नेताजी-१५०

कारोनी के साथ सुभाषबाबू की चर्चा का़फ़ी हद तक सफ़ल हुई और सुभाषबाबू खुशी से उत्तमचन्द के घर लौट आये। अब उनके मन पर का बोझ का़फ़ी कम हो चुका था और वे युरोपीय भेस में काबूल में खरीदारी वगैरा के लिए घुम-फ़िरने भी लगे थे। कुछ भी नया सन्देश आनेपर, हर दो-तीन दिन बाद कारोनी की पत्नी सिनोरा कारोनी उत्तमचन्द की दुकान पर आकर उसे पहुँचा देती थी।

Netaji Subhas Chandra Bose - 1936

इन दिनों में कुछ मज़ेदार वाक़ये भी हुए। कई बार उत्तमचन्द के शक़्क़ी मिजाज़ के कुछ दोस्तों के कारण वे झंझट में पड़ जाते थे, लेकिन अब झूठमूठ की कहानियाँ बनाकर किसी भी उलझन में से बाहर निकलने की तरक़ीब सुभाषबाबू, भगतराम तथा उत्तमचन्द इन तीनों खूब अच्छी तरह जान गये थे। ऐसी कुछ भी घटना हो जाने के बाद, उस शाम गप्पे हाँकते समय वह बात एक-दूसरे को बताते हुए वे खूब हँसते थे। एक दिन यूँ हुआ कि सुभाषबाबू का जिसके साथ रशिया जाना लगभग तय हुआ था, वह डाकू राहबर याकूब उत्तमचन्द की दुकान में भगतराम के साथ मीटिंग के लिए आया। उस समय दुकान में बैठा, उत्तमचन्द का एक पुराना दोस्त उसे जानता था और फ़िर उसके – ‘तुम इस जुआरी को भला कैसे जानते हो? क्या तुम भी इस मार्ग पर चलने लगे हो?’ इस तरह के सवालों के जवाब देते देते उत्तमचन्द की नाक में दम आ गया। ठीक उसी समय याकूब से मिलने उत्तमचन्द की दुकान में आये भगतराम ने भी समयोचित बुद्धि दिखाकर ऐसा नाटक किया कि वह याकूब या उत्तमचन्द को जानता तक नहीं। उसने एक कीमती टी-सेट के बारे में पूछताछ की और वह दुकान से दूर कहीं बाहर ही जाकर याकूब से मिला। वहीं, सुभाषबाबू वहाँ की एक सुविख्यात दुकान में अपने लिए जूतें खरीदने के लिए गये थे। भगतराम से हिन्दी में हो रही उनकी बातचीत को सुनकर दुकानदार ने ‘क्या वे भारत से हैं’ ऐसा उन्हें पूछा। यह सवाल सुनते ही पुनः चौकन्ने हो चुके सुभाषबाबू ने, वहीं के एक कॉलेज का नाम लेकर कहा कि वे वहाँ प्रोफ़ेसर हैं। लेकिन जब दुकानदार ने – ‘मैं वहाँ के सभी प्रोफ़ेसरों को जानता हूँ, वे सभी मेरी ही दुकान से जूतें खरीदते हैं; लेकिन मैंने आपको पहले वहाँ कभी नहीं देखा’ यह कहा, तो बड़ी मुसीबत आ गयी; लेकिन फ़िर सुभाषबाबू ने ‘मैं कल से ही वहाँ नौकरी पर लग गया हूँ’ यह कहकर उससे पीछा छुड़ा लिया।

इस तरह के मज़ेदार वाक़यों में दिन तो बीते जा रहे थे, लेकिन प्रत्यक्ष प्रयाण की कोई बात हो ही नहीं रही थी। सिनोरा कारोनी के सन्देशों में भी – ‘रशिया में वीज़ा की तैयारियाँ शुरू हैं; रोम में कुरियर का इन्तज़ाम हो चुका है और उसके आने की तैयारियाँ शुरू हैं’ इसके अलावा अन्य कुछ बातें नहीं होती थीं। ‘निकलना कब है’ इस सवाल का उसके पास भी जवाब नहीं रहता था। कारोनी के साथ हुई बैठक की सफ़लता से सुभाषबाबू के मन में जो अरमान जाग उठे थे, वे धीरे धीरे मुरझाने लगे और उनकी जगह अब चिन्ता उन्हें सताने लगी थी। उसीमें फ़रवरी समाप्त होकर मार्च महीना शुरू हुआ। सुभाषबाबू को काबूल आये हुए महीना बीत चुका था, फ़िर भी रशिया प्रयाण का मुहूरत दिखायी नहीं दे रहा था। सुभाषबाबू को रशिया द्वारा ट्रान्झिट वीज़ा दिया जाने का मामला कहाँ पर अटक गया है, यही समझ में नहीं आ रहा था।

सुभाषबाबू को वीज़ा देने में रशिया द्वारा इतनी देर क्यों हो गयी, इस बारे में जानकारी भविष्य में ही उपलब्ध हो पायी। रशिया को हिटलर के प्रति जो अविश्‍वास महसूस हो रहा था, उसीके कारण यह देरी हुई थी। शुरुआत में रशिया को जो शक़ लग रहा था, वह बाद में दावे में बदल गया। वह हुआ यूँ कि इस विश्‍वयुद्धकाल में जर्मनी अपने दोस्तराष्ट्रों के साथ किये जानेवाले गुप्तसन्देशवहन के लिए, स्वयं द्वारा ही विकसित की गयी ‘एनिग्मा’ यन्त्रणा का इस्तेमाल कर रहा था। इन ‘एनिग्मा’ मशिन्स की खोज पहले विश्‍वयुद्ध के बाद एक जर्मन इंजिनियर द्वारा की गयी थी और बाद में उन्हें विकसित करने पर हिटलर ने विशेष ध्यान दिया था। इस यन्त्रणा के अभेद्य होने का जर्मन तन्त्रज्ञों तथा सेना-अधिकारियों को यक़ीन था। लेकिन १९३० के दशक में इस यन्त्रणा की सुरक्षाव्यवस्था में छेद करने में पोलण्ड के तन्त्रज्ञों को सफ़लता मिली थी और दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान पोलिश तन्त्रज्ञों ने ‘एनिग्मा’ के कोड्स ब्रिटीश एवं फ़्रेंच सैनिक़ी तन्त्रज्ञों के हवाले कर दिये थे। रशिया के साथ किये हुए अनाक्रमण के समझौते को ख़ारिज कर, हिटलर रशिया पर हमला करने की तैयारियाँ कर रहा है, यह गुप्त जानकारी ब्रिटीश गुप्तचरों को इसी के ज़रिये मिली और अक्षराष्ट्रों के गुट से रशिया को अलग करने के लिए ब्रिटीश सरकार ने इस ‘ख़बर’ को तुरन्त ही रशिया तक पहुँचाया था। इसी कारण अस्वस्थ हो चुका रशिया अब ब्रिटन से पंगा लेने की मनःस्थिति में नहीं था। इसीलिए सुभाषबाबू को वीज़ा देने में रशिया द्वारा देर हो रही थी।

लेकिन यहाँ अक्षराष्ट्र भी सुभाषबाबू को वीज़ा दिलाने के लिए रशिया पर दबाव डाल रहे थे और रशिया दोनों तऱफ़ से उलझन में पड़ गया था। आख़िर ब्रिटन ने निर्णय किया। सुभाषबाबू का अन्य किसी जगह होने से युरोप में होना, ब्रिटन को बेहतर लग रहा था। मुख्य बात यह थी कि इस तरह शत्रु की सन्देशवहनयन्त्रणा में गुप्त रूप से छेद करके प्राप्त हुई जानकारी का इस्तेमाल करने में भी तारतम्य की आवश्यकता थी। चोरी से प्राप्त किये हुए हर सन्देश पर कार्रवाई करना यदि ब्रिटन शुरू कर देता, तो जर्मन गुप्तचरों को यह निश्चित रूप से पता चल जाता कि हमारे गुप्त सन्देश शत्रु के हाथ लग रहे हैं और शायद वे अपनी सन्देशवहनयन्त्रणा को ही बदल देतें। इसी कारण, जर्मनी को ऐसा कोई शक़ ही ना हो, इस तरह से अगली चालें चलने का ब्रिटन ने तय किया। कई बार भविष्य में दिखायी देनेवाले किसी बड़े फ़ायदे के लिए छोटे फ़ायदों का त्याग करना ही मुनासिब रहता है। ब्रिटन ने भी वही किया और रशिया को सुभाषबाबू को ट्रान्झिट वीज़ा देने के लिए कहा।

इस चाल को चलकर हमने बहुत बड़ा तीर मार दिया है, ऐसी ब्रिटन की धारणा थी; लेकिन यह चाल मानो विधाता की योजना के अनुसार ही ब्रिटन द्वारा खेली गयी थी, क्योंकि यही चाल आगे चलकर ब्रिटन के लिए महँगी साबित होनेवाली थी!

एक बार ब्रिटन से अनुमति प्राप्त हो जाने के बाद मार्च के पहिले सप्ताह में, सुभाषबाबू को कुरियर के पासपोर्ट पर वीज़ा देने के लिए हम तैयार हैं, ऐसा रशिया ने अक्षराष्ट्रों से कहा।

इस क़ाम के लिए इटालियन विदेशमन्त्रालय का एक कर्मचारी ‘ओरलेन्दो मेझोता’ यह कुरियर की भूमिका अदा करनेवाला था। सुभाषबाबू के, साधारणतः सिसिलियन आदमी की तरह दिखनेवाले चेहरे से इसका चेहरा लगभग मिलताजुलता रहने के कारण, इस सिसिलियन आदमी को इस काम के लिए चुना गया था। इस आदमी का काबूल स्थित इटालियन एम्बसी में ‘पोस्टिंग’ किया गया। उसके काबूल आ जाने के बाद, उसके पासपोर्ट पर लगी हुई उसकी फ़ोटो निकालकर उसकी जगह सुभाषबाबू की फ़ोटो लगायी जानेवाली थी।

‘ओरलेन्दो मेझोता’ को उस समय शायद इस बात का पता भी नहीं होगा कि अगले २-३ साल एक भारतीय व्यक्ति द्वारा उसके नाम का इस्तेमाल किया जाने के कारण आगे चलकर उसका भी नाम भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम के इतिहास में अजरामर होनेवाला है!

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