नेताजी-९५

जवाहरलालजी की मुश्किल की घड़ियों में उनका साथ निभाकर सुभाषबाबू फिर से आराम के लिए कार्ल्सबाड लौटे। वहाँ के गरम पानी के झरनों के कारण उनके स्वास्थ्य में अब तेज़ी से सुधार आने लगा। लेकिन तीन-चार महीनों में ही उन्हें ख़बर मिली कि कमला नेहरूजी की तबियत काफी बिगड़ गयी है। इसलिए भारत में कारावास भुगतनेवाले जवाहरलालजी को सरकार ने रिहा कर दिया और वे युरोप आने निकले। उस समय कमलाजी ब्लॅक फॉरेस्ट में स्थित बाडेनवेलेर में थीं। वहाँ सुभाषबाबू ने जवाहरलालजी के साथ दस दिन बिताये। पुरानी यादें ताज़ा हुईं। बीच के समय में निर्माण हुआ मनमुटाव अब काफी कम हो गया। कमलाजी की तबियत को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, यह डॉक्टरों से जानने के बाद सुभाषबाबू फिर से बाडगास्टेन लौट आये।

इसी बीच हिटलर ने गौरवंशियों के श्रेष्ठत्व का पुरस्कार करनेवाला एक मग़रूरीपूर्ण भाषण किया था। सुभाषबाबू को इसका पता चलते ही उन्होंने क्रोधित होकर एक निवेदन द्वारा उसका कड़े शब्दों में धिक्कार किया। उसके बाद नाझी पार्टी की तऱफ से ‘फ्यूरर ने यह दरअसल भारतीयों के बारे में नहीं कहा था’ ऐसी लीपापोती की गयी। लेकिन उसमें कुछ ख़ास दम नहीं था।

जवाहरलालजी

ऐसी ही छोटी-मोटी घटनाओं से भरा हुआ १९३५ साल धीरे धीरे समाप्त हुआ। इसी दौरान सुभाषबाबू ने अ‍ॅलेक्स और किट्टी कुर्टी दंपति के साथ संपर्क बनाये रखा था। उनकी मुश्किल की घड़ी में उन्हें वे मानसिक आधार दे रहे थे। इसी बीच १९३६ साल की शुरुआत हुई। भारत छोड़कर सुभाषबाबू को अब तीन साल हो चुके थे। रशिया और इंग्लैंड़ को छोड़कर तक़रीबन पूरे युरोप का दौरा उन्होंने किया था। वहाँ पर स्थित भारतीयों में, ख़ासकर भारतीय छात्रों में स्वतन्त्रतासंग्राम की ज्वाला भड़काकर विभिन्न स्थानों पर प्रचारकार्य की उन्होंने शुरुआत कर ही दी थी। इसलिए उन्हें अब भारत लौटने की इच्छा हो रही थी और अपने इस मनसूबे को न छिपाते हुए उन्होंने उसे ज़ाहिर रूप में प्रदर्शित भी किया था। समाचारपत्रों में भी इस बारे में ख़बरें छपने लगी थीं। लेकिन मातृभूमि लौटने से पहले सुभाषबाबू ने आयर्लंड़ का दौरा किया।

बर्लिन स्थित आयरिश दूतावास से उन्हें पहले ही पासपोर्ट पर आयर्लंड़ में प्रवेश करने की अनुमति प्राप्त हुई ही थी। लेकिन उनपर इंग्लैंड़ में प्रवेश करने की पाबन्दी होने के कारण उन्होंने व्हाया फ्रान्स आयर्लंड़ में प्रवेश किया। १ फरवरी १९३६ को सुभाषबाबू ने आयर्लंड़ की भूमि पर कदम रखा। आयर्लंड़ के उस तेजस्वी स्वतन्त्रतासेनानी – टेरेन्स मॅकस्विनी के स्मारक के दर्शन कर ही उन्होंने अपने दौरे का आरंभ किया। वहाँ के भारतीय छात्रों ने सुभाषबाबू के लिए सम्मानसमारोह का आयोजन किया था। इसके साथ ही इंडियन-आयर्लंड इन्डिपेन्डन्स लीग द्वारा आयोजित किये गये उनके सम्मानसमारोह में वहाँ के सभी बुज़ुर्ग आयरिश स्वतन्त्रतासेनानी बड़े प्यार के साथ शामिल हुए थे। आयर्लंड के स्वतन्त्रतासंग्राम के नक़्शेकदम पर चलनेवाले भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम के अग्रसर सेनापति को देखकर कितना प्यार उनके मन में उमड़ रहा था! उसके बाद वहाँ के स्थानीय स्वराज्य, अर्थ, व्यापार आदि महत्त्वपूर्ण विभागों में जाकर उन सम्बन्धित मन्त्रियों से उन विभागों की कार्यपद्धति की उन्होंने विस्तारपूर्वक चर्चा की। वहाँ की संसद की कार्यपद्धति को भी उन्होंने देखा। आयर्लंड़ को आज़ादी दिलानेवाले ‘सिन फेन’ पार्टी के ऑफिस भी वे गये। सबसे अहम बात यह है कि आयर्लंड़ के अध्यक्ष डी व्हॅलेरा से तीन बार चर्चा करने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष जैसा उन्होने सुभाषबाबू का स्वागत किया। दस दिनों की आर्यर्लंड़ की स़फल यात्रा के बाद सुभाषबाबू फिर से बाडगास्टेन लौटे। लेकिन इसी बीच कमलाजी का स्वास्थ्य काफी बिगड़ गया और २८ फरवरी को उनका निधन हुआ। उस समय जवाहरलालजी को सांत्वना देने और उनका धीरज बँधाने के लिए सुभाषबाबू ही उनके साथ थे। कमलाजी के अन्तिम संस्कारों के बाद सुभाषबाबू फिर से बाडगास्टेन लौटे।

वहाँ भारत में भी लोगों को यह एहसास होने लगा था कि सुभाषबाबू अब काफी समय से देश के बाहर हैं और वह एहसास, अँग्रेज़ सरकार के उनके प्रति होनेवाले अमानुष रवैये के प्रति होनेवाले ग़ुस्से में परिवर्तित हो रहा था। देश में नये क़ानून के अनुसार होनेवाले चुनावों की हवा सन १९३५ से ही तेज़ होने लगी थी। काँग्रेस में युवा सदस्यों की संख्या बढ़ गयी थी और ये सभी नौजवान सुभाषबाबू को भारत लाने के लिए माहौल तैयार करने के लिए काँग्रेस नेतृत्व पर दबाव डाल रहे थे।

एक तो युरोप जाने से पहले २ सालों तक सुभाषबाबू के बिग़ड़ते स्वास्थ्य को नज़रअन्दाज़ करते हुए सरकार ने उन्हें सीधे जेल में डाल दिया था और वह भी बिना किसी आरोप के; और अब जब कि वे इलाज के लिए युरोप गये हुए हैं, तब उनके भारत लौटने पर अँग्रेज़ सरकार द्वारा पाबन्दी लगायी जाने के कारण सुभाषबाबू को पिछले ३ सालों से मानो देश से निकाल बाहर ही कर दिया हो, ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। इस बात का ग़ुस्सा देशभर में से उबल रहा था। विभिन्न स्तरों पर से सरकार से इस बारे में पूछा जा रहा था। उसी दौरान सन १९३६ की शुरुआत में भारत में चुनाव होकर कई प्रान्तों में काँग्रेस की सरकारों ने सत्ता की बागडौर सँभाल ली थी। सेंट्रल कौन्सिल में भी काँग्रेस की सदस्यों की संख्या में बढ़ोतरी हुई थी। भुलाभाई देसाई जैसे विख्यात विधिविशेषज्ञ इस मामले में कौन्सिल में सरकार को खरी खरी सुना रहे थे। इसपर सरकार द्वारा यह लीपापोती की गयी कि ‘सुभाषबाबू के सशस्त्र क्रान्तिकारियों के साथ सम्बन्ध होने के कारण, उनके भारत लौटने पर सरकारविरोधी सशस्त्र कार्रवाइयाँ बढ़ जायेंगी। इसी कारण सरकार उन्हें भारत लौटने की इजाज़त नहीं दे सकती।’ सरकार के इस मनमानी रवैये से क्रोधित होकर ‘यदि ऐसा है, तो सरकार सुभाषबाबू पर मुक़दमा क्यों नहीं दायर करती? बिना किसी आरोप के उनका क्रान्तिकारियों से बादरायण संबंध जोड़कर उन्हें भारत लौटने की इजाज़त न देने का सरकार को भला क्या अधिकार है?’ यह एक ही सवाल कौन्सिल में और प्रसारमाध्यमों में उठाया जा रहा था।

उसीमें १९३६ का मार्च महीना शुरू हुआ। फ्रान्स में आयोजित एक ‘उपनिवेशवादविरोधी’ आन्तर्राष्ट्रीय परिषद में भाषण कर सुभाषबाबू ने इंग्लैंड़ के उपनिवेशवाद का धिक्कार करते हुए भारत की भूमिका आन्तर्राष्ट्रीय व्यासपीठ पर फिर से एक बार ज़ाहिर की। साथ ही उन्होंने इटली द्वारा अ‍ॅबसिनिया पर किया गया आक्रमण, जापान की एशिया में चल रहे कारनामें इन मुद्दों को प्रस्तुत कर सभी देशों के उपनिवेशवाद का कठोर शब्दों में धिक्कार किया। उसके बाद व्हिएन्ना लौटकर अब सुभाषबाबू मातृभूमि लौटने की तैयारी करने लगे। उतने में व्हिएन्ना स्थित ब्रिटीश राजदूत से उन्हें ‘भारत में कदम रखने पर आपको बन्दी बनाया जायेगा’ इस आशय का पत्र मिला।

लेकिन ऐसे संकटों की परवाह करनेवालों में से सुभाषबाबू निश्चित ही नहीं थे। उन्होंने उस पाबन्दी हुक़्म को न मानते हुए भारत लौटने का निश्चय किया।

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