श्वसनसंस्था भाग – ४०

आज तक हम अपनी श्वसनसंस्था के कार्यों की जानकारी प्राप्त कर रहे थे। अब हमें श्वसनसंस्था के विकारों की जानकारी प्राप्त करनी है। डॉक्टर लोग श्वसन के विकारों का निदान कैसे करते हैं और निदान के अनुसार उपचार पद्धति में बदलाव कैसे करते हैं, यह हम सीधी सरल भाषा में समझेंगे।

श्वसन के विकार मुख्यत: तीन प्रकार के होते हैं –
१) अपर्याप्त व्हेंटिलेशन यानी प्रत्येक श्वास में हवा का उचित मात्रा में फेफड़ों में अवागमन नहीं होता है।
२) फेफड़ों से रक्त में और इसके विपरित (vice varsa) हवा का आदान-प्रदान अच्छी तरह से नहीं होता है।
३) रक्त से ऊतकों की ओर वायु का वहन उचित मात्रा में नहीं होता है।

 

श्वसन का विकार इन में से किस प्रकार है, उसी के अनुसार उसपर होनेवाले उपचार की पद्धति आधारित होती है।

इससे पहले हमने फेफड़ों के विभिन्न वॉल्युम्स और कपॅसिटी के बारे में समझ लिया है। जब हम पूर्णशक्ति से और पूरी श्वास लेते हैं और उसे रोककर रखते हैं तो इस अवस्था मे फेफड़ों और श्वास मार्ग में कुल जितनी हवा होती हैं उसे टोटल लंग कपॅसिटी (Total Lung capacity or TLC) कहते हैं। उसी तरह पूरी ताकत के साथ उच्छवास छोड़ने के बाद भी फेफड़ों में जो हवा शेष रह जाती है, उसे रेसिड्युअल वॉल्युम (RV) कहते हैं। फेफड़ों की बीमारियों में इनमें कौन से बदलाव होते हैं, अब हम उनका अध्ययन करेंगे।

एअर वे ऑबस्ट्रक्शन (Air way obstruction) : इसमें हवा के प्रवास में श्वसन मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है। दमा(Asthama) अथवा दमा जैसी बीमारियाँ इस विकार में आती हैं। इस विकार में ब्रोंकिओल्स का ज्यादा मात्रा में आकुंचन होता है। श्वास अंदर लेते समय कोई अड़चन नहीं होती। परन्तु श्वास बाहर छोड़ते समय ब्रोकोओल्स का आकुंचन और भी ज्यादा बढ़ जाता है। इसके कारण ज्यादा तर हवा अलविलोओलाय में अटककर रह जाती हैं। इस विकार में रोगी को उच्छवास छोड़ना कठिन होता है। प्रत्येक श्वास के साथ हवा फेफड़ों में आती रहती हैं परन्तु बाहर निकलनेवाली हवा की मात्रा उसकी तुलना में कम होती है। इसका परिणाम क्या होगा, इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं।

फेफड़ों के हवा से भरे होने के कारण (TLC) और (RV) (टोटल लंग कपॅसिटी और रेसिड्युअल वॉल्युम) दोनों में वृद्धि हो जाती है।

Constructed lung disease : इस प्रकार के विकार में फेफड़े पूरी तरह नहीं फूल पाते हैं। फलस्वरूप फेफड़ों में आनेवाली हवा की मात्रा कम हो जाती है। इसके कारण TLC और RV दोनों घट जाती हैं अथवा कम हो जाती हैं। क्षयरोग, सिलीकोसिस इत्यादि बीमारियों में ऐसा होता है। साथ ही साथ छाती के पिंजरे में दोष होने के कारण भी फेफड़ों का प्रसरण कम होता है। फायफेसिस, स्कोलिओसिस जैसे रीढ़ की हड्डी के दोषों से ऐसा परिणाम होता है। साधी भाषा में ‘कूबड़’वाले व्यक्ति में उपरोक्त प्रकार के रीढ़ की हड्डी के दोष होते हैं।

क्षयरोग जैसी बीमारियों में फेफड़ों के नॉर्मल ऊतकों का रूपांतर फायबर ऊतकों में हो जाता है, इसे फायब्रोसिस कहते हैं। इस प्रकार के फायब्रोटिक फेफड़ों का पूर्ण प्रसरण नहीं होता है। छाती के पिंजरों के दोषों में फेफड़े नॉर्मल होते हैं, परन्तु इन्हें पूरी तरह फूलने के लिये आवश्यक जगह नहीं मिलती। संक्षेप में कहें तो दोनों विकारों में फेफड़ों का प्रसरण व्यवस्थित नहीं होता।

छाती के पिंजरे के दोष में सर्वसाधारणत: फेफड़े नॉर्मल रहते हैं। उन्हें उनके कार्यों के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध नहीं होता। फेफड़ों का आकुंचन और प्रसरण सीमित हो जाता है। इसके आगे हम अब इन दोषों की ज्यादा चर्चा नहीं करेंगें। फेफडों के कुछ महत्त्वपूर्ण विकार अवश्य हम अगले लेखों में समझनेवाले हैं।(क्रमश:)

Leave a Reply

Your email address will not be published.