राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – संकल्प!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग 9

कोलकाता (उस समय के कलकत्ता) में पढ़ने के लिये आने के बाद केशवराव कई बार दक्षिणेश्‍वर, बेलूर मठ और शांतिनिकेतन जाया करते थे। यहाँ पर उन्हें बहुत आनंद मिलता था। इसी दौरान घटी एक घटना का वर्णन किये बिना नहीं रहा जाता। कलकत्ता में एक सभा चल रही थी। इस सभा के मंच पर उपस्थित एक वक्ता ने लोकमान्य तिलक के विरोध में बोलना शुरू किया। केशवराव से यह बिलकुल बर्दाश्त नहीं हुआ। वे सीधे मंच पर पहुँच गये और तिलकजी के विरुद्ध बोल रहे उस वक्ता के गाल पर एक थप्पड़ लगा दिया। यह देखकर उस वक्ता के समर्थक केशवराव पर टूट पड़े। उन्हें भी केशवराव ने ‘सीधा’ कर दिया। इसी दौरान एक व्यक्ति ने केशवराव के पास आकर उनकी पी़ठ थपथपाकर उन्हें शाबाशी दी और बोला, ‘शाबाश, आज तुमने दिखा दिया कि तुम सच्चे तिलक-भक्त हो।’

RSS - Rameshbhai Mehtaशाबाशी देनेवाला यह व्यक्ति था- मौलाना लियाकत हुसैन! वे प्रखर राष्ट्रभक्त और तिलकजी के अनुयायी थे। इस एक घटना के कारण मौलानाजी के मन में केशवराव के प्रति अत्यधिक आदर उत्पन्न हो गया। इसके बाद जब-जब भी मौलाना लियाकत हुसेन अँग्रेज़ों के विरोध में निदर्शन, मोर्चे आयोजित करते थे, तब-तब केशवराव अपने मित्रों के साथ इस में सहभागी होकर, कँधे पर केसरिया ध्वज लेकर आगे-आगे चला करते थे।

बंगाल में क्रान्तिकारियों के संपर्क में आने के बाद केशवराव ने क्रान्तिकार्य में सहभागी होने की प्रतिज्ञा की। उस समय देश में रहनेवाला माहौल कैसा था, इसके बारे में हमें ठीक से समझ लेना होगा। प्रथम विश्‍वयुद्ध से पहले संपूर्ण देश में अँग्रेज़ों के विरोध में क्रोध की लहर आयी थी। जगह जगह ‘अँग्रेज़ों की सत्ता को उखाड़ फ़ेंकने के लिये, उन्हें भगाने के लिये क्या किया जा सकता है’ इसका विचार किया जा रहा था और इस दिशा में गतिविधियाँ भी शुरू हो चुकी थीं। अँग्रेज़ों के मन में ख़ौ़फ़ उत्पन्न करके उन्हें यह देश छोड़कर भागने पर मजबूर करने के लिये क्रान्तिकारियों ने शस्त्र उठा लिये। देशभर के क्रान्तिकारियों ने एक-दूसरे से संपर्क करना शुरू कर दिया। इसमें महाराष्ट्र, बंगाल, उत्तरप्रदेश और पंजाब के क्रान्तिकारी अग्रसर थे। ये क्रान्ति के आंदोलन के केन्द्र थे, परन्तु देश के अन्य भागों से भी स्वतंत्रता के लिये सर्वस्व अर्पण करने की तैयारी रखने वाले क्रान्तिकारी भी इस कार्य में शामिल हुये ही थे।

क्रान्तिकारियों का यह कार्य जब शुरू था, तब भारतीय नेतागण राजनीतिक आंदोलनों के द्वारा अँग्रेज़ों को चुनौती दे रहे थे। ‘लाल’, ‘बाल’ और ‘पाल’ ये तीनों महत्त्वपूर्ण नेता थे। लाला लजपतराय, जिन्हें ‘पंजाब केसरी’ कहा जाता था, उन्होंने पंजाब में अँग्रे़ज़ों के खिलाफ़ आग फ़ैला दी थी। लोकमान्य तिलक ने सिर्फ़ महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि सारे देश में जागृति निर्माण की थी। वहीं, बिपिनचंद्र पाल ने बंगाल में अँग्रेज़ों के खिलाफ़ काफ़ी कार्य कर रखा था। ऐसे दौर में, वैद्यकीय शिक्षा पूरी करके डॉक्टर केशव बळिराम हेडगेवार कलकत्ता से लौटकर नागपुर आ गये थे। क्रान्तिकार्य में सहभागी हो चुके डॉक्टर की तीव्र इच्छा थी कि देश को स्वतंत्रता प्राप्त हो और इसके लिये वे किसी भी प्रकार का बलिदान करने के लिए तैयार थे। क्रान्तिकार्य में उनका सहभाग हमें यही दर्शाता है। परन्तु इसी समय, डॉक्टर समाज के बारे में गहन चिंतन भी कर रहे थें।

नागपुर वापस आने पर डॉक्टर का यह चिंतन और भी गहरा हो गया। देश की परिस्थिति का निरीक्षण करते समय, उन्हें एक बात का एहसास हो गया। क्रान्तिकारियों की प्रखर ऩिष्ठा और आत्माहुति देने की तैयारी देखकर डॉक्टर गद्गद हो उठे थे। संपूर्ण देश में अँग्रे़ज़ों के विरोध में चल रही गतिविधियों, आंदोलनों के प्रति भी उनके मन में सम्मान की भावना थी। परन्तु उनके मन से यह प्रश्‍न जा नहीं रहा था कि इतना सब कुछ करने के बावजूद भी मुट्ठी भर अँग्रेज़ इस देश पर सत्ता कैसे चला सके। यदि सारा देश एकजूट हो जाये तो अँग्रेज़ कितने समय तक इस देश में टिक सकेंगें? परन्तु ऐसा हो नहीं रहा था।

अँग्रेज़ों के शासन को क्रियान्वित करनेवाले इस देश के कुछ लोग ही अपने बांधवों पर अत्याचार कर रहे थे, अँग्रेज़ों के शासन को अधिक मज़बूत कर रहे थे। केवल अँग्रेज़ ही नहीं, बल्कि इससे पहले बाहर से आये मुगलों के शासनकाल में भी ऐसा ही हुआ था। कुछ लोग विदेशी शासकों का जान की बाज़ी लगाकर प्रतिकार कर रहे थे; वहीं, कुछ लोग उनके समर्थन में खड़े रहे। देश के हज़ारो वर्षों के इतिहास पर चिंतन करते समय, यह बात विशेष तौर पर डॉक्टर के ध्यान में आ गयी। दोष अँग्रेज़ों या मुगलों का नहीं था। यदि दोष है ही, तो उनके शासन को स्वीकार करनेवाले हमारे विभाजित समाजमन का। यह हमारे समाज की कमज़ोरी साबित होती है। हम पर शासन करनेवाले अधिक सामर्थ्यशाली नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज की कमज़ोरी ही उनकी ताकत बन गयी है। इसीलिये डॉक्टर समझ गये थे कि अँग्रेज़ों या मुगलों को दोष देने के बजाय, हमारे समाज को संघटित करना अत्यंत आवश्यक है।

यदि समाज संघटित हो जाये, चरित्रवान बन जाये, इस देश के नागरिक देश के प्रति समर्पित हो जायें, तो अँग्रेज़ क्या, कोई भी विदेशी इस देश पर शासन नहीं कर सकेंगे, इस बात का यक़ीन डॉक्टरसाहब को हो चुका था। स्वतंत्रता के लिये प्रयास जारी रहते समय ही, देश को एकसंघ बनाने का कार्य भी शुरू होना चाहिए, इस महान कार्य की नींव ड़ालनी ही चाहिये, ऐसे विचार डॉक्टर अपने संपर्क में आनेवाले कइयों के समक्ष व्यक्त करने लगे। हर एक ने उनके इन विचारों से सहमति तो दर्शायी, परन्तु उनके मन में प्रश्‍न था कि यह कैसे होगा? क्या यह संभव है? ‘क्या हिंदु कभी संघटित होंगे?’ इस प्रश्‍न का उत्तर का़फ़ी लोगों ने नकारार्थी दिया था। ‘यह लगभग असंभव-सी बात है’ ऐसा कहकर कुछ लोग इतिहास का प्रमाण दे रहे थे। इसके अलावा ‘यह काम करेगा कौन?’ यह सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्‍न भी ये लोग पूछा करते थे। इन प्रश्‍नों के उत्तर आसान नहीं थे। परन्तु किसी को तो यह शिवधनुष उठाना ही था। डॉक्टरसाहब ने यह कार्य करने की इच्छा जतायी। ‘यदि किसी ना किसी को यह काम करना ही है, तो यह मैं करूँगा’, ऐसा निश्‍चय डॉक्टरसाहब ने किया और इसके लिये वे नागपुर में जगह-जगह घूमने लगे। उच्चस्तरीय लोगों से लेकर सामान्य लोगों तक सबसे वे बात करने लगे। बड़ी उम्र के लोगों से बातें करते समय ही, उन्होंने छोटे बच्चों से भी मित्रता स्थापित की। बच्चों के साथ संवाद स्थापित करने को वे ज़्यादा महत्त्व देते थे। क्योंकि इन बच्चों में उन्हें देश का भविष्य नज़र आ रहा था।

दूसरी ओर राष्ट्रीय काँग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में भी उन्हें विभिन्न जनआंदोलन में शामिल होने की सूचनाएँ मिला करती थी। उसी के तहत सन् १९२१ के ‘असहकार आंदोलन’ में डॉक्टरसाहब जोश के साथ सहभागी हुए। इसके लिये उन्होंने व्यापक दौरा किया और बहुत ही आक्रामक भाषण दिये। इन भाषणों के लिये उन्हें गिरफ्तार किया गया और उनपर मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे में उन्हें एक वर्ष की सज़ा हो गयी। इस मुकदमे की एक घटना बताने योग्य है। ‘क्या आप अपनी गलती कबूल करते हैं?’ ऐसा प्रश्‍न उनसे न्यायाधीश ने पूछा। इस प्रश्‍न का डॉक्टरसाहब ने गर्व के साथ उत्तर दिया, ‘बिलकुल नहीं, मेरे ही देश में मुझे ऐसा करना पड़ रहा है, इस बात की शर्म आपको आनी चाहिए। अपराधी मैं नहीं, बल्कि आप ही साबित होते हो।’ इस तरह का ज़ोरदार उत्तर डॉक्टरसाहब ने अँग्रेज़ न्यायाधीश को दिया। इस समय अपनी गलती कबूल करके डॉक्टरसाहब अपने आप को मुक्त करवा सकते थे। उनके साथ इस आंदोलन जो सहयोगी थे, उन्होंने ऐसा ही किया। परन्तु डॉक्टरसाहब ने ऐसा करने से साफ़ इन्कार कर दिया।

एक वर्ष के इस कारावास के दौरान उन्होंने गहन चिंतन जारी रखा। अपने देश के इतिहास का निरीक्षण और परीक्षण किया। अपने देश की धर्म-परंपरा, संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है। भारतीयों जैसा नीतिमान, गुणवान् और पराक्रमी समाज पूरी दुनिया भर में नहीं हैं। हमारी जनसंख्या भी विशाल है। फ़िर भी हम मुठ्ठीभर आक्रमणकारियों के गुलाम बन जाते हैं। क्योंकि हम असंगठित और अनुशासनहीन हैं। हमारे इन्हीं दुर्गुणों को आक्रमणकारियों ने भाँप लिया और उन्हीं का इस्तेमाल कर वे हम पर राज करते रहे। इसीलिये हमारे समाज को आत्मसम्मानी, आत्मनिर्भर और सुसंगठित बनना ही होगा। ‘यह कार्य कौन करेगा’ इस प्रश्‍न का उत्तर ‘हम करेंगें, मैं करूँगा’ ऐसा ही होना चाहिये। इसके लिये अन्य सभी कार्यों को बाजू में रखकर अब सर्वस्वी इसी कार्य में जुट जाना चाहिये, ऐसा डॉक्टरसाहब ने इस एक वर्ष के कारावास के दौरान ही तय कर लिया। ‘अब मुझे आगे क्या करना है’ इसकी रूप-रेखा उन्होंने निश्‍चित कर ली।

जेल से रिहा होने के बाद, डॉक्टर ने बालकों और युवा वर्ग को संगठित करने का काम शुरू किया। ऊपरी तौर पर आसान और अतिशय साधारण प्रतीत होनेवाला यह काम डॉक्टर लगातार का़फ़ी समय तक करते रहे। डॉक्टर बन चुके, स्वतंत्रता के लिए कारावास सहन कर चुके डॉक्टर, बच्चों के साथ बच्चे बनकर ही खेल रहे हैं, यह दृश्य अनेक लोगों को अचंभित कर देता था। उन्हें इसका मतलब भी नहीं समझता था। परन्तु डॉक्टरसाहब का ध्येय बिलकुल सुस्पष्ट था। यह साधारण-सी बात देश का भविष्य बदल सकती है, इसका एहसास उन्हें हो गया था। बड़े कार्य की शुरुआत हमेशा बड़ी ही होती है, ऐसा नहीं है। वटवृक्ष का बीज बहुत छोटा होता है, मग़र उस में विशाल वटवृक्ष और उसके बीज भी समाये हुए होते हैं। डॉक्टरसाहब के इस छोटे प्रतीत होनेवाले कार्य के बारे में भी ऐसा ही था।

अंतत:, सन् १९२५ की विजयदशमी के शुभमुहूर्त पर डॉक्टरसाहब ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ नामक संकल्प का प्रारंभ किया।
(क्रमश:)………

-रमेशभाई मेहता

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