रामेश्‍वर भाग-५

धनुष्कोडी से रामेश्‍वर की वापसी की यात्रा में सागर पुनः हमारे साथ रहता है। इस भूमि को सागर का साहचर्य इस क़दर मिला है कि जहाँ नज़र दौडायेंगे, वहाँ सागर की नीलिमा आँखों को सुकून देती रहती है।

समुद्र के पेट में भी एक अनोखी दुनिया बसी हुई है। आधुनिक तकनीक के कारण हम सागर के उस खज़ाने को देख सकते हैं। सागर के पेट में तरह तरह की मछलियों के साथ साथ कई सागरी जीव, विभिन्न प्रकार की सागरी वनस्पतियाँ और मूँगा, मोती आदि जैसे अनमोल रत्न भी रहते हैं। सागर का यह खज़ाना हम देख सकते हैं, रामेश्‍वर से लगभग बीस किलोमीटर्स की दूरी पर।

वहाँ पर ‘कुरुसदाई’ नाम का एक द्वीप है। पंबन(/पांबन) ब्रिज के पश्‍चिम में यह द्वीप है और समुद्रजीवन के अध्ययनकर्ताओं के लिए कुदरतने अपना खज़ाना यहाँ पर लुटाया है। लेकिन पर्यटकों को वहाँ जाने के लिए संबंधित विभाग से अनुमति प्राप्त करनी पड़ती है, ऐसी जानकारी मिली है।

यहाँ के सागरी जल में मूँगे के पत्थरों से लेकर स्टार फिश, अल्गी, स्पंज, सीककुंबर, डॉल्फिन्स, सीकाऊज़ जैसे विशेषतापूर्ण सागरी जीव पाये जाते हैं। यहाँ के सागर में ‘सीअ‍ॅनेमन’ नाम का एक ख़ास समुद्री जीव रहता है। इसे यदि छुआ जाये या बाह्य हालात प्रतिकूल बन जाये, तो वह जीव अपना स्वरूप फौरन बदल देता है।

तरह तरह की सागरी वनस्पतियाँ यह यहाँ के समुद्र की एक और विशेषता है। सीवीड्स् के कई प्रकार, सीग्रास जैसी कई विशेष वनस्पतियों से यहाँ का सागरी जीवन समृद्ध है। अत एव जो पर्यटक समुद्री जीवों से परिचित होना चाहते हैं, उन्हें यक़ीनन ही कुरुसदाई द्वीप जाना चाहिए।

रामेश्‍वर यह जिस ‘रामनाथपुरम्’ जिले का एक हिस्सा है, वह रामनाथपुरम् पुराने समय में एक राज्य था। ‘रामनाथपुरम्’ राज्य ‘रामनाड’ और ‘मुगवै’ इन नामों से भी जाना जाता था। यहाँ के शासकों को ‘सेतुपति’ यह उपाधि थी। इस सेतुपति नाम का संबंध ‘रामसेतु’ के साथ है, ऐसा भी कहा जाता है।

इस इला़के पर पहले पांड्य राजवंश का राज था ऐसा इतिहास से ज्ञात होता है और लगभग ग्यारहवीं सदी के मध्य में यहाँ पर चोळ राजवंश का राज था। लेकिन चोळ राजवंश का शासन अधिक समय तक नहीं रहा।

बारहवीं सदी के अन्त में और तेरहवीं सदी की शुरुआत में इर्वादि के शासकों ने यहाँ पर राज किया। सोलहवीं सदी की शुरुआत में विजयनगर साम्राज्य की सत्ता यहाँ पर प्रस्थापित हुई। इस प्रदेश ने समय के विभिन्न पड़ावों पर विभिन्न शासकों का शासन देखा। लेकिन यहाँ पर किसी शासकों के बीच युद्ध हुए, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। मग़र फिर भी यह भी सच है कि अलग अलग शासकों ने विभिन्न कालखण्डों में यहाँ पर शासन किया।

अँग्रेज़ों द्वारा यहाँ पर कब्ज़ा किये जाते ही यह एक रियासत बन गयी। लेकिन इसके शासक ‘सेतुपति’ ही थे। सेतुपति वंशीयों ने रामनाथपुरम् राज्य पर बड़े लंबे अरसे तक राज किया, यह इतिहास से ज्ञात होता है।

आज भी यहाँ पर सेतुपति शासकों का राजमहल हम देख सकते हैं। लगभग सतरहवीं सदी में इसका निर्माण किया गया ऐसा कहा जाता है। सतरहवीं सदी से लेकर आज तक इस राजमहल को जतन किया गया है। इस राजमहल में आवश्यक मरम्मत करके, रंग लगाकर इसके स्वरूप को ख़ूबसूरत बनाये रखा गया है। आज भी यह राजमहल इस्तेमाल किये जानेवाली प्राचीन वास्तुओं में से एक है। यहाँ आनेवाले पर्यटकों का मन यह राजमहल आज भी आकर्षित करता है।

इस राजमहल को दो बातों के कारण महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उनमें से पहली बात है कि जिन सेतुपति शासकों ने इस प्रदेश पर शासन किया उनकी राजधानी में यह राजमहल बसा है। दूसरी बात यह है कि यहाँ के जनमानस में यह बात प्रचलित है कि श्रीराम जब लंका से जानकीजी और लक्ष्मणजी के साथ वापस लौट रहे थे, तब कुछ समय के लिए वे यहाँ पर रुके थे, जहाँ यह राजमहल बनाया गया है।

सतरहवीं सदी के अन्त से लेकर अठारहवीं सदी की शुरुआत तक यहाँ पर राज करनेवाले ‘किझवन सेतुपति’ नाम के शासक ने इस राजमहल का निर्माण किया ऐसा कहा जाता है। इस राजमहल को ‘रामलिंग विलासम्’ भी कहा जाता है।

इस राजमहल में प्रमुख दरबार हॉल, कई निवासस्थल, कई निजी कक्ष और शस्त्रागार हैं। सेतुपति शासकों की जीवनशैली और उनके राजकीय शासनकाल की महत्त्वपूर्ण घटनाओं को यहाँ पर म्युरल पेंटिग्ज़ के रूप में जतन किया गया है।

कुछ अध्ययनकर्ताओं की राय में मदुराई के नायक शासकों के राजमहल के निर्माण के बाद कुछ ही दशकों में इस राजमहल का निर्माण करना शुरू हुआ और इसीलिए इसके निर्माण की वास्तुशैली नायकों के राजमहल की वास्तुशैली से मिलती जुलती है।

रामलिंग विलास पॅलेस में यहाँ के इतिहास को जतन करने की दृष्टि से एक म्युज़ियम की स्थापना की गयी। सन १९७९ के आसपास इस म्युज़ियम की स्थापना की गयी। यहाँ पर यहाँ के भूतपूर्व शासकों के समय की पेंटिग्ज़, कई फोटोग्राफ़्स, कई शिल्पाकृतियाँ और भूतपूर्व शासकों के भण्डार में रहनेवाले शस्त्रअस्त्र जतन किये गये हैं।

हम यह देख ही चुके हैं कि इस भूमि पर दो शासकों के बीच हुई जंग का उल्लेख तो इतिहास में प्राप्त नहीं होता, लेकिन ‘रामलिंग विलास’ पॅलेस की म्युरल पेंटिग्ज़ में सेतुपतियों के युद्ध का प्रस्तुतीकरण किया गया है।

रामेश्‍वर को प्रमुख भूमि से जोड़नेवाले रेल ब्रिज के बारे में हम पढ ही चुके हैं। जब बड़े बड़े जहाज़ आते हैं तब यह बीचों बीच खुल जाता है और जहाज़ के आगे बढने के बाद पुनः जुड़ जाता है यह भी हमने पढा। रामेश्‍वर को प्रमुख भूमिसे जोड़नेवाला रोड ब्रिज इस तरह बनाया गया है, जिससे कि उसके नीचे से बड़े से बड़ा जहाज़ भी आसानीसे गुज़र जाये।

धनुष्य के आकार के इस रोड ब्रिज का निर्माण करना यह निर्माणकर्ताओं के लिए रेल ब्रिज के निर्माण की तरह ही एक चुनौती थी।

सन १९६४ में यहाँ पर आये भयानक चक्रवात के कारण रेल ब्रिज के कुछ हिस्से का का़ङ्गी नुकसान हुआ था, लेकिन टेक्निशन्स ने महज़ ४५ दिनों में उसे पुनः पहले जैसा बना दिया, ऐसा कहा जाता है।

रामेश्‍वर जाने के लिए इन दो ब्रिज में से किसी एक से जाना पड़ता है।

रामेश्‍वर आने के बाद हमने रामनाथस्वामी मंदिर के दर्शन किये, धनुष्कोडी तक भी हम गये, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर ग़ौर करना अब भी बाक़ी है।

रामेश्‍वर को अलविदा कहते हुए उसपर ही बात करते हैं। ‘भारत के एक छोर से दुसरे छोर तक’ इस निर्देश के लिए ‘आसेतु हिमालय’ कहा जाता है। इसमें जो ‘सेतु’ यह शब्द हे, वह है रामायण में वर्णित सेतु, जिसका निर्माण श्रीराम ने लंका जाने के लिए किया था।

तुलसीदासजी सुन्दरकाण्ड में इस सेतुनिर्माण का सुंदर वर्णन करते हैं। हनुमानजी के मार्गदर्शन में पत्थरों पर ‘रामनाम’ लिखकर वानरसेना द्वारा लंका तक सागर पर इस सेतु का निर्माण किया गया। एक छोटी सी गिलहरी भी इस निर्माण कार्य में सम्मीलित हुई थी, यह भी हम पढते हैं।

श्रीराम के अवतार के बाद आज हज़ारों सहस्त्रक बीत गये। इस दौरान कई परिवर्तन हुए। इसलिए आज यदि हम ऐसा सोचेंगे कि हम आँखों से उस सेतु को देख सकेंगे, तो वह संभव नहीं है।

विज्ञान और तकनीक के विकास के फलस्वरूप आज अंतरिक्ष में से पृथ्वी के छायाचित्र खींचना संभव हुआ है। इनमें से कुछ छायाचित्रों में भारत और श्रीलंका के बीच सेतुसदृश रचना दिखायी दी है।

रामायणकाल में इस रचना को ‘सेतुबन्धनम्’ कहा जाता था और आज भी यह नाम अस्तित्व में है। भारत और श्रीलंका के बीच के समुद्री हिस्से को ‘सेतुसमुद्र’ कहा जाता है।

इस सेतु के बारे में यह जानकारी प्राप्त होती है कि इसकी लंबाई लगभग ३० कि.मी. है। कुछ लोगों की राय मे पंद्रहवीं सदी तक यह सेतु जल पर था और उसपर से प्रवास भी किया जाता था। लेकिन पंद्रहवीं सदी में आये एक तुफान के कारण सागर के जलस्तर में काफ़ी प्रमाण में वृद्धि हुई और उससे यह सेतु जलस्तर के नीचे चला गया।

प्राचीन समय से इस सेतु के बारे में कई तरह का अनुसन्धान चल रहा है। भारत आये कई प्राचीन विदेशी सैलानियों के सफ़रनामे में रामेश्‍वर का उल्लेख मिलता है और साथ ही कुछ सैलानी इस स्थल का वर्णन ‘सेतुबन्ध’ या ‘सेतुबंध रामेश्‍वर’ भी करते हैं।

भूवैज्ञानिकों की राय में रामेश्‍वर की भूमि का निर्माण १२५,००० वर्ष पूर्व हुआ है और इस सेतु का अस्तित्व लगभग १८,००० से ७००० वर्ष इतना प्राचीन है।

वह देखिए, वहाँ सागर में सूर्यबिम्ब डूबने ही वाला है। रामेश्‍वर तो पीछे रह गया। अब पंबन ब्रिज पर से रामेश्‍वर को ‘टाटा’ करके सागरी हवाओं का लुफ़्त उठाते हुए हम अपने अगले सफ़र पर निकलते है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.