श्‍वसनसंस्था – १३

हमारे फेफड़ों में से हवा का अंदर-बाहर प्रवास कैसे होता है, इसकी जानकारी हमने प्राप्त की। इस प्रवास में अनेक घटकों का समावेश होता है। श्‍वसन संस्था के सभी भाग, छाती का पिंजरा, उसकी क्रिया में शामिल होनेवाले स्नायु इत्यादि सभी के ‘कार्य’ श्‍वसन क्रिया को आसान बनाते हैं। श्‍वसन क्रिया में सहायता करनेवाले सभी स्नायुओं को ‘श्‍वसन के स्नायु’ अथवा Muscles of Respiration कहा जाता है।

साधारण, शांत एवं धीमी गति से होनेवाली श्‍वासोच्छ्वास क्रिया में श्‍वास लेते समय यानी inspiration में ही इन स्नायुओं का ‘कार्य’ होता है। श्‍वास को बाहर निकालते समय स्नायुओं का कोई ‘कार्य’ नहीं होता। उच्छ्श्‍वास की क्रिया, फेफड़ों एवं छाती के पिंजरे की इलॅस्टिक रिकॉईल के फलस्वरूप पूर्ण होती है। इसी लिए श्‍वास अंदर लेने की क्रिया ‘अ‍ॅक्टीव्ह’ क्रिया होती है और उच्छ्वास की क्रिया ‘पॅसिव्ह’ होती है। श्‍वास अंदर लेते समय श्‍वसन के स्नायुओं के द्वारा जो कार्य किया जाता है उसे work of respiration यानी ‘श्‍वसन की क्रिया’ कहा जाता है। इस कार्य के लिए कौन-कौन सी शक्तियाँ सहायता प्रदान करती हैं तथा कौन-कौन सी शक्तियाँ इसका विरोध करती हैं, इसका अब हम अध्ययन करेंगें।

श्‍वसन की क्रिया:
इन कार्यों को प्रमुख रूप से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है –
१) फेफड़ों और छाती के पिंजरे की इलॅस्टिक फोर्स के विरोध में फेफड़ों को प्रसारित करना। इस कार्य को ‘काँपलायन्स कार्य’ अथवा ‘इलॅस्टिक कार्य’ कहा जाता है।

२) फेफड़ों की पेशियों तथा छाती के पिंजरे के विरोध में किया जानेवाला कार्य। इसे पेशी के विरोध में किया जानेवाला कार्य कहते हैं।

३) श्‍वसन मार्ग के विरोध में किया गया कार्य। जब हम हवा अंदर लेते हैं तो श्‍वसन मार्ग इसका विरोध करता है। इस विरोध के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है।

उपरोक्त इन तीनों विभागों में होनेवाले कार्यों की जानकारी प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है। शांत और धीमी गति से होनेवाले श्‍वसन में फेफड़ों को प्रसारित करने के लिये सर्वाधिक शक्ति खर्च होती है। यानी काँपलायन्स वर्क सबसे ज्यादा होता है। उसके कम श्‍वसनमार्ग के विरोध में शक्ति खर्च होती है। पेशियों के विरोध में कार्य करने के लिये सबसे कम शक्ति खर्च होती है। हम जब जोर-जोर से श्‍वासोच्छ्वास करते हैं, उदा. दौड़ते समय, व्यायाम करते समय इत्यादि, तब श्‍वसनमार्ग में हवा का वेग?ज्यादा होता है। ऐसी अवस्था में श्‍वसन मार्ग का विरोध ज्यादा होता है।

फेफड़ों की विभिन्न बीमारियों में उपरोक्त तीनों विरोध बढ़ जाते हैं। श्‍वसन कार्य के लिए ज्यादा शक्ति का इस्तेमाल करना पड़ता है।

श्‍वसन मार्ग के विकारों में श्‍वसन मार्ग का विरोध बढ़ जाता है। फेफड़ों की बीमारियों में अन्य दोनों प्रकार के विरोध बढ़ जाते हैं।

श्‍वसन मार्ग के प्रत्येक भाग में विषाणुबाधा के कारण बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। गला (Pharynx), स्वरयंत्र (Larynx), श्‍वसन नलिका (Bronchi) इत्यादि भागों में बीमारियाँ होती हैं तो इन भागों में सूजन आ जाती है। इन बीमारियों को क्रमश: Pharyngitis, Laryngitis तथा Bronchitis कहते हैं। बीमारियों के दौरान इनमें होनेवाले स्राव भी हमेशा की अपेक्षा ज्यादा मात्रा में होते हैं। श्‍वसनमार्ग में आई हुई सूजन और ज्यादा स्राव होने के कारण श्‍वसनमार्ग में हवा के प्रवाह को होने वाला विरोध बढ़ जाता है। अस्थमा अथवा दमा की बीमारियों में श्‍वसन नलिका की दीवार के स्नायु Spasm चले जाते हैं। यानी काफ़ी समय तक जकड़ी हुयी स्थिति में रहते हैं। फलस्वरूप श्‍वसन नलिका के अंदर का रिक्तस्थान कम हो जाता है जिससे हवा के प्रवाह को होनेवाला विरोध बढ़ जाता है।

श्‍वसन की क्रिया में श्‍वास अंदर लेना अ‍ॅक्टीव क्रिया होती है। इस क्रिया में श्‍वसन के स्नायु कार्य करते हैं। परन्तु उच्छ्वास के दौरान ये स्नायु कोई भी कार्य नहीं करते, क्योंकि उच्छ्वास की क्रिया फेफड़ों की इलॅस्टिक रिकॉइल के फलस्वरूप पूरी होती है। यानी फेफड़े आंकुचित होते हैं और अंदर की हवा बाहर निकाल दी जाती है। यदि पानी से भरे हुए स्पंज के टुकड़े को दबाया जाये तो उससे पानी बाहर निकलता है। उसी तरह हवा से भरे फेफड़ों को दबाने पर यानी आकुंचित होने पर उसमें भरी हुई हवा श्‍वसनमार्ग में आ जाती है और वहाँ से उलटा प्रवास करके नाक के रास्ते से बाहर निकल जाती है। यह सामान्य अवस्था में घटित होता है। यदि श्‍वसनमार्ग में कोई विकार हो तो परिस्थिति बदल जाती है। फेफड़े हमेशा की तरह हवा बाहर छोड़ते हैं, परन्तु श्‍वसन मार्ग के आकुंचित हो जाने के कारण उसमें होनेवाला ज्यादा स्राव, श्‍वसन मार्ग के रिक्त स्थान को और भी कम कर देता है। ऐसी स्थिति में फेफड़ों की हवा को पॅसिवली अर्थात बिना किसी कार्य के, बाहर निकालना क़ठिन हो जाता है। तब उच्छ्वास भी अ‍ॅक्टीव क्रिया बन जाती है। श्‍वसन के स्नायु उच्छ्वास के दौरान भी कार्यरत होते हैं। द्विभाजक पर्दा ज्यादा तेज़ी से आंकुचित होता है। छाती की पसलियों के स्नायु, गर्दन के स्नायु, नाक के स्नायु इत्यादि सब कार्यरत हो जाते हैं। श्‍वासोच्छ्वास जल्दी-जल्दी होने लगता है। श्‍वास और उच्छ्वास दोनों के लिये मेहनत करनी पड़ती है, ताकत लगानी पड़ती है, इसे ही हम दमा कहते हैं। छोटे और बड़े किसी भी व्यक्ति में दमा को पहचानना काफ़ी आसान है।

१) दमा से पीडित व्यक्ति की श्‍वास हमेशा की अपेक्षा जल्दी-जल्दी चलती है। उस व्यक्ति का पेट लोहार की भट्टी की तरह लगातार ऊपर-नीचे होता हुआ दिखायी देता है।

२) नॉर्मल श्‍वसनक्रिया में नाक में कोई भी हलचल नहीं होती। दम लगने पर नाक की हलचल दिखायी देती है।

३) छाती के बीच की हड्डी (स्टरनम) के ऊपर और नीचे दोनों जगह श्‍वसन क्रिया के दौरान गढ्ढे पड़ते हैं तथा गर्दन के स्नायु कठोर हो जाते हैं। साथ ही साथ पसलियों के बीच का हिस्सा अंदर की ओर खींचा जाता है।

४) विकार के ज्यादा बढ़ जाने पर रक्त में प्राणवायु की मात्रा घट जाती है। फलस्वरूप व्यक्ति के नाखून, जीभ, होंठ नीले पड़ जाते हैं। इसे Cyanosis कहते हैं। इस अंतिम लक्षण के दिखायी देने से काफ़ी पहले ऐसे व्यक्ति को योग्य उपचार करवाना आवश्यक होता है।

फेफड़ों की कुछ बीमारियों में श्‍वसन मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। फेफड़े की पेशियों के बीमार हो जाने के कारण पेशियों से होनेवाला विरोध बढ़ जाता है तथा न्यूमोनिआ, फायब्रोसिस (फेफड़ों की पेशी का स्थान तंतुमय पेशियां ले लेती हैं) इत्यादि विकारों में फेफड़ों की काँपलायन्स कम हो जाती है। फलस्वरूप फेफड़ों का आकुंचन-प्रसरण ठीक से नहीं हो पाता। हवा को अंदर लेने तथा बाहर छोड़ने की क्रियाओं के लिए अधिक कार्य करना पड़ता है। इसका दृश्य परिणाम यानी दमा।

शरीर के विभिन्न कार्यों के लिए शरीर कुल जितनी शक्ति खर्च करता है, उसमें से ३ से ५ प्रतिशत शक्ति नॉर्मल श्‍वास क्रिया में उपयोग की जाती है। व्यायाम के समय श्‍वसन क्रिया में लगनेवाली शक्ति की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। यह वृद्धि पचास गुना तक हो सकती है। हमारा शरीर व्यायाम के लिए कितनी ज्यादा शक्ति प्रदान कर सकता है, इस पर हमारे व्यायाम की क्षमता निर्भर करती है।(क्रमश:)

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