नेताजी-१६०

युद्ध में केवल स्वयं के ही हितसम्बन्धों को सुरक्षित रखना चाहनेवाले और भारत की ओर ब्रिटन के ही नज़रिये से देखनेवाले हिटलर से किसी ठोस सहायता की अपेक्षा रखना बेक़ार है, यह हालाँकि सुभाषबाबू जान तो गये थे, लेकिन जर्मन विदेश मन्त्री रिबेनट्रॉप के साथ हुई मुलाक़ात के बाद चित्र बदलने लगा था।

भारतीय स्वतन्त्रता को मंज़ूरी देने जैसा किसी भी प्रकार का राजकीय स्वरूप का वादा करने में टालमटोल करनेवाले रिबेनट्रॉप ने सुभाषबाबू की आर्थिक सहायता करने में किसी भी प्रकार की कसर नहीं छोड़ी थी। सुभाषबाबू के प्रस्तावित रेडिओ केंद्र के लिए रिबेनट्रॉप ने दस लाख मार्क्स का अनुदान मंज़ूर किया था और सुभाषबाबू के व्यक्तिगत खर्च के लिए बारह ह़जार मार्क्स अलग से दिये जानेवाले थे।

सुभाषबाबू के लिए स्वतन्त्र गुप्त रेडिओ केंद्र के उपलब्ध होने तक यदि वे चाहें तो फ़िलहाल बर्लिन नभोवाणी केंद्र से अपने सन्देश प्रसारित कर सकते हैं, यह ‘ऑफ़र’ भी रिबेनट्रॉप ने उन्हें दी थी। लेकिन युद्धकाल के दौरान बर्लिन रेडिओ केंद्र से भाषण करना, यह जर्मन सरकारी अधिकृत प्रचारयंत्रणा का हिस्सा बनने जैसा था, यह सुभाषबाबू जानते थे। यदि वे ऐसा करते, तो हिटलर की नाझी तानाशाही को उनका समर्थन है, यह अर्थ उससे निकल सकता था। भारतीय स्वतन्त्रता के अलावा अन्य किसी भी मामले में दिलचस्पी न रहने के कारण उन्होंने विनम्रतापूर्वक, मग़र साथ ही दृढ़तापूर्वक रिबेनट्रॉप की इस सूचना को नामंज़ूर कर दिया।

लेकिन रिबेनट्रॉप की ही सूचना के अनुसार सुभाषबाबू ने अपने निवेदन को पुनः नये सिरे से तैयार करके विदेश मन्त्रालय के पास भेज दिया। उनमें से कुछ माँगें (जैसे कि जर्मन सरकार से जो आर्थिक सहायता इस स्वतंत्र भारत रेडिओ केंद्र को दी जायेगी, उसका स्वीकार कर्ज़ के रूप में किया जानेवाला है और उसे पूरी तरह चुकाया जानेवाला है और इसीलिए उसका विनियोग करने का सम्पूर्ण अधिकार रेडिओ केन्द्र के पास ही रहेगा। अन्य कोई भी उसमें दख़लअन्दाज़ी न करें वगैरा वगैरा) विदेश मन्त्रालय के कुछ अ़फ़सरों के मन में चुभ रही थीं। जहाँ देशविदेश के राष्ट्रप्रमुख फ्यूरर (हिटलर) के इशारे पर हर बात करने के लिए तैयार हैं, वहाँ यह भला कौन मामूली इन्सान है, जो जर्मनी की पनाह में रहने के बावजूद भी फ्यूरर के सामने शर्तें रख रहा है! इस कल्पना को ही वे सह नहीं सकते थे। साथ ही जर्मनी के महज़ सौ से भी कम रहनेवाले भारतीयों की सहायता से यह इन्सान ५० हज़ार की फ़ौज भला क्या खाक़ बना सकेगा, यह कहकर सुभाषबाबू का मज़ाक भी उड़ाया जाता था। इस नभोवाणी केंद्र की स्वायत्तता के मुद्दे पर कई मीटिंग्ज में उनके बीच में वादविवाद होते थे। ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ केन्द्र’ का कामकाज़ विदेश मन्त्रालय की सलाह से ही चलना चाहिए, यह इन अ़फ़सरों का आग्रह था और यह बात वे सुभाषबाबू से हर बार कहते भी थे। ज़ाहिर है कि सुभाषबाबू हर बार इस सूचना को ख़ारिज़ कर देते थे। आख़िर एक दिन उस अ़फ़सर ने गर्म दिमाग़ से ‘यदि हमारी शर्तें आपको मंज़ूर नहीं हैं और यह रेडिओ केंद्र विदेश मन्त्रालय की सलाह से चलनेवाला नहीं है, तो इस चर्चा को यहीं पर रोक देते हैं’ यह सुभाषबाबू से कहा। सुभाषबाबू ने भी आवेश में आकर – ‘मैं अपनी जान पर खेलकर यहाँ आया हूँ, वह आपकी ऊँगलियों के इशारों पर नाचने के लिए नहीं, बल्कि मेरे देश को आपसे सहायता मिल सकती है, यह सोचकर। यदि आप किसी भी प्रकार की मदद करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो मुझे यहाँ रुकने में कोई दिलचस्पी नहीं है और एक बात ध्यान में रखिए कि यदि मैं इस देश को छोड़कर जाना चाहूँ, तब भी आप मुझे नहीं रोक सकेंगे। अँग्रे़जों का बहुत ही माहिर एवं कार्यक्षम रहनेवाला गुप्तचर विभाग भी जहाँ मुझे भारत को छोड़ने से नहीं रोक सका, वहाँ आपकी गुप्तचर यन्त्रणा मुझे भला क्या रोकेगी!’ यह खरी खरी उन्हें सुना दी और फ़िर उस अ़फ़सर की प्रतिक्रिया की परवाह न करते हुए मीटिंग को अधूरा छोड़कर वे फ़ौरन होटल लौट आये। गत युरोप दौरे में मुसोलिनी से मिला हुआ प्रतिसाद उत्साहजनक था। अत एव रोम में स्थलान्तरित होने के विकल्प के बारे में भी वे सोचने लगे। यह समझने के बाद – शायद अब तक की योजना की क़ामयाबी पर कहीं पानी न फ़िर जाये, इस डर से सुभाषबाबू के जर्मन दोस्तों के पैरों तले की ज़मीन ही खिसक गयी। उन्होंने फ़ौरन जाकर सुभाषबाबू को शान्त किया और इस तरह के संवेदनाशून्य कनिष्ठ जर्मन अ़फ़सरों के साथ अर्थशून्य चर्चा करके समय और मेहनत फ़िज़ूल गँवाने से बेहतर है कि भारतीय स्वतन्त्रता के प्रति हमदर्दी रखनेवाले जर्मन उच्च-अधिकारी के सम्पर्क में रहा जाये और सुभाषबाबू को उन्होंने ऐसे एक अ़फ़सर का नाम भी बताया और विदेश मन्त्रालय से वैसी व्यवस्था भी करवायी।

इसी दौरान सेना बनाने की दिशा में भी कुछ सकारात्मक बातें भी हुई थीं। बीबीसी के हिंदी कार्यक्रमों में जर्मनी के बारे में क्या कहा जा रहा है, इसकी जानकारी प्राप्त करने के लिए कुछ भारतीय युद्ध़कैदियों को बर्लिन लाया गया है, यह सुभाषबाबू को ज्ञात हुआ। इसी तरह विभिन्न मोरचों पर पकड़े गये भारतीय युद्ध़कैदियों के मन्तव्य को जानने का सुभाषबाबू ने तय किया। केपलर के द्वारा यह बात हिटलर से पूछी गयी और ताज्जुब की बात यह थी कि उसने भी ऐतराज़ न जताते हुए उसे मंज़ूरी दे दी।

शुरुआत में सुभाषबाबू ने ठेंठ वहाँ पर न जाते हुए डॉ. मेल्चर्स एवं डॉ. धवन के ज़रिये प्राथमिक अनुमान करना उचित समझा। ट्रिपोली स्थित युद्ध़कैदियों से शुरुआत करने की बात तय हुई। लेकिन वे जर्मनी और इटली के संयुक्त युद्धबन्दी होने के कारण उनके मामले में कुछ भी करने से पहले, अक्षराष्ट्रों में हुए समझौते के अनुसार दोनों राष्ट्रों की अनुमति लेना ज़रूरी था। वह भी उन्होंने प्राप्त की और मई के दूसरे ह़फ़्ते में वे दोनों ट्रिपोली में दाखिल हो गये। वहाँ के युद्ध़कैदियों का प्रतिसाद उत्साहवर्धक था। कैदख़ाने में सड़कर मरने से बेहतर है कि युद्धक्षेत्र में लड़कर वीरगति प्राप्त की जाये, यही अनेकों का रूझान था। लेकिन वे अँग्रेज़ सरकार की नौकरी कर रहे थे, पेट पालने के लिए; और इसी वजह से वे सुभाषबाबू के पक्ष में भी लड़ने के लिए तैयार हो गये, वह भी पेट पालने के लिए ही।

लेकिन इन दो बातों में फ़र्क़ है, यह उनके मन पर अंकित करना डॉ. धवन के बस की बात नहीं थी।

यह काम तो स़िर्फ़ सुभाषबाबू जैसे अव्वल ज्वलंत देशभक्त ही कर सकते थे!

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