नेताजी-९४

सुभाषबाबू के ‘द इंडियन स्ट्रगल: १९२०-१९३४’ इस पुस्तक का युरोप में अच्छा-ख़ासा स्वागत किया गया। ‘भारतीय राजनीति के तीन सर्वोच्च महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्त्वों में से एक के द्वारा यह ग्रन्थ लिखा जाने के कारण इसकी काफी अहमियत है। लेखक द्वारा निर्भयतापूर्वक अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हुए किसी के साथ भी नाइन्सा़फी नहीं की गयी है। हालाँकि इसके विचारों के साथ अँग्रेज़ सहमत न भी हों, मग़र तब भी इसमें भारत की भूमिका को बहुत ही तर्कशुद्ध पद्धति से प्रस्तुत किया जाने के कारण इसे नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता’ इस तरह की राय वहाँ के अग्रसर समाचारपत्रों में व्यक्त हुई थी।

सुभाषबाबू ने इसकी एक कापी स्मरणपूर्वक रोमां रोलाँ को भेजी। उन्होंने पुस्तक को पढ़कर अपनी पसन्दगी भी बतायी। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के इतिहास को जानने की दृष्टि से इस ग्रन्थ का मुझे काफी उपयोग हुआ, यह भी उन्होंने सुभाषबाबू को लिखे हुए ख़त में कहा था।

इंडियन स्ट्रगलइस ग्रन्थ को पढ़कर ‘मुझे ऐसा लगता है कि अब वह दिन दूर नहीं है, जब भारत की जनता आज़ादी की खुली हवा में साँस ले रही होगी’ यह राय आयर्लंड के अध्यक्ष डी व्हॅलेरा ने ज़ाहिर की।

सुभाषबाबू ने स्वयं रोम जाकर इस पुस्तक की एक कापी मुसोलिनी को भेंट की। उसे वह इतनी पसन्द आयी कि उसने उसे इटालियन में अनुवादित करने के आदेश दिये। उसके बाद उसका जापानी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ।

सुभाषबाबू के पिछले रोम दौरे में वहाँ पर स्थित शहीदों का स्मारक उन्हें काफी भाया था और इसी शैली में कोलकाता में भी, भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में कुर्बानी दे चुके स्वतन्त्रतासेनानियों का एक स्मारक बनाया जाये, ऐसा विचार उनके मन में दृढ़ हुआ था। यह बात उन्होंने मुसोलिनी से कहते ही उसे भी यह कल्पना बहुत ही अच्छी लगी और उसने ‘भारत की जनता को इटालियन जनता के ओर से भेंट’ के रूप में उसका सारा खर्चा उठाने का आश्‍वासन भी दिया। साथ ही, रोमस्थित स्मारक के वास्तुविशारद को भी उसके लिए भारत भेजने की बात तय हुई थी। लेकिन आगे चलकर विश्‍वयुद्ध के शुरू हो जाने के कारण यह कल्पना साकार न हो सकी। लेकिन इस सन्दर्भ में इटली के कोलकाता स्थित प्रतिनिधि काऊंट मिलेसी से सुभाषबाबू का परिचय हुआ, जो आगे चलकर उनके लिए बहुत ही उपयोगी साबित हुआ।

इस तरह सुभाषबाबू जहाँ जहाँ जाते, वहाँ पर अपनी मुहर लगा देते। तत्कालीन पदच्युत अफगाणी बादशाह अमानुल्ला उस समय रोम में विजनवास में दिन गुज़ार रहे थे। उन्हें सुभाषबाबू के विचार इतने पसन्द आये कि उन्होंने सुभाषबाबू रोम में आराम के साथ यात्रा कर सकें, इसलिए अपनी शाही मोटर उनकी सेवा में दे दी थी।

कुछ दिन पश्‍चात् व्हिएन्ना लौटने के बाद सुभाषबाबू ने पुनः अधिक से अधिक लोगों के साथ सम्पर्क स्थापित करने हेतु झेकोस्लोव्हाकिया, जर्मनी, बेल्जियम, फ्रान्स आदि देशों का दौरा किया। व्हिएन्ना के एक स्त्री-संघ में भी ‘भारतीय स्त्री’ इस विषय पर उनका भाषण हुआ। उसमें उन्होंने – ‘हालाँकि युरोपीय स्त्री यह अधिक आधुनिक दिखायी दे भी रही हो, मग़र भारतीय स्त्री विचारों से समृद्ध है। आज भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम में वह पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर हिस्सा ले रही है और उसे यह आत्मबल दिलाया है, गाँधीजी ने’ यह कहा।

उसके बाद सुभाषबाबू जीनिव्हा के पास स्थित ग्लँड हो आये। विठ्ठलभाई पटेलजी ने जहाँ पर आखरी साँस ली थी, वहाँ पर उस रुग्णालय ने उनकी स्मृति में एक स्मृतिफलक लगाने का तय किया था। स्वास्थ्य के ख़राब चलते और शस्त्रक्रिया का दिन क़रीब आने के बावजूद भी केवल विठ्ठलभाई के प्रति रहनेवाले प्रेम के कारण सुभाषबाबू वहाँ गये थे।

वहाँ सुभाषबाबू की कई वर्षों की एक इच्छा सफल हुई – रोमां रोलाँ से मिलने की।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की भूमिका उनसे प्रत्यक्ष मिलकर उनके समक्ष प्रस्तुत करने का उनका विचार था। सुभाषबाबू की पुस्तक पर अपनी पसन्द की मुहर उनके द्वारा लगाये जाने के कारण ही सुभाषबाबू ने यह योजना तय की थी। वहाँ जाते हुए एक ऋषि के आश्रम में मैं प्रवेश कर रहा हूँ, यही उनकी भावना थी। लेकिन अक़्सर विचारवन्त उदारमतवादी नहीं होते, साथ ही, वे हमेशा सपनों के सातवें आसमान में उड़ान भरते रहते हैं और इसीलिए वे हमेशा ही ‘प्रॅक्टिकली’ सोचते हैं ऐसा भी नहीं है; इसीलिए मेरी भूमिका उनके सामने सुस्पष्ट रूप में प्रतिपादित करने में क्या मुझे क़ामयाबी मिलेगी, इस सोच के साथ ही सुभाषबाबू उनसे मिलने गये। पहली ही मुलाक़ात में उन दोनों के मन के तार जुड़ गये। रोमां रोलाँ उस समय भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के बारे में, ख़ासकर गाँधीजी के बारे में अध्ययन कर रहे थे और गाँधीजी के सत्याग्रह के तन्त्र ने उन्हें स्तिमित कर दिया था। पहले विश्‍वयुद्ध में हुई अपरिमित हिंसा के कारण, हिंसा से ऊब चुकी इस दुनिया में यही राजकीय शस्त्र उपयोगी साबित होगा, ऐसा विश्‍वास उन्होंने व्यक्त किया। सुभाषबाबू द्वारा पुस्तक में किये गये गाँधीजी के विश्‍लेषण की महत्त्वपूर्णता अतुलनीय है और दरअसल इसी वजह से गाँधीजी अद्वितीय साबित होते हैं, यह उन्होंने सुभाषबाबू से कहा ।

लेकिन साथ ही ‘गाँधीजी का यह शस्त्र यदि बदलते हालात की कसौटी पर खरा नहीं उतरा, तो मुझे उसका दुख अवश्य होगा। लेकिन उससे आन्दोलन नहीं रुकना चाहिए। उसे अन्य मार्गों द्वारा आगे बढ़ाते ही रहना चाहिए। जीवन के कठोर वास्तव को पीठ दिखाना मुनासिब नहीं है’ इस तरह के ‘प्रॅक्टिकल’ विचार भी उन्होंने सुभाषबाबू के पास व्यक्त किये, जिससे कि सुभाषबाबू के मन का बोझ हलका हो गया। यह श्रेष्ठ विचारवन्त व्यक्ति की अपेक्षा विचारों को अहमियत देता है, यह समझते ही उनके प्रति सुभाषबाबू के मन में रहनेवाली सम्मान की भावना कई गुना बढ़ गयी। इस मुलाक़ात के बाद सन्तोषभरे मन से सुभाषबाबू व्हिएन्ना लौटे।

२४ अप्रैल १९३५ को डॉ. डेमेल के अस्पताल में उनकी सर्जरी की गयी। पित्ताशय की थैली में जम चुके पित्त के कारण वहाँ गाँठ बन गयी थी, जिससे कि सुभाषबाबू को भारी पीड़ा होती थी। इसीलिए उनकी पित्ताशय की थैली को ही निकाल दिया गया। इस सर्जरी के कारण वे काफी कमज़ोर हुए और एक-डेढ़ महीने तक उन्हें बिस्तर पर ही लेटे रहना पड़ा। उन्होंने विश्राम करने के लिए झेकोस्लोव्हाकिया के कार्ल्सबाड नामक गर्म झरनों के स्थान पर जाने का तय किया।

इसी दौरान उन्हें यह ज्ञात हुआ कि कमला नेहरूजी की बिग़ड़ती हुई सेहत का इलाज करने के लिए जवाहरलालजी बर्लिन आ रहे हैं। तब स्वयं की सेहत के बारे में न सोचते हुए अपने दोस्त का धीरज बाँधने के लिए सुभाषबाबू व्हिएन्ना में ही रुक गये और नेहरू परिवार के वहाँ पधारने के बाद उनके साथ प्राग तक जाकर ङ्गिर वे कार्ल्सबाड गये। वहाँ के वास्तव्य में उनका हौसला बढ़ानेवाली ख़बर उन्हें मिली कि शरदबाबू की स्थानबद्धता को समाप्त कर दिया गया है। इससे उनके मन का एक और बोझ हलका हो गया।

Leave a Reply

Your email address will not be published.