नेताजी- १३३

अब इसके बाद सरहद स्थित पहाड़ी टोलियों के प्रदेश में ‘भगतराम तलवार’ मेरे साथ जायेगा, यह सुनकर सुभाषबाबू ने मियाँसाहब की ओर प्रश्‍नसूचक नज़रिये से देखा। शुरुआत में मियाँसाहब जब कोलकाता आये थे, तब उनके मुँह से ‘भगतराम तलवार’ यह नाम पहली बार सुनते ही यह कोई तगड़ा, हट्टाकट्टा मनुष्य रहेगा, ऐसी उनकी धारणा बन चुकी थी। लेकिन भगतराम से हुई प्रत्यक्ष मुलाक़ात में वे अचम्भित हो गये। ऐसे मामूली कद का, नाज़ूक प्रतीत होनेवाला भगतराम क्या इस ज़ोख़म भरे क़ाम को क़ामयाबी से पूरा कर पायेगा, यह सवाल उनकी नज़रों में था। उसपर मियाँसाहब ने ‘भगतराम के बारे में कोई चिन्ता ही मत कीजिए। दिखने में भले ही वह मामूली दिखायी दे रहा हो, लेकिन हक़ीक़त में वह बड़ा ही कष्टसहिष्णु, संवेदनशील और होशियार है। उसका सारा घराना ही देशभक्ति से ओतप्रोत भरा हुआ है। साथ ही, स्वयं भगतराम तो देशभक्ति जीतीजागती तलवार ही है’ यह यक़ीन दिलाया, तब जाकर सुभाषबाबू को तसल्ली हुई।

भगतराम

सुभाषबाबू के मानो भक्त ही रहनेवाले भगतराम को, सुभाषबाबू के साथ रहने का अवसर मिल रहा है, इस सोच से इतनी खुशी हुई थी कि उस जोश में ही फ़टा़फ़ट पठानी टोलीवाले का भेस पहनकर वह अब ‘रहमतखान’ बन गया; वहीं, सुभाषबाबू काबूल जाने के रास्ते में रहनेवाले ‘आदा शरी़फ़’ दरग़ाह के दर्शन करने चले उसके मूकबधीर बड़े भाई ‘मोहंमद झियाउद्दिन’ बननेवाले थे!

उसके बाद उन सबने विचारविमर्श करके काबूल तक का स़फ़र किस रास्ते से करना है, यह निश्चित किया। हमेशा के आवाजाही वाले रास्ते पर लोगों की का़फ़ी चहलपहल रहती थी। साथ ही, गत कुछ दिनों में उस क्षेत्र में पुलीस द्वारा छापे मारे जाने की ख़बरें भी आ रही थीं। इसीलिए उन्होंने उस रास्ते से जाने के बजाय जामरोद-खजुरी मैदान-गरहादी-बारीकोट-जलालाबाद-आदा शरीफ़ और वहाँ से काबूल इस रास्ते से जाना तय किया। हालाँकि यह बड़ा फ़ासला तय करना तो ज़रूर था, लेकिन उसके सिवाय कोई चारा भी तो नहीं था। हमेशावाले रास्ते की अपेक्षा इस मार्ग पर ख़तरा भी कम था।

२१ तारीख़ को सुबह सा़ढ़े-छः बजे निकलना तय हुआ था। भगतराम उमँग के साथ जल्दी उठकर पौने-छः बजे ही हाज़िर हो गया। मियाँसाहब को एक तऱफ़ अपने प्रिय नेता के दो दिन के साथ की समाप्ति होने का गहरा दुख था, वहीं दूसरी तऱफ़, अब इसके बाद के उनके स़फ़र में मैं नहीं रहूँगा, यह ग़म भी उनको सता रहा था। लेकिन सुभाषबाबू के ही नक़्शे-क़दम पर चलनेवाले रहने के कारण उन्होंने भी फ़र्ज़ को सर्वोच्च प्रधानता देते हुए दिल पर पत्थर रखकर सुभाषबाबू को प्रेम से ‘बिदा’ किया। स़फ़र में खाने के लिए उनके साथ उबाले हुए अण्ड़े और पराठे का़फ़ी संख्या में प्रेमपूर्वक दिये गये थे। साथ ही मियाँसाहब ने सुभाषबाबू के लिए प्रायः आवश्यक रहनेवाली दवाइयाँ भी बड़ी मेहनत से कहीं से प्राप्त कर सुभाषबाबू के हवाले कर दीं।

सरहद इला़के की ख़ास पठानी मेहमाननवाज़ी का नमूना ही सुभाषबाबू को का़फ़ी क़रीब से देखने मिल रहा था। ‘भारतमाता को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद करना’ इस एकमात्र मंज़िल तक पहुँचने का जुनून जिनके सिर पर सवार था और जिस किसी के भी सिर पर यह जुनून सवार है, वह चाहे किसी भी जातिधर्म का क्यों न हो, लेकिन वो ही ‘मेरा’ है, यह मन की पक्की धारणा रहनेवाले; विदेशी मुल्क़ के उन ‘ना तो सगेसंबंधी और ना ही पहचान के’ लोगों की उस मेहमाननवाज़ी को देखकर सुभाषबाबू का दिल भर आया। लेकिन अब हर पल कसौटीभरा होने के कारण वे मन को क़ाबू में करके आगे बढ़े। जहाँ तक पक्की सड़क बनी थी, वहाँ तक जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था भी की गयी थी और वहाँ तक अबदखान भी उनके साथ रहनेवाले थे।

मियाँसाहब से विदा लेकर गाड़ी जामरोद की ओर आगे बढ़ी। रास्ते में जाँच-चौक़ियाँ आ रही थीं। अबदखान गाड़ी से उतरकर चौक़ी की चोपड़ी में नाम दर्ज़ कर आता था। एकाद-दो जगह गाड़ी के पास आकर गाड़ी के सभी से पूछताछ भी की गयी। लेकिन जैसा कि भगतराम ने पहले से ही तय किया था, उसके अनुसार ‘ये मेरे मूकबधीर बड़े भाई हैं और मैं उन्हें ‘आदा शरी़फ़’ दरग़ाह की यात्रा कराने ले जा रहा हूँ’ यह बताया जा रहा था। लूज़ सलवार, क़मीज़, चमड़े का जाक़ीट, सिर पर काबूली फ़ेटा, पेशावरी जूतें और कन्धे पर पठानी टोलीवालों जैसा ब्लँकेट; इस भेस में सुभाषबाबू हूबहू टोलीवाले पठान ही लग रहे थे। इसीलिए जाँच-चौकी की पुलीस को किसी भी प्रकार का शक़ न होने के कारण उनकी गाड़ी को आगे बढ़ने दिया जा रहा था।

वहाँ से खज़ुरी मैदान के पास गाड़ी आ गयी। वहाँ पर अँग्रेज़ फ़ौज की बहुत बड़ी छावनी थी। खजुरी मैदान के बाद शिनवारी टोलीवालों का इलाक़ा था। वहाँ के रीतिरिवाज़ के अनुसार वहाँ के मशहूर दरग़ाह में दर्शन करके वे तीनों आगे बढ़े। इसके बाद अब पहाड़ी इलाक़ा शुरू हो रहा था। इसीलिए गाड़ी लेकर अबदखान लौट गया। अब सुभाषबाबू और भगतराम दोनों ही रह गये। भगतराम ने अगले पहाड़ी इला़के में रास्ता बताने के लिए वहीं के एक स्थानीय राहगर को साथ ले लिया। अब राहगर आगे और उसके पीछे कुछ ही दूरी पर ये दोनों, इस तरह उनका का़फ़िला पैदल ही कच्चे रास्ते पर से आगे बढ़ रहा था। अब ढलवा चट्टानों में से आगे बढ़ना था। उस वीरान इला़के में दूर-दूर तक पेड़-पौधे भी दिखायी नहीं दे रहे थे। यदि कहीं कुछ दिखायी दे रहा था, तो वह कोई काँटोवाला पौधा ही रहता था। बाक़ी चारों तऱङ्ग पत्थर-मिट्टी के बस रूखे टीले ही थे। उस रूक्षता के कारण गला सूखकर थक जाने से सुभाषबाबू बीच बीच में नीचे बैठ जाते थे और भगतराम से ‘रहमतखान, भारत की सरहद हम पार कर चुके हैं या नहीं?’ यह पूछते थे। उनके उस मासूम सवाल को ‘ना’ कहने में भगतराम को का़फ़ी कठिनाई पेश आ रही थी। लेकिन ‘भारत की सरहद के ख़त्म होने में अब भी का़फ़ी देर है’ यह जवाब सुनकर फ़िर से उनके शरीर में नयी चेतना भर जाती थी और थोड़ा-सा पानी पीकर वे अगली मार्गक्रमणा करना शुरू कर देते थे।

इसी दौरान गत कुछ दिनों से उस इला़के में रात की ब़र्फ़बारी होने के कारण रास्त फ़िसलनभरा हो चुका था। इसीलिए तेज़ी से चलना भी संभव नहीं था। थक चुके सुभाषबाबू ने ‘क्या यहाँ पर थोड़ी देर के लिए हम आराम कर लें?’ यह पूछते ही भगतराम ने ‘नहीं, यहाँ नहीं, थोड़ी देर बाद विश्राम करते हैं’ यह कहा। अँग्रेज़ फ़ौजी छावनी की सीमा अब तक पार नहीं की गयी थी।

का़फ़ी देर तक चलने के बाद भगतराम रुक गया। उसने ‘अब हम भारत की सरहद को लाँघकर अ़फ़गाणिस्तान की सीमा में दाखिल हो चुके हैं’ यह सुभाषबाबू से कहा।

सुभाषबाबू के मन में भावों का सैलाब-सा बहने लगा। ‘जिसके लिए उन्होंने अपरंपार परिश्रम किये थे’, वह उनके ध्येय की पहली महत्त्वपूर्ण सीढ़ी थी, अँग्रेज़ सरकार की ‘पहुँच’ के बाहर जाना, जिसे वे अब हासिल कर चुके थे। इसके बाद मुझे भारतमाता के दर्शन होंगे भी या नहीं, इस आशंका के मन पर छा जाते ही उन्होंने मुड़कर एक बार जी भरकर भारतमाता को देख लिया और उस दृश्य को मन में जतन कर रखने के लिए अपनी आँखें मूँद लीं। मन ही मन ‘वन्दे मातरम्’ का नारा लगाकर वे अपनी जान से भी प्यारी भारतमाता से अलविदा कहकर अगले स़फ़र के लिए रवाना हो गये।

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