विक्रमादित्य का सिंहासन

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग १७

pg12_shriguruji1३५ वर्ष की उम्र में ही गुरुजी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पद की ज़िम्मेदारी आ गयी। संघ के कुछ ज्येष्ठ स्वयंसेवकों की तुलना में गुरुजी नये थे। देशभर में फैले स्वयंसेवकों को गुरुजी के बारे में कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी। उनकी यात्राएँ भी कुछ ज़्यादा नहीं हुई थीं। ऐसी परिस्थिति में संघ के कुछ हितैषियों के मन में यह प्रश्‍न उठ रहा था कि गुरुजी के नेतृत्व में संघ किस प्रकार कार्य कर सकेगा। वह स्वाभाविक ही था। ‘संघ के सरसंघचालक’ के पद का स्वीकार करने के बाद गुरुजी ने संघ के ज्येष्ठ स्वयंसेवकों की एक बैठक आयोजित की। इस अवसर पर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये।

‘डॉक्टरसाहब में माँ की वत्सलता, पिता का उत्तरदायित्व और गुरु का मार्गदर्शन इन तीनों का समन्वय था। उन्होंने ‘सरसंघचालक पद’ की बहुत ही मुश्किल ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी हैं। इस ज़िम्मेदारी को मैं कैसे निभा पाऊँगा, यह प्रश्‍न मुझे भी सता रहा है। डॉक्टर अपने पीछे विक्रमादित्य का सिंहासन छोड़ गये हैं। उसपर बैठकर संघकार्य को सुचारु रूप से करने के लिये मुझे आप सबके सहयोग की आवश्यकता है। इसके लिये मुझे आपका सहकार्य और मार्गदर्शन मिलता रहेगा, ऐसा मुझे विश्‍वास है। अपना संघटन एक अभेद्य क़िला है। इस पर अपनी चोंच से प्रहार करनेवाले गीधों की चोंचे टूटकर गिर जायेंगी।’’

गुरुजी के उपरोक्त आत्मविश्‍वासपूर्ण उद्गारों को सुनकर स्वयंसेवकों का उत्साह दुगुना हो गया। गुरुजी ने संघकार्य को ही अपने जीवन का एकमात्र ध्येय माना। संघकार्य के लिए अनुकूल रहनेवालीं बातों को अपने व्यक्तित्व में उतारने के लिए गुरुजी ने अथक प्रयास किये। अपनी दिनचर्या, जीवनशैली, स्वभाव आदि सबकुछ संघ से सुसंगत ही होना चाहिये, ऐसा गुरुजी का निर्धार था। डॉक्टरसाहब द्वारा देखे गये हिंदू राष्ट्र के सपने को साकार करने का एकमात्र ध्येय नज़रों के सामने रखकर गुरुजी कार्य के उत्कर्ष के लिए कार्यरत हो गये।

सरसंघचालक की हैसियत से गुरुजी पूरे देश में प्रवास करने लगे। इस दौरान संघ की शक्ति बढ़ने लगी थी। स्वयंसेवकों के माध्यम से गुरुजी पूरे समाज को संघटित करने के अथक प्रयास कर रहे थे। प्रवास के दौरान, देश में हो रहीं अनेक घटनाओं की ओर गुरुजी का ध्यान आकर्षित हुआ। इसी समय ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी। इस आंदोलन में संघ के स्वयंसेवक भी सहभागी हो चुके थे। स्वतंत्रता की आहट सुनायी देने लगी थी और अँग्रेज़ भी यह जान चुके थे कि उन्हें शीघ्र ही इस देश को छोड़कर जाना पड़ेगा। परन्तु वे इस देश को आसानी से छोड़नेवाले नहीं थे। उसके पहले अँग्रेज़ों ने भारतीय समाज को विभाजित करने का काम शुरू भी कर दिया था।

उस समय देश के प्रमुख राजनीतिक पक्ष रहनेवाले काँग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा, अपने-अपने राजनीतिक विचार दृढ़तापूर्वक प्रतिपादित कर रहे थे, जनता से उन्हें प्रतिसाद भी मिल रहा था। परन्तु मुस्लिम लीग बहुत ही आक्रमकता से विभाजन की माँग कर रही थी। देशभर में हिन्दु समुदाय पर विभिन्न स्तरों पर से हमले होने लगे थे। फलस्वरूप  धार्मिक अनबन बढ़ती जा रही थी और ऐसी परिस्थिति में निश्‍चित रूप से क्या करना चाहिये, यह प्रमुख राजनीतिक पक्ष होनेवाले काँग्रेस की समझ में नहीं आ रहा था। वे बहुत बड़ी वैचारिक असमंजसता में पड़ चुके थे। इसी दौरान दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू था और दुनियाभर में ब्रिटीशों की पराजय होती जा रही थी।

ऐसी चुनौतीभरी परिस्थिती में, देशव्यापी कहे जाने लायक एकमात्र संगठन था – ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’। संघ ने कभी भी राजनीति में हिस्सा नहीं लिया था। परन्तु राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का प्रोत्साहन संघ स्वयंसेवकों को दे रहा था। साथ ही साथ, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए घातक साबित होनेवालीं बातों का संघ हमेशा कसकर विरोध करता आया है। स्थापना से लेकर आज तक संघ की आलोचना करनेवाले इस बात पर कभी ग़ौर नहीं करते। इसीलिये बिना सोचे-समझे की गयी इस आलोचना को कभी भी ज़्यादा महत्त्व प्राप्त नहीं हुआ और संघ बढ़ता ही गया।

देश में जगहों जगहों पर घूमते समय गुरुजी के कानों पर एक भयंकर षड्यंत्र की भनक पड़ी। देश के कुछ अतिआक्रामक समूह, उन्हें कमजोर प्रतीत होनेवाले नेताओं की हत्या करने की योजना बना रहे थे। यदि  देश के सबसे बड़े नेताओं को ख़त्म करने का यह षड्यंत्र यदि सफल हो गया होता, तो देश में अराजकता फ़ैल गयी होती। संघ यह कभी भी मान्य नहीं करता था। स्वयंसेवकों के मन में देशहित को अपने प्राणों से भी बढ़कर स्थान रहता है। समय आने पर, संगठन की अपेक्षा अपना राष्ट्र बड़ा है और राष्ट्र के लिए ही संगठन है, इस बारे में स्वयंसेवकों के मन में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं होती है। गुरुजी ने इस षड्यंत्र की सारी जानकारी उन नेताओं तक पहुँचायी। फलस्वरूप  यह षड्यंत्र नाकाम हो गया और उस समय देश में अराजकता, अस्थिरता नहीं फ़ैली।

संघ पर जहरीली टिप्पणियाँ करने वालों को इस इतिहास की जानकारी नहीं रहती। अथवा यदि यह जानकारी रहती भी होगी, तब भी वे संघ पर मिथ्या आरोप लगाने से बाज नहीं आयेंगे। खैर, समय की धारा में इस जानकारी को आप तक पहुँचाने की इच्छा थी, इसीलिए आपके समक्ष यह जानकारी प्रस्तुत की। इसी दौरान, साम्यवादी विचारधारा मन पर हावी हुए लोग सर्वत्र अस्थिरता फ़ैलाने के प्रयास कर रहे थे।

१६ अगस्त १९४६ को, पाकिस्तान की माँग करनेवाले मोहम्मद अली जिन्ना ने ‘डायरेक्ट अ‍ॅक्शन’ का हिंसक संदेश अपने समर्थकों को दिया। पश्‍चिमी पंजाब और सिंध में भड़की आग पूरे देश में फ़ैलने लगी। पूर्वी बंगाल के जिन्ना-समर्थक सुर्‍हावर्दी ने हिंसा और क्रूरता की हद कर  दी। तुम्हें पाकिस्तान देना है या यह खून-खराबा शुरू रखना है, यह जिन्ना और उनके समर्थकों का ठेंठ प्रश्‍न था। इस दौरान मानवता को कलंकित करनेवाली घटनाएँ घटित हो रही थीं। अत: उनकी प्रतिक्रियाओं का होना भी उतना ही स्वाभाविक ही था। देश का हिन्दु जनमत भी क्षुब्ध हो चुका था।

पूरे देश में संघ के प्रचारक और स्वयंसेवक अपना काम कर रहे थे। जान की बाज़ी लगाकर अपने समाज की रक्षा करने के लिए बलिदान देने की भी उनकी तैयारी थी। कइयों ने इसके लिए बलिदान दिया भी। इतिहास में उनका ज़िक्र नहीं हैं। इस दौरान अपने हाथों में संघ का नेतृत्व आने के बाद श्रीगुरुजी ने प्रचारक और स्वयंसेवकों को स्पष्ट आदेश दिया था कि ‘अपने समाज की रक्षा के लिये कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े, तो भी कोई हर्ज़ नहीं हैं, लेकिन इस काम से पीछे मत हटना।’ स्वयंसेवकों ने अपनी जान की परवाह किये बिना गुरुजी के इस आदेश का पालन किया। आज शायद समाज को उसका स्मरण भी नहीं होगा। लेकिन बँटवारे के रक्तपात का अनुभव करनेवाले कुछ लोगों को यक़ीनन इसकी जानकारी है। इस दौरान संघ द्वारा किये गये कार्य का ज़वाब नहीं हैं, इसकी पुष्टी वे करेंगें। परन्तु अपने कार्य का ढिंढ़ोरा पीटने की परंपरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नहीं हैं। इसलिए संघ का यह अतुलनीय कार्य जितने प्रमाण में देश के सामने आना चाहिये था, उतने प्रमाण में नहीं आया। इस लेखमाला के माध्यम से इस ‘इतिहास’ को बयान करने के भी मेरे प्रयास होंगे।

आखिरकार देश का बँटवारा हो ही गया। उस समय के राजनीतिक नेताओं में विभाजन रोकने की ताक़त एवं मानसिकता नहीं थी। १४ अगस्त की रात १२.०० बजे पाकिस्तान का जन्म हुआ। देश के हज़ारों वर्षों के इतिहास में असाधारण स्थान रहनेवाली हमारी सिंधु नदी आँसू बहाते हुए हमसे दूर हो गयी। जिस सिंधु नदी के तट पर वेदों की रचना हुई, उस सिंधु नदी का समावेश स्वतंत्र भारत के भूभाग में नहीं है, इस भयंकर दुख को हमारे समाज को पचाना पड़ा। सिंधु नदी का महत्त्व भारतीयों को पूरी तरह ज्ञात था। स्वातंत्र्यवीर सावरकर के शब्दों में कहें तो, ‘सिंधु नहीं, तो हिंदु आये कहाँ से?’

स्वतंत्रता से कुछ दिनों पहले गुरुजी, वर्तमान समय में पाकिस्तान में रहनेवाले सिंध और पश्‍चिम पंजाब की यात्रा कर रहे थे। यहाँ पर भयंकर ख़ूनख़राबा, लूटमार शुरू थी। लेकिन ऐसे हालातों में भी सिंध की कराची में, हैदराबाद, शिकारपुर और पश्‍चिमी पंजाब के लाहोर, रावलपिंडी और अन्य स्थानों पर संघ की ध्वजांकित शाखाएँ चल रही थी। इन शाखाओं पर पूजनीय गुरुजी गये और हिन्दुओं का मनोबल बढ़ाया। उन दिनों ऐसे स्थानों पर प्रवास करना, यह मौत के मुँह में घुसकर बाहर निकलने जैसा था। परन्तु श्रीगुरुजी ने इसकी परवाह नहीं की। कभी मालगाड़ी मे बै़ठकर, तो कभी ईंजन के डिब्बे में ही बै़ठकर गुरुजी ने यात्राएँ कीं। ये यात्राएँ करनेवाले गुरुजी के लिए अलग से सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी। मात्र कुछ स्वयंसेवक उनके साथ रहा करते थे।

खैर! विभाजन हो गया और खंडित स्वतंत्रता हमारे हिस्से में आयी। स्वतंत्रता के बाद गुरुजी ने पूरे देश में भ्रमण करना शुरू किया। पाकिस्तान से प्राण बचाकर हिन्दु समुदाय वापस लौट रहा था। उनकी सुरक्षा और उनके पुनर्वसन में हर संभव सहायता करने का आदेश गुरुजी ने स्वयंसेवकों को दिया था। सरकार द्वारा इसके लिए किये जा रहे कामों में भी मदद करने का संदेश गुरुजी ने दिया था। पाकिस्तान से आनेवाले लाखों हिन्दु भाई-बहनों के लिए अन्न-पानी, निवास का प्रबन्ध करने की चुनौती, नये से स्वतंत्र हुए देश के सामने थी। संघ ने इस कार्य में अपने आप को समर्पित कर दिया। अभी-अभी प्रदर्शित हुई फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ में, बँटवारे के समय के हालातों का चित्रण किया गया ही है। पाकिस्तान से आये हिन्दु एवं सिख भाईयों की सहायता करनेवाले संघ के स्वयंसेवक भी इस फिल्म में दिखाई देते हैं।

इस दौरान सेवाकार्य करते समय संघ के स्वयंसेवको ने अविरत कष्ट उठाये। इससे संघ की संवेदनशीलता के दर्शन सभी को हुए। ‘विभाजन यह अंतिम सत्य है’ यह श्रीगुरुजी ने कभी भी नहींमाना। मातृभूमि की खंडित प्रतिमा को पुन: अखंड बनाने का सपना हर एक देशवासी के मन में जाग उठना चाहिए, यही श्रीगुरुजी की तीव्र आकांक्षा थी।
(क्रमश:)

-रमेशभाई मेहता

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