नेताजी- १३२

धनबाद के नज़दीक के गोमोह स्टेशन पर सुभाषबाबू को अलविदा करके और वे ‘दिल्ली-कालका मेल’ में चढ़ गये हैं यह देखने के बाद शिशिर, अशोकनाथ और उसकी पत्नी दिल पर पत्थर रखकर घर की ओर रवाना हुए। गाड़ी में सभी चूप थे। लेकिन घर पहुँचने पर सोते समय शिशिर और अशोकनाथ देर रात तक ‘रंगाकाकाबाबू’ की यादें ताज़ा कर रहे थे।

सुभाषबाबू को अलविदा

सुबह उठकर शिशिर वापस कोलकाता जाने के लिए निकला और वह शाम को कोलकाता पहुँच गया। बराड़ी से कोई समाचार नहीं आया था, अतः शरदबाबू बेसब्री से शिशिर की राह देख रहे थे। तक़रीबन ५०० मील की का़फ़ी लम्बी दूरी तय करके शिशिर हालाँकि बहुत थक गया था, लेकिन उसका चेहरा देखकर शरदबाबू को जो समझना था, वह वे समझ गये। फ़िर भी पक्की ख़बर पाने के के लिए उन्होंने शिशिर से सांकेतिक भाषा में – ‘अब कैसी है भाभी की तबियत?’ ऐसा कॅज्युअली पूछा। उसपर ‘एकदम बढ़िया’ ऐसा जवाब शिशिर द्वारा दिया जाने के बाद, मुहिम क़ामयाब हो गयी है, यह उन्होंने जान लिया।

संजोगवश उसी दिन देशबन्धु की नातीन की शादी थी। कुछ दिन पहले वासन्तीदेवी ने खुद आकर बोस परिवार को न्योता दिया था। इसलिए शरदबाबू को शाम को वहाँ जाना था। हालाँकि शिशिर बहुत थक गया था, मग़र फ़िर भी शरदबाबू ने आग्रह किया कि वह उनके साथ शादी में चलें। इस मुहिम के त़फ़सील के बारे में जानने के लिए वे आतुर हुए थे। अतः थोड़ा विश्राम कर शिशिर शरदबाबू के साथ शादी में गया। अब सुभाषबाबू ने एकान्त में जाप-अनुष्ठान, व्रत आदि शुरू किये हैं, इस बात को समूचा कोलकाता ‘जान’ गया था। इसलिए शादी में आया हर शक़्स शरदबाबू के पास सुभाषबाबू के बारे में ही पूछताछ कर रहा था। उसपर ‘बस अब आठ-दस दिनों में उसका व्रतकाल ख़त्म होने ही वाला है’ ऐसा जवाब शरदबाबू दे रहे थे।

यहाँ एल्गिन रोड़ स्थित घर में उससे पूर्व के दिन से ही यानि १७ तारीख से ही सुभाषबाबू ने भतीजों से रटाया हुआ नाटक शुरू हो चुका था। पहले जैसे ही, निर्धारित समय पर सुभाषबाबू के स्नान के वस्त्र पर्दे के बाहर रखे जाते थे। कमरे से बाहर के पॅसेज से गुज़रनेवाले को भीतर से स्नान करने की, बीच बीच में खाँसने की आवाज़ें सुनायी देती थीं। उनके निर्धारित समय पर उन्हें चाय दी जाती थी, दोपहर तथा रात के खाने की थालियाँ पर्दे के बाहर रखी जाती थीं। कुछ समय बाद खाली प्याले, खाली थालियाँ बाहर लायी जाती थीं। साथ ही, इला और अरविन्द, सुभाषबाबू द्वारा अपने विभिन्न दोस्तों तथा सहकर्मियों के नाम से उनके पास पहले से ही दे रखे ‘पोस्ट-डेटेड’ खतों को नियोजित दिन पर डाक के बक़्से में डालने का काम बड़ी अचूकता से कर रहे थे। साथ ही, जिन्होने पहले मिलने का दिन तय करके, स्वयं के आने की इत्तिला सुभाषबाबू को ख़त भेजकर की थी, उनके नाम से भी ‘क्षमा कीजिए, इस मैं आपसे नहीं मिल सकता’ यह लिखी हुईं चिठ्ठियाँ भी सुभाषबाबू ने पहले से ही तैयार कर रखी थीं। उस व्यक्ति के आते ही उसे प्रतीक्षा कक्ष में बिठाया जाता था और इला या अरविन्द उसके आने की इत्तिला सुभाषबाबू को करने के लिए उनके कमरे में जाते थे और थोड़ी देर बाद उनके नाम की चिठ्ठी लेकर बाहर आ जाते थे।

डाक द्वारा भेजे गये खतों को पकड़कर, खोलकर उन्हें पढ़ने के बाद ही गुप्तचर उन्हें आगे जाने देते थे और ‘किस क़दर हम सुभाषबाबू पर कड़ी नज़र रखे हुए हैं’ इस तरह के ख़याली पुलाव पकाकर खुश होते थे।

वहीं, १७ तारीख़ की रात को गोमोह स्टेशन पर ट्रेन में सवार हुए सुभाषबाबू १९ तारीख़ को दिल्ली पहुँच गये। दिल्ली से आगे पेशावर जाने के लिए उन्हें ‘फ़्रॉंटियर मेल’ पकड़नी थी। एहतियाती तौर पर सुभाषबाबू एक स्टेशन पहले ही उतर गये और तांगे के द्वारा दिल्ली स्टेशन पहुँच गये। ट्रेन छूटने का समय था, रात के ठीक दस बजे। इसीलिए ट्रेन के ठीक आने के समय ही दिल्ली स्टेशन जाकर उन्होंने गाड़ी में कदम रखा। पेशावर कँटोनमेंट स्टेशन तक उन्हें जाना था। उनके आने की तारीख़ और समय के बारे में मियाँ अकबरशाह को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में इत्तिला कर दी गयी थी। इसीलिए वे – महंमद शाह और भगतराम तलवार इन दो सहकर्मियों के साथ चुपचाप सुरक्षित जगह खड़े रहकर ट्रेन के आने का इन्तज़ार कर रहे थे।

‘फ़्रॉंटियर मेल’ धड़धड़ आवाज़ करते हुए स्टेशन आ पहुँची। कूली, फ़ेरीवाले इन सबकी भीड़ उमड़ पड़ी। चारों तऱफ़ लोगों का ताँता लगा हुआ था। अब इतनी भीड़ में दूर से सभी एक जैसे दिखायी दे रहे थे। उनमें से सुभाषबाबू को पहचानना यह घास के ढेर में सुई ढूँढ़ने जैसा था। धीरे धीरे स्टेशन खाली होने लगा। इतने में पठानी भेस पहने हुए ऊँची कद वाले, गोरे रंग के एक व्यक्ति को मियाँसाहब ने देखा और सुभाषबाबू के मानो भक्त ही रहनेवाले मियाँसाहब ने उन्हें फ़ौरन पहचान लिया।

उस भीड़ में चुपचाप सुभाषबाबू से, ‘आपके ठहरने की व्यवस्था ‘ताजमहल’ होटल में की गयी है’ यह कहकर मियाँसाहब अपने सहकर्मियों के साथ वहाँ से निकल गये। सुभाषबाबू तांगा पकड़कर ताजमहल होटल आ गये। मियाँसाहब फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के सरहद इला़के के संगठक कार्यकर्ता रहने के कारण उनपर भी पुलीस की कड़ी नज़र थी। इसीलिए होटल में सुभाषबाबू की ख़ातिरदारी करने की ज़िम्मेदारी उन्होंने अपने एक विश्‍वसनीय सहकर्मी को सौंपी थी।

एक रात होटल में बिताने के बाद दूसरे दिन मियाँसाहब ने सुभाषबाबू को अबदखान नाम के अपने एक विश्‍वसनीय सहकर्मी के घर ठहराया। वहाँ सुभाषबाबू, मियाँसाहब, महंमद शाह, अबदखान और भगतराम इनकी अगली कृतियोजना के बारे में चर्चा शुरू हो गयी। २६ तारीख़ को, मैं घर में नहीं हूँ, यह खुलासा हो जाते ही, अँग्रेज़ सरकार शिकारी कुत्तों की तरह अपनी यन्त्रणा को मेरे पीछे लगा देगी, यह जानने के कारण सुभाषबाबू ने उससे पहले ही किसी भी हालत में पहाड़ी सरहद इला़के को पार करके रशिया की सीमा के भीतर प्रवेश करने का तय किया था। उस दृष्टि से क्या किया जा सकता है, यह वे सोच रहे थे।

साथ ही, उन चारों ने सुभाषबाबू को पठानी इला़के के तौरतरी़के, रीतिरिवाज़ (एटिकेट्स) सिखाना शुरू कर दिया था। हालाँकि सुभाषबाबू की पोशाक़ तो पठानी ही थी, लेकिन वह शहरी ढंग की थी और शायद उस पहाड़ी इला़के में यह फ़र्क सा़फ़ सा़फ़ दिखायी देता। तब मियाँसाहब ने अपने एक ख़ास दर्ज़ी से एक रात में पठानी गिरोह की पद्धति की लूज़ पोशाक सिलवायी।

पठानी इला़के के रीतिरिवाज़ सीखने के बावजूद भी प्रमुख अड़चन भाषा की थी। उसपर भी मियाँसाहब ने तरक़ीब खोज निकाली। उन्होंने सुभाषबाबू को मूकबधिर होने का स्वांग रचने के लिए कहा।

सुभाषबाबू के साथ रहबर (गाईड़) के रूप में कौन जायेगा, इसपर चर्चा शुरू हुई। मियाँसाहब को पहचाननेवाले कई लोग उस इला़के में थे; इसलिए उनका जाना तो नामुमक़िन था। अत एव महंमदशाह या भगतराम यह सवाल सामने आ गया।

मियाँसाहब ने इस काम के लिए भगतराम को चुना और उसने भी अपनी ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया।

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