नेताजी-१२८

मिया अक़बर शाह और शिशिर द्वारा लाया गया वह पठानी पोषाक़ एक रात सुभाषबाबू ने पहनकर देखा। आईने में देखकर वे स्वयं ही खुश हो गये। इससे तो अब पुलीस को बिलकुल शक़ नहीं होगा, यह विचार उनके मन में आया। सारी सिद्धता हो चुकी थी। अब वे ‘उस’ दिन की राह देखने लगे। साथ ही, घर से उनके ग़ायब होने के बारे में पुलीस को जितनी देरी से पता लग सके उतना अच्छा साबित होगा, यह जानकर वे उस दिशा में सोचने लगे।

सुभाषबाबू

सन १९४१ का जनवरी महीना जैसे जैसे आगे बढ़ने लगा, वैसे वैसे उन्होंने लोगों से मिलनाजुलना कम किया। अब उनका कुछ अलग ही दिनक्रम शुरू हुआ। अब कमरे के बाहर निकलना भी उन्होंने बन्द कर दिया। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने कमरे में एक पर्दा भी लगा लिया। कोई मुझे परेशान न करें, स्नान के वस्त्र, भोजन की थाली भी पर्दे के बाहर ही रखे जायें, ऐसा उन्होंने परिवारजनों से कह दिया। यदि किसी को कुछ पूछना हो, तो इला, अरविन्द या फ़िर द्विजेन्द्रनाथ के ज़रिये पूछें, यह बात भी उन्होंने बतायी। अब उनके कमरे में घर के नौकरों को भी प्रवेश नहीं था। इस योजना में सहभागी हुए भतीजों के अलावा केवल शरदबाबू, विभाभाभी इन्हें ही उनसे मिलने की इजाज़त थी। शिशिर, इला, अरविन्द तथा द्विजेन्द्रनाथ उन्हें काम के अनुसार कभी अलग अलग, तो कभी एकसाथ मिलते थे, उनपर सौंपे गये कामों का ताज़ा ब्योरा उन्हें देते, अगली सूचनाएँ उनसे लेतें।

यह कर क्या रहा है सुभाष, यह सोचकर माँ-जननी परेशान होती थीं। उन्होंने उस बारे में सुभाषबाबू से छेड़छाड़ करने के बाद, ‘मेरा मन अब इन सारी बातों से ऊब चुका होने के कारण १७ तारीख से मैं मनःशान्ति के लिए कठोर उपासनाओं की शुरुआत करने जा रहा हूँ’ ऐसा जवाब उन्होंने दिया। ‘अतः अब मुझे एकान्त की ज़रूरत होने के कारण कुछ दिनों तक, माँ, तुम भी मुझे अकेला छोड़ दो’, ऐसा उन्होंने माँ से कहा। माँ को ही ऐसी सूचना सुनायी जाने के बाद घर के बाक़ी सदस्यों को अलग से बताने की ज़रूरत नहीं रही। जिन भतीजों को इस योजना के बारे में मालूम था, उन्हें – ‘मेरे जाने के बाद भी कुछ दिनों तक यह सिलसिला तुम जारी रखना’ ऐसी सूचनाएँ उन्होंने दी थीं।

साथ ही, अगले कुछ दिनों में उनसे कौन कौन मिलने आ रहा है, इसकी भी लिस्ट उन्होंने तैयार की और उनके लिए ‘मा़फ़ कीजिए, इस वक़्त मैं आपसे नहीं मिल सकता’ इस आशय की चिठ्ठियाँ लिखकर उन्होंने इला-अरविन्द को सौंप दी। इसके अलावा, अगली तारीख़ें लिखे हुए (‘पोस्ट डेटेड’) ख़तों की एक गड्डी भी सुभाषबाबू ने उन्हें दे दीं। उनके एन्व्हलप्स् नाम, पते, स्टॅम्प्स आदिसहित तैयार थे। कामथ, एन.जी. रंगा, डॉ. धर्मवीर आदि अपने विभिन्न इष्टमित्रों के नाम उन्होंने लिखे हुए इन खतों में से कौनसा ख़त किस दिन पोस्ट करना है, यह उन्होंने भतीजों को समझा दिया था। उनका पत्रव्यवहार सरकारी गुप्तचर खोलकर पढ़ते हैं, यह वे जानते थे। अतः इस तरह नियमित रूप से उनके ख़त पुलीस की नज़र में आते रहने से पुलीस को शक़ होने की कोई गुंजाईश ही रहनेवाली नहीं थी।

लेकिन यदि २७ तारीख़ को सुभाषबाबू कोर्ट में हाज़िर नहीं हो जाते हैं और यदि न्यायमूर्ति द्वारा पूछे जाने पर उनके परिवारजन उनके घर से ग़ायब होने की बात न्यायमूर्ति से कहते हैं, तो बड़ा ही ग़ज़ब हो जायेगा; और सुभाषबाबू के घर से ग़ायब होने की बात उनके परिवारजन पहले से ही जानते थे, यह सुभाषबाबू ने जान लिया था। अतः यह नाटक अच्छी तरह रंग लाने के लिए २७ तारीख़ से एक-दो दिन पहले ही ‘सुभाषबाबू घर से ग़ायब हो गये हैं’ ऐसी हायतोबा घरवालें ही मचायेंगे, ऐसा उन्होंने शरदबाबू के साथ मन्त्रणा करने के बाद तय किया था। ऐन वक़्त पर कुछ उल्टी-सीधी बात न हों, इसलिए यह होहल्ला किस तरह मचाना है, किसके द्वारा मचाना है और कौनसी तारीख़ को मचाना है, इसके बारे में भी बारीक़ी से सूचनाएँ उन्होंने दी थीं।

इससे पहले कि सुभाषबाबू अपनी उपासना को शुरू करें, उन्हें पारंपरिक बंगाली पद्धति का बढ़िया भोजन खिलाऊँ, यह विचार माँ के मन में आया। सुभाषबाबू भी उसके लिए राज़ी हो गये। १६ तारीख को दोपहर से ही लगभग पूरा बोस परिवार एल्गिन हाऊस में इकट्ठा होने लगा। सुभाषबाबू ने भी ख़ास सिल्क की बनी धोती, ढ़ीला सा कुर्ता, कन्धे पे उत्तरीय ऐसा सम्पूर्ण खानदानी बंगाली पोषाक़ पहना था। पंगत में माँ उनके पास ही बैठकर उन्हें बड़े प्यार से खिला रही थीं। भव्य माथा, सामनेवाले को बेधनेवालीं आँखें, बढ़ी हुईं दाढ़ी-मूँछें, माथे पर तिलक और यह बंगाली पारंपरिक पोषाक़ इनके कारण वे किसी योगी की तरह ही प्रतीत हो रहे थे। माँ तो बस उन्हें निहारती ही जा रही थी। ऊपर से शान्त, धीरगम्भीर लग रहे सुभाषबाबू का मन, उम्र के ७० साल पार कर चुकीं अपनी कृश माता को देखकर तितरबितर हो गया; सबकुछ छोड़के उनसे लिपटकर रो पडूँ, उन्हें अपनी योजना का हमराज़ बनाकर सबकुछ बता दूँ, ऐसी चाह उन्हें हो रही थी। उनकी विश्‍वासपात्रता के बारे में तो उन्हें रत्ती भर भी सन्देह नहीं था; लेकिन उनके बारे में हमेशा ही किसी न किसी आघात को ही सह चुकीं और पति की छत्रछाया खो चुकी अपनी वृद्ध माँ की, पुत्र के वियोग की कल्पना से क्या प्रतिक्रिया होगी, इसका अन्दाज़ा न होने के कारण सुभाषबाबू ने उस मोह को वहीं त्याग दिया।

पंगत में हालाँकि हँसी-मज़ाक ज़ोरों के साथ चल रहा था, लेकिन इस योजना की जानकारी रहनेवाले सदस्य, सुभाषबाबू के वियोग की कल्पना से भीतर से उदास थे। जब शरदबाबू को सुभाषबाबू ने इस योजना के बारे में बताया था, तब उनके द्वारा पूछे गये ‘वापस कब मुलाक़ात होगी’ इस प्रश्‍न का सुभाषबाबू ने – ‘बता नहीं सकता, शायद बीस साल भी लग सकते हैं, शायद….’ ऐसा जवाब दिया था और उसे सुनकर शरदबाबू का मन तब से अन्दर ही अन्दर फ़ूटफ़ूटकर रो रहा था।

सुभाषबाबू की हालत भी कुछ वैसी ही थी। ‘क्या यह मेरा माँ के साथ आख़िरी भोजन तो नहीं? क्या हालत होगी उसकी मेरे जाने के बाद? क्या वह इस सदमे को बर्दाश्त कर सकेगी?’ इस विचार से भोजन का एक निवाला भी उनके गले से नहीं उतर रहा था। उन्हें डर था कि कहीं मेरे सब्र का बाँध टूट तो नहीं जायेगा। का़फ़ी मुश्किल से उन्होंने अपने आप को सँभालकर खाना ख़त्म किया।

भोजन के बाद बड़े निग्रहपूर्वक सुभाषबाबू ने अपने आप को सँभालते हुए, कल से कोई भी उन्हें परेशान न करें, इस बारे में अपने परिवारजनों से दृढ़तापूर्वक कहा। दोस्त, आप्त, रिश्तेदार, सहकर्मी, नेता, यहाँ तक कि कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता भी यदि मिलने आये, तो ‘सुभाषबाबू नहीं मिलेंगे’ ऐसा उसे कहना, ऐसी सूचनाएँ देकर सुभाषबाबू अपने कमरे में गये। अन्य लोग भी सोने के लिए अपने अपने कमरे में गये।

….और ‘वह’ गुरुवार १६ जनवरी, १९४१ का तूफ़ानी दिन मध्यरात्रि की ओर बढ़ने लगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published.