समर्थ इतिहास-८

समुद्रगुप्त के कार्यकाल में वेग एवं बल प्राप्त हुआ एक सुंदर सांस्कृतिक प्रवाह था, नारदप्रणित भक्तिमार्ग का प्रवाह। स्वयं समुद्रगुप्त अत्यंत धार्मिक, श्रद्धावान और भक्तिसंगीत में रममाण होते थे। वे स्वयं भगवान विष्णु के उपासक थे, परन्तु इसके बावजूद भी उन्होंने उतने ही प्रेम से शिवमंदिरों का निर्माण किया और वे स्वयं भी शिवपूजन में सम्मिलित होते थे। उनकी पटरानी दत्तदेवी उत्तर भारतीय वैष्णव घराने से थीं, दूसरी रानी दिवादेवी कश्मीर के शैव घराने से थीं, वहीं, तीसरी प्रमुख रानी रंभादेवी दक्षिण भारत के कट्टर वैष्णव पंथ से थीं। साम्राज्य के सभी धार्मिक मामलों में धर्मपाल ये समुद्रगुप्त के मुख्य सलाहकार थे और वे ही सारे कुंडलाचार्यों के अधिपति भी थे। धार्मिक प्रशासकीय उत्तरदायित्व को धर्मपाल द्वारा अत्यधिक संतुलित वृत्ति से निभाया गया था और मंदिरों को सभी दृष्टि से सुंदर, पवित्र एवं समाज-अभिमुख बनाया गया था। रंभादेवी धार्मिक स्थलों में किये जाने वाले पूजन, उपासना और संकीर्तन इस विभाग को सँभालती थीं। समुद्रगुप्त ने रंभादेवी के अधिपत्य में विद्वान एवं भक्तिप्रधान उपासकों की एक ‘नारद सभा` की स्थापना की थी।

धर्मपाल स्वयं नारदीय भक्तिसूत्रों के कट्टर समर्थक थे और कर्मकांड एवं जटिल उपासनापद्धतियों की आवश्यकता न होकर भक्तिमार्ग ही श्रेयस्कर है, ऐसी स्वयं समुद्रगुप्त की धारणा थी। अत एव इस नारदसभा ने अपने प्रतिनिधियों को संपूर्ण साम्राज्य में नियुक्त करके नारदीय भक्ति का ज़ोरदार प्रचार एवं प्रसार किया। राणी रंभादेवी कार्तिक एकादशी से चैत्र पूर्णिमा के दौरान विभिन्न स्थानों पर जाकर, मंदिरों की व्यवस्था और कामकाज नीतिपूर्ण एवं भक्तिपूर्ण हो, इस बात का ध्यान रखती थीं।

हम पहले ही देख चुके हैं कि सम्राट समुद्रगुप्त स्वयं नियमित रूप से उपासना करते थे। धर्मपाल स्वयं प्रतिदिन शाम को राजधानी में रहनेवाले वराहनारायण मंदिर में नारदीय भक्तिसूत्रों पर आधारित संकीर्तन करते थे और एकादशी के दिन पूर्णत: मौन रखकर केवल ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय` इस जाप का अनुष्ठान करते थे।

समुद्रगुप्त का कार्यकाल यह जिस प्रकार भौतिक उन्नति का स्वर्ण काल था, उसी प्रकार भक्तिमार्ग की उन्नति का भी स्वर्णकाल था; वास्तव में, नीतिप्रधान भक्तिमार्ग के आचरण से ही संपूर्ण भारतीय समाज संपन्न था।

स्वयं राज्यकर्ता ही जब नीति और भक्ति से युक्त होता है और इन दोनों तत्त्वों का पालन प्रजा के द्वारा भी किया जाये इस बारे में आग्रही होता है, तभी स्वर्णयुग अवतरित होता है। यही महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष इससे प्राप्त होता है।

साम्राज्यस्थापना के बाद समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ भी किया, परन्तु अश्व (घोड़ा) मारने से इनकार करके उसके स्थान पर समुद्रगुप्त ने उस अश्व को राजधानी स्थित प्रमुख मंदिर में भगवान की सेवा के लिए अर्पण किया। यह भी एक क्रांति ही थी और समुद्रगुप्त, धर्मपाल इनकी प्रेरणा से सुस्थापित हुई कुंडलाचार्य सभा एवं नारद सभाओं के कारण, राजा के इस निर्णय का कर्मठ एवं अशिष्ट धर्मपंडितों द्वारा विरोध नहीं हो सका। समुद्रगुप्त और उनके पुत्र विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वितीय) के कार्यकाल में भारत में निवास कर चुके चिनी यात्री ‘फा-हैन` के लेखन द्वारा भी, इतिहास के इस सर्वोत्कृष्ट कालखंड की सविस्तार जानकारी प्राप्त होती है। फा-हैन ने राज्य शासन, सेना, अमात्य परिषद्‌‍ इनके बारे में गौरवपूर्ण बातें कही हैं, उसी तरह इसने भारत में उस ज़माने में रहनेवाले श्रद्धावान भारतीय समाज का भी गुणगान किया है। उसकी राय में इतना उत्कृष्ट धर्मपालन यह कभी भी न भूलने जैसी बात थी। फा-हैन यह स्वयं बौद्धधर्मी था और समुद्रगुप्त की सर्वधर्मसहिष्णुता से अत्यंत प्रभावित हुआ था। गया स्थित बुद्धमंदिरों और अन्य भी कई विहारों के लिए समुद्रगुप्त द्वारा किया गया इंतज़ाम और की गयी व्यवस्था को देखकर इसने समुद्रगुप्त के बारे में ‘वास्तविक नीतिमान राजा` ऐसा कहा है।

प्रजाजनों को धार्मिक कृत्य, उत्सव और तीर्थयात्राएँ करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया जाता था और इस कारण बड़ी संख्या में प्रवासी पवित्र भावना से दूर दूर तक प्रवास करते थे। इसके परिणामस्वरूप भारतीय समाज अधिक से अधिक एकसंघ होता गया।

पुरुषसूक्त और रामरक्षा का पठण नियमित रूप से मंदिरों में होता रहता था। उसमें सभी प्रजाजन उनके कामकाज के समय के अनुसार सम्मिलित होते थे। इतना ही नहीं, बल्कि रामरक्षा पठन के अंत में शिवपंचाक्षरी स्तोत्र कहने की परिपाटी नारद सभा ने शुरू करवायी थी और शिवमंदिरों में भी रुद्रपठण के बाद रामरक्षा का रामविजय मंत्र कहा जाने लगा।

तीर्थयात्रा करनेवाले प्रवासियों के समूह को ‘दिंडी` यह नामाभिधान इसी काल में प्राप्त हुआ, साथ ही हर एक मंदिर पर और उत्सवों के समय घरों पर धर्मध्वज लगाने की परंपरा भी इसी काल में शुरू हुई।

वास्तव में, सभी दृष्टि से समुद्रगुप्त का कार्यकाल सर्वसंपन्न था; क्योंकि वह वास्तव में रामराज्य था।

(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

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