रामेश्‍वर भाग-३

रामेश्‍वर का यह प्रदेश भोर में जाग उठता है, ‘रामनाथस्वामी’ मन्दिर की पूजा के मन्त्रघोष से। भोर के समय ही इस मन्दिर में पूजा शुरू हो जाती है। ‘सायंगृह’ नाम के स्थान में, जिसे स्थानीय भाषा में ‘पल्लियरइ’ कहा जाता है, वहाँ हर शाम को भगवान की स्वर्णमूर्ति समारोहपूर्वक लायी जाती है और वहाँ की देवीमूर्ति के पास रखी जाती है। इन मूर्तियों को उंजळ यानी झूले पर रखा जाता है। इन मूर्तियों का सायंपूजन किया जाता है और भोर के समय उनकी पूजा भी यहीं पर की जाती है।

चलिए, अब हम इस विशाल तिसरे प्राकार से विदा लेकर प्रमुख देवता के गर्भगृह की ओर प्रस्थान करते हैं।

वह देखिए, प्रमुख देवता का गर्भगृह। यहीं पर ‘रामनाथस्वामी’का शिवलिंग विराजमान है। इस शिवलिंग पर चाँदी का कवच चढाया गया है। पुराने समय में श्रद्धालु काशी से गंगाजल लाकर इसी शिवलिंग को उससे अभिषेक करते थे और आज भी यह परिपाटी चल रही है। यह सोचिए कि पुराने समय में जब श्रद्धालु काशी से कोसों दूर तक पैदल चलकर, गंगाजल की काँवर को कंधों पर उठाकर यहाँ के गर्भगृह में प्रवेश करते होंगे, तब इस शिवलिंग के दर्शन से वे कितने ख़ुश होते होंगे! साथ ही अपने परिश्रम के सार्थक होने का एहसास भी उन्हें होता होगा। है ना? इस गर्भगृह के सामने ही हनुमानजीद्वारा शिवलिंग ले आने की रामायणस्थित घटना को तराशा गया है।

परिपाटी ऐसी है कि पहले हनुमानजीद्वारा लाये गये शिवलिंग के पूजनदर्शन किये जाते हैं। हनुमानजी द्वारा लाया गया शिवलिंग प्रमुख गर्भगृह की उत्तरी दिशा में अन्य एक गर्भगृह में है।

इस मन्दिर के इला़के में दाखिल होते ही कई देवताओं के छोटे बड़े गर्भगृह दिखायी देते हैं। विशाल नंदि के साथ साथ सिंदूरचर्चित हनुमानजी, गणेशजी, कार्तिकेयजी के दर्शन भी हम करते हैं।

रामनाथस्वामी’ के मंदिर के पूर्वी प्रवेशद्वार से बस कुछ ही दूरी पर समुद्र है और इस मन्दिर के समुद्र से रहनेवाले साहचर्य को हम मन्दिर में भी देख सकते हैं। यहाँ पर समुद्र के अधिपति जिन्हें ‘महोदधि’ और ‘रत्नाकर’ इन नामों से संबोधित किया जाता है, ऐसे दो समुद्रों के दो अधिपतियों को हम यहाँ शिल्प के रूप में देख सकते है।

मन्दिर के प्रमुख आराध्य ‘रामनाथस्वामी’ और हनुमानजी द्वारा लाया गया शिवलिंग– ‘विश्‍वनाथार्’ की सहधर्मचारिणियों के दर्शन भी इसी मन्दिर में अलग अलग गर्भगृह में हम करते हैं।

भगवान रामनाथ की सहधर्मचारिणी को ‘पर्वतवर्धिनी’ कहा जाता है। साधारणत: परमात्मअवतारों की सहधर्मचारिणियों की मूर्तियाँ उनकी बायीं ओर रहती हैं या उनका मन्दिर बायीं ओर रहता है। लेकिन इस मन्दिर में मदुराई के मीनाक्षी मंदिर की तरह प्रमुख देवता के सहधर्मचारिणी की स्थापना उनके दाहिनी ओर की गयी है और इसमें कोई विशेष अर्थ छिपा हुआ है, ऐसा कहा जाता है। शुक्रवार की शाम को ‘पर्वतवर्धिनी’ की अलंकृत मूर्ति की स्वर्ण की पालकी में से मन्दिर प्राकार में ही शोभायात्रा निकाली जाती है।

विश्‍वनाथार्’ स्वामी की सहधर्मचारिणी भी यहाँ पर ‘विशालाक्षी’ इस नाम से विराजमान हैं।

मन्दिर के पहले प्राकार में स्फटिक का एक शिवलिंग है। इसकी स्थापना बिभीषणजी ने की ऐसा कहा जाता है और दक्षिण में रहनेवाला यह शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है, ऐसा माना जाता है।

यहाँ एक मन्दिर में भगवान विष्णु भी विराजमान हैं। सफ़ेद संगेमर्मर से बनी भगवान विष्णु की एक मूर्ति यहाँ पर है। वे ‘सेतुमाधव’ या ‘श्‍वेतमाधव’ इस नाम से जाने जाते हैं।

सेतुमाधव के बारे में भी एक लोककथा प्रचलित है। पुराने समय में यहाँ पर पुण्यार्थी नाम के पाण्ड्य राजवंश के एक राजा राज कर रहे थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। एक दिन वे अपनी रानी के साथ सेतुतीर्थ की यात्रा करने गये। वहाँ से लौट आते ही उन्हें अपने राजमहल के बग़ीचे में एक नवजात कन्या मिल गयी। राजा ने उसकी परवरिश अपनी कन्या की तरह की। जब वह विवाहयोग्य हो गयी तब राजा उसका विवाह करने के बारे में सोचने लगे और उस दिशा में कोशिशें भी कर रहे थे।

उसी दौरान उस कन्या का हाथ माँगने एक वृद्ध ब्राह्मण वहाँ आ गया। राजा के पास उनकी बेटी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव उस ब्राह्मण के द्वारा रखे जाते ही राजा क्रुद्ध हो गये और उन्होंने उसे बंदी बना दिया।

लेकिन उसी रात को राजा ने सपने में देखा कि वह वृद्ध ब्राह्मण स्वयं भगवान विष्णु है और राजा की कन्या स्वयं माता लक्ष्मी है।

नींद खुलते ही राजा ने सर्वप्रथम उस वृद्ध ब्राह्मण को मुक्त कर दिया और उससे क्षमा माँगी। तब उस ब्राह्मणरूपी विष्णु ने ‘मैं यहीं पर प्रतिष्ठित रहूँगा’ यह कहा। वहीं पर वे ‘सेतुमाधव’ के रूप में विराजमान हो गये। उनकी मूर्ति सफ़ेद संगेमर्मर से बनी होने कारण उन्हें ‘श्‍वेतमाधव’ भी कहते हैं।

इस मन्दिर में भोर के समय की पूजा से दिनक्रम का प्रारम्भ होता है और रात को ‘पल्लियरइ’ यानी सायंगृह में देवतापूजन होने के बाद मन्दिर का दिनक्रम पूरा हो जाता है।

इस मन्दिर की एक और ख़ासियत है, यहाँ के २२ तीर्थस्थल।

हमारे भारतवर्ष में प्राचीन समय से तीर्थ, तीर्थक्षेत्र और तीर्थयात्रा को बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। जब यातायात के साधन नहीं थे तब भी कोसों दूर तक कई सालोंमहिनों तक पैदल चलकर श्रद्धालु तीर्थयात्रा करते थे। आज के ‘हाय टेक’ युग में भी श्रद्धालु तीर्थयात्रा करते हैं। हालाँकि यातायात की सुविधाओं के कारण समय और परिश्रम आज पुराने समय की तरह नहीं लगते, मग़र तब भी यात्रा करने के पीछे की भावना वही है।

प्रमुख देवता के दर्शन तो हम कर चुके हैं, अब वापस लौटने से पहले मन्दिरों के तीर्थों के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त करते हैं।

रामेश्‍वर के परिसर में कुल ३६ तीर्थ हैं, ऐसा कहा जाता है। उनमें से २२ तीर्थ तो रामनाथस्वामी मन्दिर में ही हैं। बाक़ी के तीर्थों में से कुछ तीर्थ मन्दिर से क़रीब हैं, तो कुछ थोड़े से दूर हैं।

इनमें से हर एक तीर्थ का अपना एक नाम है और साथ ही वहाँ पर स्नान करने से कुछ लाभ भी होते हैं, ऐसा भी कहा जाता है।

रामनाथस्वामी मन्दिर के २२ तीर्थों को चौकोर या गोल आकार के कुओं के रूप में बनाया गया है। वहीं मन्दिर के बाहर के तीर्थ या तो छोटे जलस्रोतों के रूप में हैं या फिर बड़ी झीलों के रूप में हैं।

तीर्थस्नान के लाभ इस तरह बताये जाते हैं पाप का नाश, स्वर्ग की प्राप्ति, देवताओं के आशीर्वाद मिलना, वैभव की प्राप्ति, ऋणमुक्ति, नरक से मुक्ति, ज्ञानप्राप्ति।

महाभारत के कुछ व्यक्तित्व यहाँ पर आये थे, ऐसा भी कहा जाता है और विभिन्न समय के राजाओं ने भी यहाँ के तीर्थों में स्नान किया है, ऐसा भी कहते हैं।

इन तीर्थों के नाम रामायण के व्यक्तित्व, अन्य प्रमुख देवता, प्रमुख नदियाँ, महाभारत के व्यक्तित्व इनपर से रखे गये हैं, वहीं कुछ तीर्थों के नाम उनके कार्य के अनुसार भी रखे गये हैं।

राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान इन नामों के तीर्थों के साथ साथ सुग्रीव, अंगद, जाम्बुवन्त (जांबव तीर्थ), नल, नील इनके नाम से भी तीर्थ हैं। पाँच पाण्डवों के नाम के पाँच तीर्थ हैं और साथ ही द्रौपदी के नाम का भी तीर्थ है। गंगा, जमुना, सरस्वती के तीर्थों के साथ साथ चन्द्र, सूर्य के नाम के तीर्थ भी हैं। वहीं कुछ तीर्थों के नाम हैंमंगल तीर्थ, पापविनाशी तीर्थ, ऋणविमोचन तीर्थ, अमृत तीर्थ।

देखिए, बातों बातों में हम तीर्थों के दर्शन करके मन्दिर के बाहर निकल आये। अब श्रीराम के पदस्पर्श से पावन हुए रामेश्‍वर के अन्य स्थलों की भी सैर करेंगे।

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