परमहंस-७७

रामकृष्णजी के पश्‍चात् ‘रामकृष्णसंप्रदाय’ में जिन्हें ‘होली मदर’ के नाम से अत्यधिक सम्मान की भावना से देखा गया, उन रामकृष्णजी की पत्नी को – शारदादेवी को हम भी इसके आगे बहुमानार्थी ही संबोधित करेंगे।

इस प्रकार रुक रुककर, तेज़ बुखार का सामना करते हुए शारदादेवी आख़िर दक्षिणेश्‍वर पहुँच गयीं। अपनी पत्नी को – शारदादेवी को इस कमज़ोर हालत में देखकर रामकृष्णजी की भागदौड़ ही शुरू हुई। लेकिन अब उनकी सेवा में, उन्हें किसी भी बात की कमी महसूस न होने देनेवाले मथुरबाबू नहीं रहे थे। इस कारण उन्होंने खुद ही भागदौड़ करके अपने ही कमरे में एक बिस्तर डलवा दिया और अपनी पत्नी की सेवाशुश्रुषा शुरू की।

दिल से की इस सेवाशुश्रुषा के कारण जल्द ही शारदादेवी के स्वास्थ्य की गाड़ी पुनः पटरी पर आयी और उनकी बीमारी भाग गयी। उनके पूरी तरह ठीक होने का यक़ीन हो जाने पर रामकृष्णजी ने उनका प्रबन्ध उनकी (रामकृष्णजी की) माँ जिस कमरे में रहती थी, उस कमरे में किया। अपने पति को मेरी बीमारी के कारण इस क़दर भागदौड़ करनी पड़ रही है, इस विचार से शारदादेवी परेशान हो जाती थीं। लेकिन अब – ‘जैसा कि गाँववाले कहते थे, वैसे मेरे पति पगला नहीं गये हैं’ इस बात का उन्हें यक़ीन हो गया था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णइस कारण, वहीं पर रहकर रामकृष्णजी की और उनकी माता चंद्रादेवी की सेवा करने का शारदादेवी ने तय किया। उनके इस निर्णय से आनंदित होकर उनके पिताजी खुशी से गाँव लौट गये।

रामकृष्णजी जब कामारपुकूर गये थे, तब उन्होंने वहाँ पर शुरू किया कार्य, उनके अचानक दक्षिणेश्‍वर लौट आने से खंडित हुआ था। वह कार्य यानी शारदादेवी का प्रशिक्षण; अब उन्होंने दक्षिणेश्‍वर में ङ्गिर से शुरू किया। यहाँ तक कि ‘किससे कैसा आचरण करना चाहिए’ इन जैसीं, व्यवहार की पेचींदा बातों से लेकर सर्वोच्च आध्यात्मिक बातों तक सारीं बातें उन्हें सिखायीं जा रहीं थीं। शारदादेवी का आध्यात्मिक एहसास? भी धीरे धीरे प्रगल्भ होता जा रहा था और एक सुनिश्‍चित जीवनध्येय उनके मन में आकार धारण कर रहा था।

उसके बाद सन १८७२ के मई महीने में एक विलक्षण घटना घटित हुई। शारदादेवी दक्षिणेश्‍वर आने के बाद रामकृष्णजी के मन में विचारमंथन शुरू हुआ था और उसमें से एक निश्‍चित बात उनके मन में साकार होने लगी थी। इस महीने में आनेवाले एक पवित्र दिन को रामकृष्णजी ने एक विधि करने का तय किया। ‘षोडशी पूजा’ के नाम से जानेवाली इस विधि की सारी तैयारी उन्होंने अपने कमरे में की और अपने कमरे में आने के लिए शारदादेवी को न्यौता भेजा।

पति की आज्ञानुसार शारदादेवी उनके कमरे में आयी। वहाँ पर किसी पूजन की तैयारी की हुई उन्हें दिखायी दी। संरचना के बीचोंबीत देवीमाता के लिए एक विशेष बैठक सुशोभित कर रखी थी।

रामकृष्णजी स्वयं पुरोहित के स्थान पर बैठकर किसी मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे।

प्राथमिक विधि होने के बाद रामकृष्णजी ने शारदादेवी को अपनी जगह से उठकर उस – देवीमाता के लिए सजाये मध्यवर्ती स्थान पर जाकर बैठने का इशारा किया। यह सारा नज़ारा देखते हुए पहले से ही मंत्रमुग्ध हुईं शारदादेवी ने अपने पति की आज्ञा का पालन किया। उसके बाद रामकृष्णजी ने, जैसे देवीमाता की पूजा वे करते थे, वैसी? शारदादेवी की विधिवत् पूजा की।

जब यह पूजन शुरू था, तब बीच में ही शारदादेवी भावावस्था में गयीं और पूजन केमन्त्र समाप्त होने पर रामकृष्णजी भी भावसमाधि में गये। अगले कुछ घण्टें वे दोनों भी उसी स्थिति में थे। मध्यरात्रि के बाद रामकृष्णजी पहले सभान हो गये और उन्होंने शारदादेवी के कान में किसी मंत्र का उच्चारण कर उन्हें भी सभान कर दिया। इस विधि के बाद रामकृष्णजी ने, अपनी अब तक की हुईं साधनाओं के ङ्गल को देवीमाता के चरणों में – शारदादेवी को ही देवीमाता मानते हुए उनके चरणों में अर्पण किया और उन्हें नमस्कार किया।

आगे चलकर एक बार रामकृष्णजी के पैर दबाते हुए बैठीं शारदादेवी ने उन्हें – ‘मेरे बारे में आप क्या सोचते हो’ ऐसा पूछा। उसपर पल की?भी देरी न करते हुए रामकृष्णजी ने उत्तर दिया – ‘जो देवीमाता मंदिर में पूजी जाती है, उसीने मेरी भौतिक माता के रूप में मुझे जन्म दिया और जो अब इस समय मेरी पत्नी के रूप में मेरी सेवा कर रही है।’

यानी अब रामकृष्णजी के मन में वह देवीमाता, अपनी माँ चंद्रादेवी और अपनी पत्नी शारदादेवी में एक ही मूल परमतत्त्व का वास है, इसको लेकर कोई सन्देह नहीं बचा था।

शारदादेवी फिर दक्षिणेश्‍वर में ही रहीं। ‘रामकृष्णजी को उनकी विभिन्न भावावस्थाओं में हँसते हुए, रोते हुए, भावसमाधि में जाते हुए देख पाना, यह मेरे जीवन के परमोच्च आनंद का कालखंड था’ ऐसा? शारदादेवी ने आगे चलकर अपने संप्रदाय के साधकों के साथ बातचीत करते हुए कहा।

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