भारत माता की जय

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग १९

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संघ पर प्रतिबंध लगाया जा चुका था। सरसंघचालक श्रीगुरुजी को जेल में रखा गया था। इसके विरोध में स्वयंसेवको ने सत्याग्रह, आंदोलन भी किये। परन्तु किसी के भी द्वारा देशविघातक कृत्य नहीं किये गये। संघ का अनुशासन एवं व्यवस्थापन अभेद्य था। गुरुजी यानी सरसंघचालक के जेल में रहते हुए, स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन करने की ज़िम्मेदारी तत्कालीन सरकार्यवाह श्रीभैयाजी दाणी पर थी। उन्होंने स्वयंसेवको को, मर्यादा में रहकर अपना विरोध प्रदर्शित करने का आदेश दिया था, उसका उल्लंघन किसी ने भी नहीं किया था। इसी दौरान संघ पर के अन्यायकारक प्रतिबंध के विरोध में गुरुजी सरकार को समय-समय पर पत्र लिख रहे थे। ‘गांधीजी की हत्या से संघ का कुछ भी ताल्लुक नहीं है। ऐसी परिस्थिति में, संघ पर झूठे आरोप थोंपकर लगाया गया प्रतिबंध यानी समाज के प्रति अन्याय साबित होता है, क्योंकि संघ समाज का ही एक भाग है’ यह बात सरकार के ध्यान में लाने की कोशीश गुरुजी कर ही रहे थे। साथ ही, समाज भी संघ पर के इन आरोपों का विरोध करें, ऐसा आवाहन कर रहे थे।

गुरुजी के इस आवाहन के परिणाम दिखायी देने लगे थे। संघ निर्दोष है, इस बात का स्वीकार समाज करने लगा था। संघ पर लगा प्रतिबंध हटाने के लिये हमें भी कुछ करना चाहिये, ऐसी सोच संघ से संबंध न रहनेवाले परन्तु सत्य का साथ देनेवाले लोगों की भी होने लगी थी। साथ ही, संघ पर लगाये गये प्रतिबंध के दौरान स्वयंसेवकों को प्रचंड यातनाएँ सहनी पड़ीं। इसके बाद भी अपनी भूमिका पर दृढ़ रहते हुए, संघ ने ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाया जिससे कि देश को, समाज को नुकसान पहुँचें, यह भी समाज देख ही रहा था। इसका भी का़ङ्गी गहरा प्रभाव पड़ा। महाराष्ट्र के श्री.ग.वि.केतकर और तामिलनाडू के श्री.टी.व्ही.आर. व्यंकटराम शास्त्री जैसे वरिष्ठ नेताओं ने, संघ पर लगाये हुए प्रतिबंध को हटाने की माँग की। गृहमंत्री सरदार पटेल और मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों को भी संघ पर का प्रतिबंध हटाने की बात मान्य होने लगी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना ध्येय-धोरण निश्चित करनेवाली मूलभूत नियमावली (घटना) घोषित करनी चाहिये, ऐसा आग्रह सरकार ने किया। संघ के ध्येय-धोरणों में छिपाने जैसी कोई भी बात नहीं थी। अत: सरकार की इस माँग को मानने में कोई हर्ज़ नहीं था। पूजनीय गुरुजी ने यह माँग मान ली और संघ की मूलभूत नियमावली (घटना) बना ली गयी। १२ जुलाई १९४९ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाया गया प्रतिबंध हटाया गया होने की घोषणा ‘आकाशवाणी’ के ज़रिये की गयी। बिना किसी शर्त के, इस प्रतिबंध को हटाने की घोषणा हो जाने के बाद, गृहमंत्री सरदार पटेल ने स्वयं पत्र लिखकर श्रीगुरुजी का अभिनंदन किया और संघ के कार्य के लिए शुभकामनाएँ दीं। दिनांक १३ जुलाई १९४९ को गुरुजी को बैतुल स्थित कारागृह से रिहा कर दिया गया। यहाँ से गुरुजी नागपुर के लिये रवाना हुए और दोपहर के समय नागपुर पहुँचे। इस समय हज़ारो लोग गुरुजी की वहाँ प्रतीक्षा कर रहे थे। गुरुजी के आगमन के साथ ‘भारत माँ की जय’ के जयघोष से आकाश गूँज उठा। प्रखर अग्निपरिक्षा से निखरकर अधिक ही देदीप्यमान बने अपने इस पुत्र का समाजपुरुष ने उतने ही कौतुक के साथ स्वागत किया।

चार-पाँच दिन तक नागपुर में रहने के बाद गुरुजी, श्री.टी.व्ही.आर.व्यंकटराम शास्त्री से मुलाक़ात करने के लिये मद्रास पहुँचे और अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। प्रतिबंध हटने के बाद शास्त्रीजी ने गुरुजी को एक टेलीग्राम भेजा था – ‘जिसका अंत भला, वह सबकुछ भला’। इसके बाद गुरुजी ने श्री.ग.वि.केतकर से भी मुलाक़ात की और उनका शुक्रिया अदा किया। मद्रास से पुणे और मुंबई होकर गुरुजी वापस नागपुर पहुँच गये। अगस्त १९४९ से जनवरी १९५० तक के छ: महीनों में गुरुजी ने देश भर में यात्राएँ कीं। हर स्थान पर जनता ने उनका उत्साहपूर्वक स्वागत किया। ‘समाज संघ से और व्यक्तिगत स्तर पर मुझसे भी बहुत प्रेम करता है’ इसका एहसास उन्हें इन यात्राओं के दौरान हुआ। इसी दौरान श्रीगुरुजी को, सरदार पटेल की तबियत खराब होने की जानकारी मिली। मुंबई आकर गुरुजी सरदार पटेल से मिले। बहुत ही प्रेम और आदर के साथ सरदार पटेल ने गुरुजी का स्वागत किया। इस समय पर उनके द्वारा कहे गये उद्गार अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

‘आपसे प्रत्यक्ष मिलकर मैं अपनी भावनाएँ व्यक्त करना चाहता था। बँटवारे के समय लाहोर, कराची, रावळपिंडी, हैदराबाद और पाकिस्तान के अन्य स्थानों पर रहनेवाले हिन्दुओं को सुरक्षित स्वदेश लाने के लिये स्वयंसेवकों द्वारा किये गये बलिदान का मुझे एहसास है। सभी को सुरक्षित स्वदेश लाने के बाद ही आपके स्वयंसेवक वहाँ से निकले, यह भी मैं जानता हूँ।’ इन शब्दों में अपनी भावनाएँ सरदार पटेल ने गुरुजी के समक्ष इस समय व्यक्त की। लेकिन इसीके साथ, अपनी चिन्ता का कारण भी सरदार पटेल ने इस समय गुरुजी के सामने प्रस्तुत किया, ‘अपने देश की जाति-पाति, स्पृश्य-अस्पृश्य, उच्च-नीच इन भेदभावों का फ़ायदा उ़ठाने के लिये मौक़ापरस्त लोग घात लगाये बैठे हैं। यदि हमें उनकी योजनाओं को सफ़ल नहीं होने देना है, तो हमें हमारे समाज को सशक्त बनाना होगा। यह कार्य आप कर सकोगे, ऐसा मुझे पूर्ण विश्‍वास है।’ ऐसा सरदार पटेल ने कहा। काश्मीर की समस्या सुलझाने के लिये संघ ने जो प्रयास किए, उसके कारण मेरा यह विश्‍वास और भी दृढ़ हो गया है, ऐसा भी सरदार पटेल ने कहा।

काश्मीर की समस्या सुलझाने के लिये संघ द्वारा किये गये प्रयासों की मिसाल भी, इस अवसर पर देश के पहले गृहमंत्री ने दी। यह शायद वर्तमान पीढ़ी को संदेह में ड़ालनेवाली बात होगी। कई लोगों को इतिहास के इस भाग की जानकारी है ही नहीं। काश्मीर समस्या अभी तक सुलझी नहीं है और इसको लेकर भारत का पाकिस्तान के साथ युद्ध भी हो सकता है, ऐसा डर दुनिया को लगा रहता है। पाकिस्तान हररोज़ इस तरह की धमकियाँ भारत को देता रहता है। परन्तु आज काश्मीर का जो भी हिस्सा भारत के पास है, वह किसकी बदौलत है, उसके लिये किसने बलिदान किया; यह इतिहास का महत्त्वपूर्ण भाग देश के सामने पेश ही नहीं किया जाता। उसे यदि समझ लिया जाये, तो देश की ज़्यादातर समस्याएँ आज भी दूर हो सकती हैं। साथ ही, देश के प्रति संघ की ऩिष्ठा, संघ का प्रभाव और संघ पर अन्य लोगों द्वारा दिखाया गया विश्‍वास, इनकी भी यथार्थ कल्पना इससे हो सकेगी। इसीलिये ख़ासकर मैं इस इतिहास को आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

सन् १९४७ के अक्तूबर महीने के तीसरे हफ़्ते में पाकिस्तान ने अपनी सेना को काश्मीर में घुसाया। अभी स्वतंत्रताप्राप्ति के दस हफ़्ते भी नहीं बीते थे कि पाकिस्तान ने अपना चरित्र दिखाना शुरू कर दिया था, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। छोटी, बड़ी मिलकर कुल ५४६ रियासतें भारत में विलीन हो चुकी थीं, लेकिन काश्मीर के राजा हरिसिंग भारत में विलीन होने को तैयार नहीं थे। ‘जब युरोप में स्वित्झर्लंड सबसे अलग रहते हुए अपना स्वतंत्र अस्तित्व बरक़रार रख सकता है, तो भारत और पाकिस्तान के बीच स्थित काश्मीर स्वतंत्र क्यों नहीं रह सकता?’ यह उनका सवाल था। परन्तु यह उनका भोलापन था।

टोलीवालों के भेस में काश्मीर में घुसी पाकिस्तानी सेना ने प्रचंड हाहाकार मचा दिया था। किसी भी प्रकार से काश्मीर को कब्ज़े में लेना ही उनका लक्ष्य था। मानवता का पुरस्कार करने के लिए वे थोड़े ही ना यहाँ घुसे थे। पाकिस्तान की सेना को रोकने की क्षमता तो काश्मीर रियासत की सेना में थी ही नहीं; लेकिन इस सेना में भी का़फ़ी संख्या में पाकिस्तान के समर्थक लोग भी थे। काश्मीर को हाथ से निकलता हुआ बेचैनी से देखने के अलावा भारत के पास अन्य कोई रास्ता नहीं था। क्योंकि काश्मीर का विलीनीकरण करने के लिये राजा हरीसिंग तैयार नहीं थे। ऐसी आपातकालीन स्थिती में सरदार पटेल हाथ पर हाथ रखकर बै़ठे नहीं थे, उन्होंने चरमसीमा की राजनीतिक कुशाग्रता दिखायी। क्योंकि इस धोखे का अंदाजा उन्हें का़फ़ी पहले ही हो चुका था। परन्तु राजा हरीसिंग को समझाने में उन्हें कामयाबी नहीं मिल पा रही थी। इसीलिये सरदार पटेल ने सरसंघचालक श्रीगुरुजी की सहायता ली।

‘भारत में विलीन हो गया, तो काश्मीर का भविष्य उज्ज्वल होगा’ यह राजा हरीसिंग को समझाने का काम आप ही कर सकते हो, ऐसा सरदार पटेल ने स्वयं श्रीगुरुजी से बताया और उसके लिये आवाहन किया। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना काश्मीर के भूभाग के एक एक टुकड़े को निगलती जा रही थी। ऐसी परिस्थिति में भी राजा हरिसिंग यह निर्णय नहीं कर रहे थे कि उन्हें भारत में विलीन होना है या नहीं। इसी दौरान सरदार पटेल द्वारा किये आवाहन को प्रतिसाद देकर श्रीगुरुजी काश्मीर पहुँचे। वे जाकर राजा हरीसिंग और उनकी पत्नी महारानी तारादेवी से मिले। इन दोनों ने काश्मीरी शाल देकर श्रीगुरुजी का प्रेमपूर्वक स्वागत किया। १८ अक्तूबर १९४७ को यह मुलाकात हुई। गुरुजी ने पहले राजा हरीसिंग की बात सुनी और उसके बाद उन्हें संभावित ख़तरे का भी अहसास कराया।

‘युरोप में स्वित्झर्लंन्ड स्वतंत्र रह सका क्योंकि उसके आसपास या बगल में पाकिस्तान जैसा देश नहीं था। भारत और पाकिस्तान के बीच स्थित काश्मीर यदि स्वतंत्र रहा, तो भी भारत से उसे कोई ख़तरा नहीं होगा। परन्तु पाकिस्तान के बारे में क्या आप ऐसा विश्‍वास दिखा सकते हैं?’ ज़ाहिर है, इस प्रश्‍न का उत्तर ‘ना’ ही था। क्योंकि पाकिस्तान ने चन्द कुछ दिनों में ही अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। ‘इसके अलावा पाकिस्तान का सामना करने के लिए खड़ी कश्मीरी सेना में पाकिस्तानपरस्त लोग भी हैं, उनका क्या? काश्मीर अकेले पाकिस्तान का सामना नहीं कर सकता। यदि काश्मीर को सुरक्षित रखना है, तो इस संस्थान को भारत में विलीन होना ही होगा। विलीनीकरण के बाद अन्य संस्थानों की तरह काश्मीर का भी सम्मान रखा जायेगा।’ श्रीगुरुजी के इस समझाने का प्रभाव राजा हरीसिंग पर पड़ा और उन्होंने अपने प्रधानमन्त्री मेहरचंद महाजन को अपने द्वारा हस्ताक्षरित किये गये विलीनीकरण के कागजातों को लेकर दिल्ली भेजा।

इस कार्य को सफ़लतापूर्वक सम्पन्न करने के बाद श्रीगुरुजी दिल्ली आये। उनके स्वागत के लिए दिल्ली में विशाल जनसमुदाय एकत्रित हुआ था। इसके बारे में मैं ज़्यादा कुछ कहने के बजाय ‘बीबीसी’ समाचार वाहिनी द्वारा प्रसारित समाचार का त़फ़सील मैं यहाँ पर प्रस्तुत करता हूँ। इसके बाद इस विषय पर कुछ और कहने की आवश्यकता ही शेष नहीं रहेगी। बीबीसी ने इस समाचार में कहा था, ‘जो काम भारतसरकार नहीं कर सकी, वह काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने कर दिखाया। गुरुजी भारतीय क्षितिज पर उदित हो रहा प्रकाशमान तारा बन गये हैं।’ (क्रमश:)

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