नेताजी-१६७

६ नवम्बर १९४१ की ‘आज़ाद हिन्द केन्द्र’ की मीटिंग में कई बातें तय की गयीं। ‘जय हिंद’ यह अभिवादन (‘सॅल्युटेशन’) तो पहले ही तय किया गया था। मुख्य रूप से, केन्द्र का नाम ‘आज़ाद हिन्द केन्द्र’, आकाशवाणी केन्द्र का नाम ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ और भविष्य में गठित की जानेवाली सेना का नाम भी ‘आज़ाद हिन्द सेना’ रहेगा, यह तय किया गया। इस ‘आज़ाद हिन्द केन्द्र’ का नमनगीत ‘जन गण मन’ यह निर्धारित किया गया; और ध्वज तिरंगा ही था, लेकिन बीच में छलाँग लगाने की तैयारी में रहनेवाला बाघ था।

यह सम्पूर्ण संकल्पना सुभाषबाबू द्वारा निर्धारित की जाने के कारण (‘ब्रेनचाईल्ड’) सुभाषबाबू उसके घोषित एवं अघोषित भी प्रमुख ही रहनेवाले थे। उन्हें ‘राष्ट्रपतिजी’ कहकर सम्बोधित किया जाये या ‘प्रधानमन्त्रीजी’, इस बात पर विचारविमर्श उनके सहकर्मियों में शुरू हो गया। तब एक युवा सहकर्मी ने कहा कि सम्बोधन चाहे जो भी हो, लेकिन वे हमारे ‘नेता’ ही रहेंगे….

….और इसीसे जन्म हुआ, सुभाषबाबू के ‘नेताजी’ इस सम्बोधन का!

इसी दौरान २९ नवम्बर १९४१ को फ़िर एक बार रिबेनट्रॉप के साथ उनकी मीटिंग हुई। ‘जर्मनी का रशिया पर आक्रमण’ यह सुभाषबाबू के मन में ख़ौलनेवाला मुद्दा ही इस मीटिंग में चर्चा का विषय रहा। उससे पहले १५ अगस्त को सुभाषबाबू द्वारा रिबेनट्रॉप को भेजे गये कड़े शब्दों से भरे हुए ख़त में, ‘इस एक बात के कारण भारतीय नागरिक जर्मनों की ओर दुश्मन के नज़रिये से शक़पूर्वक देखेंगे’ यह सा़फ़ किया हुआ ही था। इस मीटिंग में भी सुभाषबाबू ने रिबेनट्रॉप से इस बात का जवाब माँगा। तब रिबेनट्रॉप ने – ‘यदि हम ऐसा नहीं करते, तो रशियन हमपर हमला करनेवाले थे। इसलिए हमें इस मुहिम को शुरू करना पड़ा’ यह कहकर टालमटोल की और सुभाषबाबू को शान्त करने की दिशा में कोशिशें शुरू कर दीं। उनकी ‘आज़ाद हिन्द सेना’ और ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ इन दो योजनाओं को जल्द से जल्द हिटलर से अधिकृत मान्यता दिलाने की दिशा में कोशिश करने का अभिवचन उसने सुभाषबाबू को दिया।

‘आज़ाद हिन्द केन्द्र’ के कार्य का शुभारंभ तो हो चुका था। अब अगला लक्ष्य था – ‘आज़ाद हिन्द सेना’। लेकिन उसके लिए का़फ़ी मनुष्यबल की आवश्यकता थी। सेना बनाने के लिए सुभाषबाबू उत्सुक बन गये, इसकी वजह थी एक और घटना।

दिसम्बर की शुरुआत में, सुभाषबाबू को जिसका बेसब्री से इन्तज़ार था, वह ख़बर आ ही गयी। जर्मनी-इटली के साथ समझौता कर चुका जापान विश्‍वयुद्ध में प्रत्यक्ष कूद पड़ा। विश्‍वयुद्ध का अतिपूर्वीय मोरचा खुल गया था।

तबतक जापान शान्ति का राग अलाप रहा था। लेकिन १९३० के दशक की शुरुआत में ही उसने चीन के साथ छेड़खानी करना शुरू कर दिया था। शुरू शुरू में उसने चीन के मांचुरिया इला़के पर कब्ज़ा कर लिया और धीरे धीरे चिनी इला़के में आगे बढ़ते हुए १९३७ तक चीन के ईशान्य प्रदेश के बिजिंग और शांघाय इन शहरों पर अपनी सत्ता स्थापित कर दी। लेकिन ब्रिटन का पूर्वी एशिया का सबसे बड़ा सैनिक़ी अड्डा ‘सिंगापूर’ में रहने के कारण जापान युद्ध में प्रत्यक्ष हिस्सा लेने की हिम्मत नहीं कर रहा था। सन १९४१ के अक्तूबर में जनरल टोजो के जापान के प्रधानमन्त्र बनने के बाद नवम्बर में उन्होंने एक विशेष शान्तिदूत को भी अमरीका भेजा। लेकिन यह सब, जापान को युद्ध की तैयारी पूरी होने के लिए अपेक्षित अवकाश मिल जाये इसी उद्देश्य से अमरीका की आँखों में धूल झोंकने के लिए जापान द्वारा उठाया गया कदम था।

अमरीका भी तब तक युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से नहीं उतरी थी और ब्रिटन तथा उसके मित्रराष्ट्रों को इस युद्ध में युद्धसामग्री की पूर्ति करना आदि सहायता बाहर से ही कर रही थी। उसके बदले अमरीका ने तत्कालीन अँग्रेज़ी हुकूमत का हिस्सा रहनेवाले न्यूफ़ाऊंडलँड, ब्रिटीश गिनी, बर्म्युडा और ब्रिटीश वेस्ट इंडिज में हवाई एवं नौसैनिक़ी अड्डे बनाने के लिए ब्रिटन से अनुमति प्राप्त करके ९९ वर्ष की लीज के अनुसार इन जगहों को प्राप्त किया था। जब विश्‍वयुद्ध का ज़ोर बढ़ने लगा और फ़्रान्स को परास्त होना पड़ा, तब इस युद्ध में ब्रिटन एकाकी हो गया। युरोप में कई मोरचों पर ब्रिटन को दो कदम पीछे हटना पड़ा, तब अचानक ब्रिटन ने ‘हमारे पास धन की कमी रहने के कारण अमरीका से युद्धसामग्री खरीदना अब हमारे लिए सम्भव नहीं है’ यह घोषित कर दिया। तब ‘अमरिकी हितसंबंधों को बचाने के लिए ब्रिटन एवं दोस्तराष्ट्रों की सुरक्षा अमरीका के लिए अहमियत का मुद्दा है’ यह कहकर अमरीकी राष्ट्राध्यक्ष रूझवेल्ट ने, ब्रिटन एवं दोस्तराष्ट्रों को युद्धसामग्री कर्ज़ के रूप में देने के अधिकार अमरिकी संसद से मंज़ूर करा लिये। मग़र तब भी अब तक अमरीका बस महज़ ‘मदद’ ही कर रही थी, प्रत्यक्ष रण में नहीं उतरी थी।

अतिपूर्वीय मोरचे की शुरुआत ब्रिटन के लिए सिरदर्द बनेगी, यह जानकर अमरीका ने – ‘जापान जीते हुए चिनी प्रदेश को वापस लौटा दे और अक्षराष्ट्रों से रिश्ता तोड़ दे’ यह आवाहन पहले २६ नवम्बर और उसके बाद ६ दिसम्बर १९४१ को जापान से किया। उसके बदले में जापान को सम्पूर्ण आर्थिक सहायता दी जायेगी, यह आश्‍वासन भी इस निवेदन में दिया गया था। लेकिन अमरीका के इस प्रस्ताव को ठुकराकर जापान ने दूसरे ही दिन यानि ७ दिसम्बर को पर्ल हार्बर स्थित अमरिकी नौसेनिक़ अड्डे पर धुँवाधार बमबारी करके स़िर्फ़ दो घण्टों में ही उसे टहसनहस कर दिया और जापान के ख़िला़फ़ युद्ध की घोषणा करते हुए अमरीका प्रत्यक्ष रूप में इस युद्ध में कूद पड़ी।

सुभाषबाबू का अनुमान सही साबित हुआ। जापान ने ही विश्‍वयुद्ध के पौर्वात्य मोरचे को सँभाला था। इसीलिए अब ‘आज़ाद हिन्द सेना’ का गठन करना ज़रूरी बन गया था। उसके लिए अधिकृत अनुमति प्राप्त करने के लिए सुभाषबाबू शुरू से ही हिटलर पर तथा जर्मन विदेशमन्त्रालय पर ख़तों एवं निवेदनों की बौछार कर रहे थे। २९ नवम्बर को रिबेनट्रॉप के साथ हुई सुभाषबाबू की मीटिंग के बाद वह भी व्यक्तिगत रूप से दिलचस्पी लेकर इस मामले में कोशिशें कर रहा था। आख़िर ये सभी कोशिशें क़ामयाब हुईं और १९ दिसम्बर १९४१ को ‘इंडियन लीजन’ यानि कि ‘आज़ाद हिन्द सेना’ का गठन करने के लिए हिटलर से अधिकृत रूप में अनुमति मिल गयी।

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