रामेश्‍वर भाग-२

देखिए, दूर से ही ‘श्रीरामनाथस्वामी’ मन्दिर के कुछ चिह्न हमें दिखायी देने लगे हैं। तो फिर चलिए, तेज़ी से चलते हैं और ठेंठ मन्दिर के प्रमुखद्वार तक चलते हैं।

मन्दिर की चारों दिशाओं में यानी कि पूर्व, पश्‍चिम, उत्तर और दक्षिण में चार गोपुर हैं। गोपुर यह प्रवेशद्वार पर बनायी गयी रचना है। हर एक मन्दिर में यह अलग अलग रहती है, विशाल एवं ऊँची रहती है। गोपुर के हर एक स्तर पर विभिन्न देवीदेवताओं की बड़ी ही सुन्दर मूर्तियाँ तराशी गयी होती है।

श्रीरामनाथस्वामी मन्दिर के प्रमुख प्रवेशद्वार तक पहुँचते ही एक विशाल गोपुर के दर्शन होते हैं और यदि हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो दिखायी देता है बस कुछ ही दूरी पर स्थित अथाह, विशाल और क्षितिज तक फैला हुआ गहरा नीला सागर। मन्दिर के मुख्य प्रवेशद्वार और सागर के बीच का फ़ासला बहुत ही कम है। इसलिए यहाँ ऐसी परिपाटी भी है कि भाविक पहले इस गहरे नीले सागर में समुद्रस्नान करते हैं और फिर गीले कपड़ों के साथ ही मन्दिर में प्रवेश करते हैं। यहाँ के सागर में ऊँचीं लहरें नहीं उठती यह तो हम गत लेख में देख ही चुके हैं और उसके पीछे की वजह भी देखी। इसीलिए यहाँ समुद्रस्नान करना आसान है ऐसा कहते हैं।

समुद्रस्नान करने के बाद गीले कपड़ों के साथ ही मन्दिर में प्रवेश करनेवाले श्रद्धालु फिर मन्दिर में स्थित २२ तीर्थों के जल से स्नान करते हैं और फिर प्रमुख गर्भगृह में जाकर भगवान के दर्शन करते हैं।

इस मन्दिर के चारों ओर बड़ी ही सुरक्षित एवं ऊँची चहारदीवारी बनायी गयी है।

हमने पढा ही है कि इस मन्दिर के निर्माण के इतिहास के बारे में कुछ ख़ास जानकारी नहीं मिलती। लेकिन यह तो हम जानते हैं कि यहाँ के प्रमुख देवता ‘श्रीरामनाथस्वामी’ के शिवलिंग की स्थापना श्रीरामने की थी। उसके बाद कई सदियों तक मन्दिर का स्वरूप विशाल नहीं था और कुछ श्रद्धालु इसकी देखभाल करते थे। फिर धीरे धीरे यहाँ पर नयी नयीं रचनाओं का निर्माण होता रहा और मन्दिर को वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ।

साधारणतः बारहवीं सदी में ‘पराक्रमबाहु’ नाम के राजा ने यहाँ के प्रमुख देवता के गर्भगृह का निर्माण किया। यह मन्दिर विशाल तो है ही, साथ ही यहाँ के स्तम्भों एवं छत पर उस ज़माने की वास्तुकला की झलक भी देखने मिलती है। ख़ास बात यह है कि यह नक़्क़ाशीकाम आज भी अच्छी स्थिती में है।

विशेषज्ञों की राय में बारहवीं सदी से लेकर सोलहवीं सदी तक यहाँ पर कई रचनाओं का निर्माण किया गया। यहाँ पर बनाये गये विमान की रचना विशेषज्ञों की राय में पल्लव राजवंश के शासनकाल में बनाये गये विमानों जैसी है। इस मन्दिर की रचनाओं के निर्माणकर्ताओं में ‘रामनाथ के सेतुपती ’का विशेष रूप से उल्लेख किया जाता है।

१५ एकर्स के विशाल भूभागपर बसे इस चहारदीवारी के अंदर कई छोटे बड़े मन्दिर, कुल २२ तीर्थ और तीन प्राकार है। पूर्वीय द्वार से मन्दिर में प्रवेश करते हैं और जैसे जैसे हम मन्दिर के गर्भगृह की ओर आगे बढते हैं, हमें मन्दिर की विशालता का परिचय होता रहता है।

जिस पूर्वीयद्वार में से हमने प्रवेश किया, वहाँ के गोपुर को राजगोपुर कहते हैं, जिसकी ऊँचाई लगभग १२६ फीट है और वह रचना नौ मंज़िला है। वहीं पश्‍चिमी राजगोपुर हालाँकि इतना बड़ा तो नहीं है, मग़र फिर भी बहुत ही सुन्दर तो अवश्य है।

इस मन्दिर को यहाँ के स्थानीय निवासी ‘अरुल्मिगु रामनाथस्वामी थिरुकोविल’ कहते हैं।

पूर्वीय प्रवेशद्वार में से हम मन्दिर में दाख़िल तो हो चुके हैं, लेकिन प्रमुख गर्भगृह तक जाने के लिए हमें अब भी काफ़ी दूरी तय करनी है। चलिए, तो क्यों न तब तक इस शिवलिंग की स्थापना के पीछे की कथा ही सुनते हुए चला जाये!

अब यह तो हम सब जानते हैं कि इस शिवलिंग की स्थापना प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने की। दुष्ट निशाचर रावण का ख़ात्मा करके प्रभु श्रीरामचन्द्रजी, जानकीमाता और लक्ष्मणजी के साथ अयोध्या जाने निकले। लंका से निकलने के बाद इस समुद्र तट पर आने के बाद उनके मन में अपने आराध्य का पूजन करने की इच्छा जागृत हुई और फिर उनकी इच्छा के अनुसार हनुमानजी श्रीराम के आराध्य शिवजी का लिंग (चिह्न) यानी शिवलिंग लाने के लिए कैलास जाने निकले। कुछ कथाओं में हनुमानजी कैलास नहीं बल्कि काशी गये ऐसा उल्लेख मिलता है।

कैलास जाकर हनुमानजी ने शिवजी की तपस्या करना शुरू कर दिया। काफ़ी वक़्त बीत जाने के बाद भी हनुमानजी जब वापस नहीं लौटे, तब आख़िर जानकीमाता ने स्वयं अपने हाथोंसे शिवजी का एक वालुकामय लिंग बनाया और उस वालु के शिवलिंग का अर्चनपूजन श्रीरामने किया।

उसी समय कैलास पर तपस्या कर रहे हनुमानजी को भी शिवलिंग प्राप्त हुआ और उस शिवलिंग को साथ में लेकर हनुमानजी रामेश्‍वर आ पहॅुंचे। लेकिन तब तक श्रीराम शिवलिंगका पूजन कर चुके थे। मग़र श्रीरामने उस शिवलिंगकीभी स्थापना वहाँ की। तबसे ऐसी परिपाटी बन गयी कि जानकीमाताद्वारा बनाये गये रामनाथस्वामी शिवलिंग के दर्शन करने से पहले हनुमानजीद्वारा लाये गये शिवलिंग के दर्शन किये जाते हैं। हनुमानजीद्वारा लाये गये उस शिवलिंग को ‘हनुमानलिंग’, ‘काशिलिंग’या ‘विश्‍वनाथार्’ कहा जाता है।

पुराणों में यह कथा बतायी गयी है और इस कथा में कुछ फ़र्क़ भी मिलते हैं।

देखिए, कथा सुनते सुनते हम आधी दूरी तय भी कर चुके हैं। अब इस वक़्त हम जहाँ खड़े हैं वहाँ से चारों ओर एक बार नज़र तो फेरिये। विशाल, भव्य, महान इन शब्दों के बजाय हम अतिविशाल, अतिभव्य इन जैसे शब्दों का ही इस्तेमाल करना शुरु करेंगे। आपके मन में सवाल उठा होगा, क्यों?

तो हम जहाँ पर खड़े हैं, वह है श्रीरामनाथस्वामी मन्दिर का तिसरा प्राकार (बरामदा)। दर असल यह प्राकार दुनिया का एक अजूबा ही है। इस अतिविशाल प्राकार में लगभग १२०० स्तंभ हैं, ऐसा कहा जाता है।

श्रीरामनाथस्वामी मन्दिर का यह तीसरा प्राकार वास्तुकला के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पन्ना है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

पूर्व से लेकर पश्‍चिम तक इस प्राकार की लंबाई ४०० फीट से भी अधिक है, वहीं दक्षिण से लेकर उत्तर तक इसकी लंबाई ६५० फीट से भी अधिक है, ऐसा कहा जाता है। इसकी ऊँचाई है, ३० फीट। इस मन्दिर के बारे में यह भी पढा था कि यहाँ पर भगवान को अर्पण किये जानेवाले नैवेद्य को हाथी पर से ले जाया जाता था। इसका अर्थ यह है कि हाथी उसपर बैठे महावत के साथ बड़ी आसानी से यहाँ पर से चलता होगा।

इस अतिविशाल प्राकार के बाद मन्दिर की अन्य वास्तुओं को भी देखते हैं।

इस लेख में हमने देखा कि इस मन्दिर के भीतर कुल २२ तीर्थ हैं। ये २२ तीर्थ बड़े ही पावन माने जाते हैं। ये २२ तीर्थ यानी जल के २२ स्रोत हैं, इन जलस्रोतों के चारो ओर कुएँ जैसी रचनाओं का निर्माण किया गया है। इनमें से हर एक तीर्थ को अपना एक नाम है और प्रत्येक जलस्रोत में विद्यमान जल का स्वाद भी अलग अलग है। प्रत्येक तीर्थ का जल पावन होने के साथ साथ स्वास्थ्यवर्धक भी माना जाता है।

समुद्रस्नान करके मंदिर में दाख़िल होनेवाले श्रद्धालु इनमें से प्रत्येक तीर्थ में जाते हैं और वहाँ के जल को अपने सिर पर लेकर फिर गीले वस्त्रों के साथ आगे बढते हैं। श्रद्धालु जहाँ समुद्रस्नान करते हैं, उस समुद्र को ‘अग्नितीर्थम्’ कहते हैं।

मन्दिर के नन्दिमण्डप में लाईमस्टोन का साढे सतरा फीट ऊँचाई, २३ फीट की लंबाई और १२ फीट की चौड़ाई वाला विशाल नन्दि है।

तीसरे प्राकार के निर्माण में जिस पत्थर का इस्तेमाल किया गया है, वह पत्थर यहाँ के इला़के में नहीं मिलता। इसका अर्थ यह है कि उसे कहीं से यहाँ पर लाया गया और उससे फिर यह निर्माण कार्य किया गया।

अब तक हमने प्रमुख शिवलिंग के दर्शन कहाँ किये हैं? अब इतना चलने के बाद काफ़ी थकान महसूस हो रही होगी? तो कुछ देर तक तीसरे प्राकार की सुन्दरता को निहारते हुए यहीं पर थोड़ा सा विश्राम करते हैं।

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