रामेश्‍वर भाग-४

जिसके नाम में ही ‘राम’ है, उस ‘रामेश्‍वर’ की भूमि में श्रीराम के नाम का स्मरण सब जगह किया जाता है। फिर कभी वह स्थल किसी देवालय के रूप में हमारे सामने आता है या कभी किसी तीर्थ के रूप में।

चलिए, तो हम भी श्रीराम का स्मरण करते हुए ही हमारा अगला सफ़र शुरू करते हैं।

अब अगला पड़ाव पार करने के लिए थोड़ा सा चढना पड़ेगा। चलिए तो इस टीले पर चढता शुरू करते हैं। इसे ‘गन्धमादन पर्वत’ कहा जाता है। लेकिन इसके ‘पर्वत’ इस नाम से घबराई मत, क्योंकि यह कोई बड़ा पर्वत नहीं है, बस एक छोटा सा टीला है।

रामेश्‍वर के परिसर में रामनाथस्वामी मन्दिर से लगभग २.५ से ३ किलोमीटर्स की दूरी पर बसा ‘गन्धमादन पर्वत’ यह इस इला़के का सब से ऊँचा स्थल है। इसके माथे पर से सारा रामेश्‍वर और उसके आसपास का इलाक़ा भी साफ़ साफ़ दिखायी देता है।

अब आप यह सोच रहे होंगे कि क्या रामेश्‍वर और उसके आसपास के इला़के को देखने के लिए हमें इसपर चढना है?

नहीं, महज़ यही वजह नहीं है। गंधमादन पर्वत के माथे पर एक दो मंज़िला मंडप है। उस मंडप में एक चक्र है, उस चक्रपर एक पदचिह्न है, जो साक्षात् प्रभु श्रीरामचंद्रजी का है, ऐसा कहा जाता है।

हम रामेश्‍वर में यानी भारत के दक्षिणी छोर में आये हैं। अब जहाँ भूमि का अन्तिम छोर है, वह जगह रामेश्‍वर से कुछ ही दूरी पर है। आइए, तो हम भी हमारी भारतभूमि के इस दक्षिणी छोर के दर्शन करते हैं।

रामेश्‍वर से लगभग १८ किलोमीटर्स की दूरी पर एक छोटा सा गाँव है, जिसका नाम है ‘धनुष्कोडी’। यह ‘धनुष्कोडी’ भारत का दक्षिणी छोर है।

किसी ज़माने में यहाँ पर एक हँसताखेलता छोटा सा गाँव हुआ करता था। लेकिन समय के किसी पड़ाव पर यह गाँव वीरान, सूना सूना हो गया। अब चंद कुछ मछवारों के छोटे छोटे घर यहाँ पर हैं।

लेकिन ज़रा रुकिए। धनुष्कोडी जाते हुए बीच रास्ते में यह एक मंदिर दिखायी दे रहा है। क्यों न पहले उस मंदिर में चला जाये और फिर धनुष्कोडी की ओर प्रस्थान करेंगे।

रामेश्‍वर से बस १२ किलोमीटर्स की दूरी पर बसा यह मंदिर है, ‘कोदंडर स्वामी मंदिर’। जिस घटना से धनुष्कोडी गाँव वीरान हो गया, उस घटना का सफलता से मुक़ाबला करके आज भी सुस्थिती में रहनेवाली यह धनुष्कोडी इला़के की एकमात्र वास्तु है।

दुष्ट रावण का पक्ष त्यागकर लंका से निकले बिभीषणजी इसी जगह श्रीराम से मिले थे, ऐसा कहा जाता है।

जहाँ बिभीषणजी की श्रीराम से मुलाक़ात हुई, उसी जगह इस मंदिर का निर्माण किया गया।

यहाँ के देवालय में श्रीराम, जानकीजी, लक्ष्मणजी और हनुमानजी तो विराजमान हैं ही, लेकिन साथ ही भक्तश्रेष्ठ बिभीषणजी भी हैं। इस मंदिर की दिवारों पर रामायण की विभिन्न घटनाओं को चित्रांकित किया गया है।

इस मंदिर में एक वृक्ष है। इस वृक्ष का नाम है, ‘अतिमर्मम्’। कहा जाता है कि इस मन्दिर की आयु जितनी है, उतनी ही इस वृक्ष की भी आयु है। इस मंदिर में एक जलाशय भी है, जो किसी भृंगी नाम के ऋषि के नाम से जाना जाता है।

प्राचीन कथाओं के अनुसार श्रीराम के भक्त रहनेवाले भृंगी ऋषि ने, जब श्रीराम यहाँ पधारे थे, तब उनसे उन्हीं के आश्रम में रहने की गुज़ारिश की थी। उनकी उस बिनति को मानकर श्रीराम उनके आश्रम के पास के नन्दनवन नाम के स्थान में ठहरे थे। उन्हीं भृंगी ऋषि के नाम से मन्दिर का यह जलाशय जाना जाता है।

अब रास्ते के आसपास नज़र डालेंगे तो जल ही जल दिखायी देता है। धनुष्कोडी की ओर आगे बढते हुए हमें एक तरफ़ ‘महोदधि’ तो दूसरी तरफ़ ‘रत्नाकर’ ये दो समुद्र दिखायी देते हैं। महोदधि यानी बंगाल का उपसागर और रत्नाकर यानी हिंद महासागर। धनुष्कोडी में इन दोनों का संगम होता है। महोदधि और रत्नाकर के संदर्भ में एक बड़ी ही मज़ेदार कहानी पढी थी। महोदधि यानी बंगाल का उपसागर यह बिलकुल शान्त प्रकृतिवाला है और उसे स्त्रीरूप माना जाता है। वहीं, रत्नाकर को गरजेवाला एवं पुरुषरूप माना जाता है। तो कुछ स्थानों पर गरजनेवाले रत्नाकर को स्त्रीरूप माना जाता है और शांत महोदधि को पुरुषरूप। चाहे जो भी हो, लेकिन ये दो भिन्न प्रकृतिवाले सागर धनुष्कोडी में एक दूसरे में मिल जाते हैं, दरअसल विलीन हो जाते हैं।

धनुष्कोडी भले ही रामेश्‍वर से कुछ ही दूरी पर स्थित है, मग़र फिर भी वहाँ जाते समय एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है। बड़े वाहन एक विशिष्ट दूरी तक ही जाते हैं, उसके बाद का सफ़र जीप या टेम्पो जैसे छोटे वाहन में से करना पड़ता है, क्योंकि यह सफ़र करना पड़ता है वालु के एक लंबे रास्ते पर से। कोलतार (डांबर) से बनी सड़क के ख़त्म होते ही दोनों तरफ़ समुद्र, ऊपर नीचे आसमान और नीचे सिर्फ़ वालु का रास्ता इतना ही साथ रहता है।

धनुष्कोडी गाँव में ठहरने या खाने पीने की सुविधाएँ तो उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए धनुष्कोडी जानेवाले पर्यटक दिन ढलने के पहले ही रामेश्‍वर लौट जाते हैं।

किसी ज़माने में इस धनुष्कोडी गाँव में चहल पहल रहती थी। वहाँ पर डाक कार्यालय, देवालय, रेल की पटरियाँ, रेलवे स्टेशन और आबादी भी थी। कई दशक पूर्व तक यहाँ से चन्द कुछ ही किलोमीटर्स की दूरी पर स्थित लंका में लोग यहाँ से बोट के द्वारा जाते भी थे। तब दो सागरों के इस संगम स्थल पर श्रद्धालु स्नान भी करते थे। लेकिन कुदरत के रौद्र, भीषण रूप के सामने इन्सान को घुटने टेंकने पड़ते हैं।

सन १९६४ की वह एक भयानक रात आयी और धनुष्कोडी को तहसनहस कर गयी। इस इलाके में बवंड़र और तूफान ये तो आम बातें हैं। सन १९६४ का दिसंबर महीना। एक बड़ा बवंड़र यहाँ आया था। १७ दिसंबर १९६४ को वायुमण्डल में उत्पन्न हुए कम दबाव के स्तर का रूपान्तरण देखते ही देखते एक भयानक, जानलेवा चक्रवात (सायक्लोन) में हो गया। अब तक यहाँ के निवासी तो इस तरह के चक्रवातों का सामना करने के आदी हो गये थे, लेकिन १७ डिसंबर को आया यह चक्रवात कुछ अलग ही था। वह बहुत ही तेज़ बन गया। एक नैसर्गिक घटना ने अब एक नैसर्गिक आपत्ति (नॅचरल डिझास्टर) का रूप धारण कर लिया। यहाँ के निवासी भला उसकी भीषणता को कैसे जान सकते थे? और वह चक्रवात धनुष्कोडी गाँव को निगल गया।

समुद्र में बना यह भयानक चक्रवात २२ दिसंबर १९६४ की उस रात को धनुष्कोडी तक पहुँच गया और साथ ही समुद्र में उठीं विशालकाय लहरें।

रात के बारह बजे धनुष्कोडी रेलवे स्टेशन में ११० यात्रियों और ५ रेल कर्मचारियों के साथ दाखिल हो रही पूरी की पूरी रेलगाड़ी को ही ये विशालकाय लहरें निगल गयीं। सारा का सारा गाँव चक्रवात और भयानक लहरों के तांडव की चपेट में आ गया और देखते ही देखते सब कुछ ध्वस्त हो गया और बाक़ी रही शमशान शान्ति। प्रत्यक्षदर्शियों के कथन के अनुसार जिन बातों को दर्ज़ किया गया, उससे यही ज्ञात होता है कि सागर का जल रुद्ररूप धारण करके बड़ी तेज़ी से आगे बढ रहा था और रामनाथस्वामी मंदिर से चंद कुछ ही दूरी तक आकर वह जल यकायक शान्त हो गया, मानों जैसे कुछ हुआ ही न हो। इसी मंदिर में हज़ारों लोगों ने पनाह ली थी और वे ही इस हादसे में सुरक्षित बचे रहे।

सन १९६४ के २२ और २३ दिसंबर इन दो दिनों तक निसर्ग का यह भयानक ताण्डव यहाँ पर चलता रहा और उसके बाद धनुष्कोडी फिर से नहीं बसा, यहाँ की चहलपहल अब नहीं रही। समय की धारा में उस हादसे की शिकार हो चुकीं कुछ इमारतों के भग्न अवशेष, रेल की पटरियाँ, रेलवे स्टेशन, देवालय, डाक कार्यालय और गाँव की ऐसी कई बातें वालु के ढेर के नीचे दफ़न हो गयीं। आज धनुष्कोडी में उनमें से कुछ वास्तुओं के अवशेष वालु के ढेर में आधे धँसे हुए दिखायी देते है।

धनुष्कोडी’ इस नाम को श्रीराम के धनुष्य के साथ जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि श्रीराम ने लंका जाने के लिए सेतु बनाने हेतु इस जगह को चुना था और अपने धनुष्य के एक छोर से उस सेतु का स्थान निश्‍चित किया था। इससे हमारी समझ में यह आता है कि रामसेतु बनाने के कार्य का प्रारंभ यहीं पर हुआ था।

पुराने समय में धनुष्कोडी यह इस इला़के का सबसे बड़ा मछुआरी का केंद्र था और आज भी कुछ प्रमाण में यहाँ पर मछलियाँ पकड़ी जाती हैं।

धनुष्कोडी यानी ‘व्हेअर लँड एण्डस’! चारों तरफ़ फैला हुआ नीला सागर, ऊपर आसमान की छत और पैरों के नीचे सफ़ेद वालु। बस, इतना ही। देखिए, सूरज ढलने को ही है और जैसा कि हम पढ ही चुके हैं, अब हमें रामेश्‍वर वापस लौटना ही चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published.