नेताजी-२८

admin-netajiआय.सी.एस. की सनद का स्वीकार न करते हुए देशसेवा करने भारत लौटने के मेरे कुछ अजीबोंग़रीब प्रतीत होनेवाले निर्णय के समर्थन में घरवालों को मनाने की कोशिशों में सुभाष का ख़त  भेजना शुरू ही था कि अचानक मेरा निर्णय ग़लत नहीं है यह यक़ीन उसके मन को दिलानेवालीं कुछ घटनाएँ आसपास के विश्‍व में हो रही थीं।

जालियनवाला बाग़ में बेगुनाह भारतीयों के किये गये हत्याकाण्ड के कारण, भारत में और उसके बाद ‘कुछ प्रमाण में’ इंग्लैंड़ में भी ‘क्रूरकर्मा’, ‘मानवता का जानी दुश्मन’ इस रूप में पहचाने जानेवाले मग़रूर जनरल डायर को, जनमत के बढ़ते दबाव के कारण इंग्लैंड़ में जाँच समिति का सामना करना पड़ा। उसमें उसपर लगे आरोप सच साबित होकर उसे इंग्लैंड़ की सेना में से निकाल दिया गया। स्वाभाविकतः यह तो उचित ही हुआ। लेकिन ऐसा होने के बावजूद भी, ‘अँग्रे़जी हुकूमत का एक हिस्सा रहनेवाले भूप्रदेश में हुकूमत के खिलाफ हो रही बग़ावत का ख़ात्मा करना क्या गुनाह है?’ ऐसा युक्तिवाद करके उसके पक्ष में बोलनेवालों की भी इंग्लैंड़ में कमी नहीं थी। ऐसे ही कुछ ‘हुकूमतपरस्त’ अँग्रे़जों ने इकट्ठा होकर, जनरल डायर ने यह जो कुछ किया है, वह देश के लिए गौरवास्पद साबित होनेवाला कार्य ही किया है, इस आविर्भाव में – उसे समर्थन दर्शाने के लिए ‘डायर फ़ंड’ की स्थापना की। पहले महायुद्ध के प्रारंभ में अपने स्वार्थ के लिए ही सही, लेकिन युरोप के छोटे छोटे राष्ट्रों को स्वयंनिर्णय का हक़ मिलना चाहिए, ऐसी नारेबा़जी करनेवाले और उसके अनुषंग में विश्‍वबंधुता का राग आलापनेवाले ‘जनतन्त्रवादी’ इंग्लैंड़ में डायर के इस ‘महान कार्य को’ समर्थन देनेवाले और इस ‘डायर फ़ंड’ के लिए ह़जारो पौंड का चंदा इकट्ठा करनेवाले महाभाग भी मौजूद थे ही। मानवतावाद की इस नौटंकी को देखकर, साम्राज्यवाद की बू आनेवाला लहू जिनके नसानस में दौड़ रहा था, उन अँग्रे़जों के प्रति सुभाष के मन में अत्यधिक चीढ़ की भावना उत्पन्न हुई और इस घटना से वह आय.सी.एस.की सनद का स्वीकार न करने के स्वयं के निर्णय पर लगभग मुहर लगाने के मुक़ाम पर पहुँच ही चुका था।

इसी घटनाक्रम में भारत में गाँधीजी ने जालियनवाला बाग़ हत्याकाण्ड का और कुल मिलाकर इस ‘जहरीले’ रौलेट अ‍ॅक्ट का निषेध करते हुए असहकार आन्दोलन की घोषणा की थी और वह आन्दोलन अब अपनी चरमसीमा पर था। इस आन्दोलन की गाँधीजी द्वारा निर्धारित समयावधि दिसम्बर के अन्त में समाप्त हो रही थी। अत एव इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए उत्सुक हुए सुभाष को, अब अधिक समय गँवाना उचित नहीं होगा, ऐसा तीव्रता से लग रहा था।

अरविंदबाबू घोष पर अँग्रे़ज सरकार ने १९०८ में दायर किये हुए राजद्रोह के मुक़दमे के मामले में बंगाल में एक और नाम आगे आया था – वह था अरविंदबाबू को इस मुक़दमें में से अपना सारा वक़िली हुनर दाँव पर लगाकर बाइ़ज्जत बरी करानेवाले देशबंधु चित्तरंजन दास इनका। इस मुक़दमें के लिए एक फूटी कौड़ी तक की फीस  न स्वीकारनेवाले दासबाबू आगे चलकर अरविंदबाबू के बाद बंगाली युवाओं के लिए ‘हीरो’ बन चुके थे। उनके शानदार वक्तृत्व से प्रेरित होकर देशसेवा के लिए स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़नेवाले बंगाली युवाओं की संख्या दिनबदिन बढ़ती ही जा रही थी। लोगों से दोस्ती करने के स्वभाववाले दासबाबू ने जगह जगह से ऐसे देशप्रेमी लोगों को एकत्रित कर, युवाओं का ऐसा संगठन तैयार किया था, जो उनके एक ही इशारे पर देश के लिए अपनी जान की बा़जी लगाने के लिए भी तैयार थे।

सुभाष के आय.सी.एस. प्रकरण के समय तो दासबाबू अपनी प्रखर देशभक्ति से बंगाल के स्वतन्त्रता संग्राम के आकाश में सूर्य की तरह रोशन थे। समय के पगचिह्नों को पहचानकर उन्होंने कोलकाता और ढाका में राष्ट्रीय महाविद्यालयों की स्थापना की थी और स्वयं का समाचारपत्र प्रकाशित करने के बारे में वे सोच रहे थे।

समय के साथ साथ चलने वाले ऐसे दासबाबू के प्रति सुभाष के मन में बहुत ही सम्मान की भावना थी। जब प्रेसिडेन्सी कॉलेज के ओटन प्रकरण के समय उसे कॉलेज से निकाला गया था, तब उस निर्णय की वैधता-अवैधता के सन्दर्भ में शरदबाबू के कहने से सुभाष ने दासबाबू से परामर्श भी लिया था। तब तक सुभाष ने केवल उनका नाम ही सुना था। मुलाक़ात के समय उनकी सादगी, प्रखर देशभक्ति और पुरोगामी विचार इनसे वह काफी प्रभावित हुआ था। ऐसे ‘प्रॅक्टिकल’ दासबाबू के साथ क्या कभी मुझे काम करने का मौक़ा मिलेगा, यह विचार हमेशा उसके मन में आता था।

अब मन के इस विचार ने जड़ पकड़ ली थी। अत एव इस प्रकरण के बारे में भी उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करने की इच्छा सुभाष के मन में उत्पन्न हो गयी और उसने उन्हें भी ख़त लिखा। ‘उनके साथ काम करने की भले ही मेरी इच्छा हो, लेकिन क्या वे मेरा स्वीकार करेंगे? क्या मेरा दृष्टिकोण उन्हें मंजूर होगा? क्या मेरे पास वाकई उन्हें देने के लिए कुछ है भी?’ ये विचार उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। इस दृष्टि से भी सुभाष उनकी राय जानना ही चाहता था।

साथ ही, बीच के समय में उसके पिताजी का ख़त भी आया था और उसकी अपेक्षा के अनुसार ही उन्होंने भी उसे सब्र रखने का परामर्श देकर, फिलहाल इस नौकरी का स्वीकार करने के लिए कहा था और बाद में जो होगा से देखा जायेगा, यह विचार एक ‘पिता होने के’ नाते जाहिर किया था। इसलिए यदि मैं आय.सी.एस. नहीं करूँगा, तो फिर क्या करूँगा और सबसे अहम बात यह है कि मेरी ‘रो़जीरोटी’ का क्या, इस बारे में भी घरवालों को बताना उसे जरूरी लग रहा था और इस विषय में निश्चित निर्णय करना दासबाबू की ‘हाँ’ पर ही निर्भर था।

दासबाबू को लिखे हुए खत में उसने – आय.सी.एस. देने की वजह और अब आय.सी.एस. परीक्षा में चौथा नंबर आने के बावजूद भी सरकारी नौकरी करने की मेरी मनिषा क्यों नहीं है, इसकी कारणमीमांसा भी स्पष्ट की थी। साथ ही ‘….मुझ जैसे सभी दृष्टि से यथातथा रहनेवाले मनुष्य के पास खिलखिलाते युवा उत्साह के अलावा आपको देने के लिए और कुछ भी नहीं है’ यह भी कहा था और क्या मैं आपके कुछ काम आ सकता हूँ? यह विनम्र पृच्छा भी की थी।

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