आवाहन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग १०

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‘महोदय, यदि अपने देश के हालात सुधारने हों, तो तुम्हारे-मेरे जैसे हज़ारों नौजवानों को अपना सर्वस्व अर्पण करना होगा। शहर, गाँव और वनप्रदेश में भी सैंकड़ों अत्यावश्यक कार्य हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसीलिये मैंने नौकरी, विवाह न करते हुए, स्वयं को इन कार्यों के लिये न्योछावर करने का निश्चय किया है। इसके लिये मुझे आप सबके आशीर्वाद चाहिए।’

– यह था, केशव बळीराम हेडगेवार के द्वारा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना से पहले किया गया आवाहन। नागपुर आने के बाद यहाँ के प्रतिष्ठित नागरिकों और युवकों से बातें करते समय डॉक्टरसाहब ने अपने जीवन का यह संकल्प घोषित किया। उनके विचार सभी को मान्य थे। ‘हमारा धर्म, संस्कृति, परंपरा सबकुछ सर्वश्रेष्ठ है ही। भारतीयों जैसे नीतिमान, पराक्रमी और गुणवान् लोग दुनियाभर में नहीं है। भारतीयों की जनसंख्या भी विशाल है। फिर भी मुट्ठीभर मुगल और अंग्रेज़ हमपर शासन कैसे कर सकते हैं? क्योंकि हमारे समाज में बहुत बड़े दोष प्रविष्ट हुए हैं। इसीलिए सबसे पहले समाज को संघटित करना चाहिये। समाज में आपसी मेलजोल को बढ़ाना चाहिए। हममें रहनेवाले इन दुर्गुणों को दूर करते समय हमें स्वाभिमानी एवं संघटित होना ही चाहिए’ डॉक्टरसाहब के ये विचार सभी को मान्य तो थे ही, लेकिन….

….लेकिन यह कार्य करेगा कौन? अनेकों वर्षों से असंघटित रहे इस समाज में एकता लाने का कार्य आसान नहीं था। सदियों से जातपात, ऊँच-नीच, भेदभाव इन दुर्गुणों ने हमारे समाज को कमज़ोर और स्वार्थी बना दिया था। उनकी जड़ें समाज में का़फ़ी गहराई तक फैली थीं। इन सब बातों में से समाज को बाहर निकालना बहुत ही कठिन काम था। यह शिवधनुष उठायेगा कौन? इस कार्य के महत्त्व को मान्य करने के बावज़ूद भी, ‘इस कार्य का प्रारंभ कौन करेगा’ इस एक ही मुद्दे पर आकर सभी रुक जाते थे। ‘यदि यह कार्य अत्यावश्यक है और किसी ना किसी को इसकी अगुआई करनी ही होगी, तो यह कार्य मैं अपने हाथों में ले लूँगा। बाक़ी का सारा कार्य छोड़कर अब मैं इस कार्य के लिये ही अपना जीवन अर्पण करूँगा।’ ऐसा डॉक्टरसाहब ने कहा।

आख़िरकार डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार ने सन् १९२५ की विजयादशमी के दिन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की। परन्तु आगे क्या? डॉक्टरसाहब ने अपने कार्य की रूपरेखा बहुत पहले ही बना ली थी। उसके लिए अखंड-चिंतन किया था। असहकार आंदोलन में सहभागी हुए डॉक्टरसाहब को एक साल के कारावास की सज़ा भी हुई थी। इस दौरान उन्होंने का़फ़ी धैर्य के साथ अपने कार्य की रूपरेखा तैयार की थी। कार्य का क्रम तय हो जाने के बाद उसे क्रियान्वित करना आसान हो जाता है। चूँकि डॉक्टरसाहब ने यह काम पहले से ही कर रखा था, संघ की स्थापना के कुछ समय बाद ही नागपूर के प्रत़िष्ठित और मान्यवर व्यक्तियों के साथ-साथ बिल्कुल सर्वसाधारण वर्ग के लोगों के साथ भी डॉक्टरसाहब विस्तृत चर्चा करने लगे।

अपने संपर्क में आनेवाले हर एक व्यक्ति के सामने वे शिवाजीमहाराज की मिसाल रखा करते थे। उन्होंने बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में शून्य में से अपना राज्य स्थापित किया था। उसका आधार था, समाज। समाज की युवाशक्ति को जागृत करके महाराज ने किये इस महान कार्य से हमें सबक सीखना चाहिये, ऐसा डॉक्टरसाहब हमेशा कहा करते थे। स्वामी विवेकानंदजी ने बहुत ही कम समय में, इस देश की युवाशक्ति को प्रेरित करने का कार्य करके दिखाया, इससे भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं, ऐसा डॉक्टरसाहब को प्रतीत होता था। ये बात भी वे हमेशा बताया करते थे।

‘यदि संघटन को बढ़ाना है, कार्य को आगे बढ़ाना है, तो हमें नियमित रूप से मिलते रहना होगा। चिंतन, चर्चा करते रहना होगा’ इस डॉक्टरसाहब के कथन से सहमत रहनेवाले कई लोग तैयार होने लगे। शुरू-शुरू में, सभी लोग सप्ताह में एक बार मिला करें और समाज तथा देश की परिस्थिति पर चर्चा करें, ऐसा तय हुआ। डॉक्टरसाहब एक बहुत ही प्रभावी वक्ता थे। उनकी बात से सच्चाई झलकती थी। अत: अल्पावधि में ही उन्होंने युवा वर्ग का विश्वास जीत लिया। उस समय देश में जो कुछ भी घटित हो रहा था, उसका डॉक्टरसाहब विश्लेषण किया करते थे। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उनके द्वारा किये गये इतिहास के चिंतन को भी वे निरन्तर प्रस्तुत किया करते थे। महापराक्रमी रहनेवाला हमारा समाज विदेशी सत्ताधीशों के चँगुल में फ़ँसता गया, इस मुद्दे पर डॉक्टरसाहब तहे दिल से बोलते थे।
समाज में जड़ें पकड़ चुकीं गलत विचारधारणाएँ, प्रथाएँ, ऊँच-नीच का भेदभाव इत्यादि अनिष्ट बातों का भयानक परिणाम हमारे देश को भुगतना पड़ा। इन सबके कारण हमारा समाज संघटित नहीं हो सका। समाज में प्रविष्ट हुए इन दोषों को दूर करके हमें पुन: संघटित होना है और वैभवशाली राष्ट्र का निर्माण करना है, ऐसा ध्येय डॉक्टरसाहब ने युवावर्ग के समक्ष रखा। हमारी मूल संस्कृति में ऐसे भेदभाव थे ही नहीं, इस बात पर भी डॉक्टरसाहब विशेष रूप से ग़ौर फ़रमाते थे।

सामाजिक सुधार एवं स्वतंत्रता ये दोनों बातें बहुत ही प्रिय रहनेवाले डॉक्टरसाहब के द्वारा, संघ की स्थापना करते समय निश्चित किया गया ध्येय का़फ़ी अलग था। उसमें उनके सारे चिंतन का सार समाया है। डॉक्टरसाहब ने संघ के व्यासपीठ पर से सामाजिक और राजकीय दृष्टि से तीव्र भूमिकाओं को अपनाना हमेशा टाला। लेकिन व्यक्तिगत तौर पर, संघ की स्थापना के बाद भी डॉक्टरसाहब स्वतंत्रतासंग्राम में सहभागी होते ही रहे, यह बात बहुत लोग नहीं जानते हैं। समय की धारा में आगे चलकर घटित हुई एक घटना की मिसाल यहाँ पर दी जा सकती है। सन् १९३० में अंग्रेज़ों के ज़ुल्मी कानून के विरोध में देशभर में आंदोलन शुरू हो चुका था। २२ जुलाई १९३० को डॉक्टरसाहब ने यवतमाळ ज़िले में जंगल सत्याग्रह शुरू किया। इसके लिए उन्हें नौं महीने के सश्रम कारावास की सजा हुई थी। इस कारावास के समय में भी डॉक्टरसाहब ने संघ का कार्य शुरू रखा। उसके फ़लस्वरूप, जेल में भी कई स्वयंसेवक तैयार हो गये।

संघ की स्थापना के बाद का़फ़ी समय तक, हफ़्ते में एक बार मिलकर युवावर्ग को प्रेरित करने का काम डॉक्टरसाहब करते थे। परन्तु उनके विचार सुनने के लिए एक हफ़्ते तक इंतज़ार करना नौजवानों के लिए मुश्किल होने लगा। ‘हम हर रोज़ क्यों नहीं मिलते’ ऐसा प्रश्न युवावर्ग करने लगा। उनकी यह माँग शीघ्र ही साकार हो गयी। संघ की स्थापना के बाद एक वर्ष में ही यानी सन् १९२६ में ही संघ की पहली शाखा शुरू हो गयी। शुरू-शुरू में नागपूर की साळुबाई मोहिते के वाड़े में संघ ने शाखा का पहला रूप धारण किया और संघकार्य आगे बढ़ने लगा। यहाँ पर आने वाले स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ती गयी। इन स्वयंसेवकों में से कुछ लोग जब काम के सिलसिले में दूसरे स्थानों पर जाते थे, तो वहाँ पर भी संघ की शाखा शुरू किया करते थे। इस प्रकार संघ का कार्य धीरे धीरे, मग़र निश्चित गति से बढ़ने लगा।

पढ़ाई के लिये अन्य स्थानों पर जानेवाले स्वयंसेवकों ने, संघ के विचारों का प्रचार करके शाखाएँ स्थापित करने के लिये पहल की। उन्हें उनके सहपाठियों से का़फ़ी अच्छा प्रतिसाद (रिस्पाँज़) मिलने लगा।

खुलेआम अंग्रेज़ों के विरोध में ना बोलने का संयम हालाँकि संघ की शाखाओं में पाला जाता था, मग़र फिर भी संघ के द्वारा क्रान्तिकारियों की हर संभव सहायता की जा ही रही थी। परन्तु इन बातों को खुलेआम नहीं करना है और प्रकट रूप में इनकी चर्चा भी कहीं नहीं करनी है, ऐसा संघ का निर्धार था। उदाहरण के तौर पर मैं कुछ बातें आपको बताता हूँ। लाला लजपतराय की मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार रहनेवाले सँडर्स का वध करनेवाले क्रान्तिकारी राजगुरुजी को, नागपुर के पास के उम्रेड में भैयाजी दाणी ने छिपा रखा था। आगे चलकर भैयाजी दाणी, संघ के सरकार्यवाह बने। सन् १९२८ में भगतसिंग नागपुर आकर डॉक्टरसाब से मिले थे। इस प्रकार गुप्त रूप से काम करना, यह संघ के कार्य को बाधा पहुँचानेवाली बात नहीं थी। इसीलिए संघ का विस्तार तेज़ी से होता रहा।

भारतीय समाज उत्सव-प्रिय है। देशभर में जगह-जगह पर कोई ना कोई उत्सव शुरू रहता ही है। संघ ने भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करनेवाले छ: उत्सवों का चयन किया। इनमें गुढ़ीपाडवा, ‘हिन्दु साम्राज्य दिन’ यानी शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक दिन, गुरुपूर्णिमा, रक्षाबंधन और मकर-संक्रान्ति का समावेश है। संघ ने इन्हीं उत्सवों का चयन क्यों किया, इसकी जानकारी हम आगे देखेंगे।

संघ की शाखाओं में परमपवित्र केसरिया (भगवा) रंग के ध्वज को प्रणाम करके कार्यक्रम शुरू होता है और ध्वज को प्रणाम करके ही कार्यक्रम का समारोप होता है। संघ में केसरिया ध्वज का महत्त्व अपंरपार है। इस ध्वज में भारतवर्ष का सारा इतिहास समाया है। अनादि काल से भारतीय राजाओं का ध्वज केसरिया रंग का ही रहता था, इसके साथ भारत की संस्कृति, धर्म, परंपरा जुड़ी हुई है। देश के इतिहास के कई उतार-चढ़ाव इस केसरिया ध्वज ने देखें हैं। सर्वोच्च उत्कर्ष का दौर और अत्यंत प्रतिकूल परिस्थिति का सामना भी इस ध्वज ने किया है। इस ध्वज को फ़हराते रहनेवाले हाथों की कमी इस देश को कभी भी नहीं महसूस हुई। इसीलिये इतने आघातों को सहन करने के बावजूद भी, आज भी यह केसरिया ध्वज गर्व से फ़हरा रहा है।

– रमेशभाई मेहता

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