथा है। सर्वक्षेत्रकुशल व्यक्तित्व के धनी समुद्रगुप्त, और भी अधिक भव्य एवं दिव्य स्वरूप में मेरे सामने इस कथा से प्रकट हो गये। किसी बड़ी घटना को मामूली रूप देकर उसकी उपेक्षा करना, वहीं, किसी मामूली घटना को स्वयं के राजकीय फायदे के लिए अनुचित महत्त्व देकर गड़बड़ी मचाना, यह वर्तमान समय के विश्‍व के अधिकांश राजकीय एवं सत्ताधारी व्यक्तियों की आदत है। ऐसा हर एक व्यक्ति श्रेय (क्रेडीट) लेने के लिए तैयार होता है, लेकिन ज़िम्मेदारी को टालता है।

कई बार मत (वोट) पाने के लिए गलत बातों को सही ठहराया जाता है, दोषों का उदात्तीकरण किया जाता है, अन्याय को न्याय का बुरक़ा पहनाया जाता है और इसी कारण लोकतंत्र अधिक से अधिक कमज़ोर होता जाता है। स्वयं के उत्तरदायित्व को हमेशा ध्यान में रखकर बर्ताव करनेवाला राजप्रमुख ही किसी भी समुदाय की भलाई कर सकता है, बाकी सब केवल सुख की आशा दिखा सकते हैं।

समुद्रगुप्त के कालखंड में सुख प्रत्यक्ष रूप से था। क्षितिज पर रहनेवाले ‘आशा’ नामक फूल के रूप में नहीं था।

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

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