नेताजी- १२३

‘विदेशगमन की मेरी कोई योजना नहीं है’ इसपर सरकार को यक़ीन हो जाये, इसलिए स्वयं ही कारावास को स्वीकार करनेवाले सुभाषबाबू अब दिनबदिन मायूस होते जा रहे थे। ‘हॉलवेल स्मारक’विरोधी आन्दोलन के सन्दर्भ में गिऱफ़्तार किये गये बाक़ी के राजबन्दियों को हालाँकि रिहा कर दिया गया था, मग़र तब भी सुभाषबाबू को रिहा करने में सरकार ज़रासी भी उत्सुकता नहीं दिखा रही थी।

इसी दौरान सुभाषबाबू की बीमारी ने फ़िर से ज़ोर पकड़ लिया था। बीतनेवाला हर दिन सुभाषबाबू की उदासी को और भी बढ़ा रहा था। बीच बीच में, युद्ध में इंग्लैंड़ के पीछे हटने की ख़बरें आ रही थीं, जिससे कि उनकी व्याकुलता और भी बढ़ रही थी। ऐसे वक़्त स्व-ईप्सित को साध्य करने के लिए दरअसल मुझे बाहर रहना चाहिए था। किसी आन्दोलन की तैयारी करते हुए पकड़े जाना, यह कोई बड़ा गुनाह तो नहीं था। अत एव कुछ ही दिनों में मुझे रिहा कर दिया जायेगा, इस अनुमान के साथ उन्होंने यह ‘कॅलक्युलेटेड रिस्क’ उठायी थी। लेकिन उनका अनुमान सच साबित नहीं हुआ। इस आन्दोलन के सन्दर्भ में गिऱफ़्तार किये गये उनके लगभग सभी सहकर्मियों को रिहा कर दिया गया था, लेकिन उन्हें रिहा नहीं किया जा रहा था। बिगड़ते हुए स्वास्थ्य के बारे में बार बार जानकारी देते हुए सरकार के पास रिहाई के लिए कई अर्ज़ियाँ दाखिल की गयी थीं। मग़र इसके बावजूद भी सरकार ने उनकी एक भी न सुनने की ठान ली थी और इस वजह से उनकी वे कोशिशें नाक़ाम साबित हुईं। कब टूटेगीं ये ज़ंजीरें? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कभीकभार किसी दोस्त के पते पर भेजा गया एमिली का ख़त आता था। वही उनके उस तपतपाते स़फ़र का साया था। वे बार बार उसे पढ़ते थे और उसे सीने से लगाकर घण्टों तक बैठे रहते थे।

इसी दौरान एक दिन शरदबाबू सेन्ट्रल असेंब्ली के खाली हो चुके एक पद के लिए नामांकनपत्र ले आये और उन्होंने उसपर सुभाषबाबू के दस्तख़त लिए। बदलते राजकीय हालात में, मुझे काँग्रेस का नामधारी सदस्य रखने के बाद ‘कौन कितने पानी में’ है, यह भी वे जाँचना चाहते थे और मेरे ख़िला़फ़ किसे खड़ा किया जाता है, यह उत्सुकता भी उनके मन में थी। लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ और सुभाषबाबू अविरोध चुनकर आए। दुख भरे दिनों में बस वही एक अच्छी ख़बर थी।

बीमारी के कारण उन्हें घर का खाना खाने की अनुमति दी गयी थी। साथ ही बीच बीच में वे कुछ ग्रन्थ मँगाकर पढ़ते थे। अब उन्होंने मशहूर बंगाली लेखक सर जदुनाथ सरकार द्वारा लिखित छत्रपति शिवाजी महाराज का चरित्र मँगवाया था। उसमें ‘आग्रा से रिहाई’ इस प्रकरण के उन्होंने कई पारायण किये। औरंगज़ेब की कैद से महाराज ने जिस कुशलता से स्वयं को रिहा करवाया था, उस रोमहर्षक प्रसंग को बार बार पढ़ते हुए पहले से ही शिवाजी महाराज के प्रति उनके मन में रहनेवाली सम्मान की भावना सौ गुना बढ़ जाती थी। जेल से रिहा होने का मार्ग उनका मन खोजने लगता था। सारा देश ही अब एक जेल बन चुका होने के कारण देश के बाहर जाकर स्वतन्त्रता की जंग लड़ने का निर्धार वे कर चुके थे। गत महीने में ही, वे जब मुंबई गये थे, तब स्वातन्त्र्यवीर सावरकरजी के साथ उनकी मुलाक़ात हुई थी। उस समय, दुनियाभर के भारतीय क्रान्तिकारियों के निरन्तर संपर्क में रहनेवाले सावरकरजी ने भी सुभाषबाबू को यही सलाह दी थी – ‘यहाँ रहकर कुछ करना आपके लिए बहुत ही मुश्किल है, इससे बेहतर है कि आप देश के बाहर जाकर अगली लड़ाई लड़िए। इस महायुद्ध के रूप में भारत को एक बेहतरीन अवसर मिला है, जिसे गँवाना मुनासिब नहीं है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए हर संभव सहायता लेनी चाहिए। इस सन्दर्भ में जापानस्थित रासबिहारी बोसजी आपकी सहायता कर सकते हैं।’ इस मुलाक़ात ने उनके मन में गतिमान हो चुके विचारचक्र पर मानो मुहर ही लगा दी और अब देश के बाहर जाने का उनका फ़ैसला दृढ़ हो गया। लेकिन हक़ीकत में देश के बाहर तो क्या, जेल के बार निकलना भी नामुमक़िन सा लग रहा था, ऐसे हालात बन चुके थे।

ताकतवर दुश्मन के साथ टक्कर लेते हुए कई बार बल की अपेक्षा कूटनीति ही उपयोगी साबित होती है, यह शिवाजी महाराज द्वारा अपनाया गया तत्त्व उनके हृदय की गहराई में जाकर बस रहा था।

उन्होंने उसी हथखंडे का इस्तेमाल करने का निश्‍चय किया।

क्योंकि महायुद्ध के ख़त्म हो जाने तक उन्हें जेल में ही फ़ॅंसाये रखने का सरकार का विचार है, यह जानकारी उन्हें उनकी संपर्कयन्त्रणा द्वारा मिल चुकी थी और बाहर दुनिया के रंगमंच पर इतनी बड़ी उलथपुलथ के चलते, जेल में इस तरह सड़ते रहना उन्हें कदापि मंज़ूर नहीं था। इसलिए तो वे यक़ीनन ही जेल में नहीं आये थे। अत एव उनके मूल इन्क़िलाबी मिजाज़ ने किसी भी क़ीमत पर जेल से रिहा होने का निर्धार कर लिया।.

मेरे बिगड़ते हुए स्वास्थ्य के बारे में जानने के बावजूद भी यदि सरकार मुझे रिहा नहीं करेगी, तो मौत ही मुझे इससे छुटकारा दिलायेगी, यह घोषित करके उन्होंने आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह सुभाषबाबू का महज़ एक स्टंट है, यह सोचनेवाली सरकार ने शुरुआत में झूठा रोब जमाते हुए, ‘जतीन दास का क्या हुआ यह आप जानते हैं ना? आपका भी वही अंजाम होगा। आपकी खोखली धमकियों से हम डरनेवाले नहीं हैं; यह संदेश सुभाषबाबू को भेज दिया। लेकिन जब दिनबदिन उनका वज़न तेज़ी से घटने लगा, तब जेलर भी चिन्ता में पड़ गये। उनके मन में सुभाषबाबू के प्रति हमदर्दी थी। आपकी ये कोशिशें भी नाक़ाम साबित होंगीं, यह उन्होंने सुभाबाबू को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन सुभाषबाबू के इरादें अटल थे।

शुरू शुरू में हालाँकि सरकार को यह एक स्टंट लग रहा था, लेकिन जब अनशन का आठवाँ दिन आ गया, तब सरकार के पैरों तले की ज़मीन फ़िसल गयी। सुभाषबाबू को ज़बरदस्ती से खाना खिलाने की कोशिशें भी सरकार द्वारा की गयीं। लेकिन वे भी नाक़ाम साबित हुई। अब सुभाषबाबू किसी की भी एक तक सुननेवाले नहीं थे। अब उन्होंने ‘रिहाई’ यही अपना एकमात्र मक़सद तय किया था – या तो जेल से या फ़िर दुनिया से!

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