क्रान्तिगाथा-२१

अँग्रेज़ों ने दिल्ली पर कब्ज़ा तो कर लिया, लेकिन अब दिल्ली की सूरत पूरी तरह बदल गयी। इतने दिनों तक स्वतन्त्रता का सुख अनुभव करनेवाली दिल्ली अब फिर एक बार अँग्रेज़ों की ग़ुलामी के बन्धन में जकड़ गयी।

भारत के उत्तरी इलाक़ों में से दिल्ली में दाख़िल हुए क्रान्तिकारियों ने सवा सौ दिनों से भी अधिक समय तक अँग्रेज़ों को दिल्ली में कदम तक नहीं रखने दिया था। अब अँग्रेज़ मानों अतीत की अपनी हार का बदला दिल्ली से यानी दिल्ली के उस समय के निवासियों से ले रहे थे। अब दिल्ली में बड़े पैमाने पर लूटमार शुरू हो गयी और शुरू हो गया प्रचंड संहार। क्रान्तिवीर रहनेवाले और क्रान्ति में प्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित न रहनेवाले इस तरह दोनों प्रकार के भारतीय इस संहार का शिकार हो गये। इनमें से किसी भी भारतीय की बिना तहक़िकात किये ही अँग्रेज़ उन्हें सीधे सीधे फाँसी पर लटका रहे थे।

अँग्रेज़ों के द्वारा दिल्ली पर कब्ज़ा कर लेने के बाद दिल्ली में अ़फरातफरी मच गयी। अँग्रेज़ों की यह अमानुषता कुछ अँग्रेज़ों से ही देखी नहीं गयी और उसका वर्णन खुद कुछ अँग्रेज़ों ने ही किया हुआ है। इस रणसंग्राम में लगभग हज़ारों लोगों की जानें चली गयी। अनेक इतिहासकारों का मानना है कि लगभग ४-६ हजार क्रान्तिकारियों को अपनी जानें गँवानी पड़ीं।

आख़िरी मुग़ल बादशाह, जिन्हें क्रान्तिवीरों ने अपना ‘राजा’ घोषित किया था, वह दिल्ली के बादशाह-बहादुरशाह जफर। उन्होंने इस रणसंग्राम के अंतिम समय में दिल्ली से छह मील की दूरी पर स्थित एक वास्तु में अपने कुछ परिजनों के साथ पनाह ले ली थी। अँग्रेज़ उन्हें ढूँढ़ ही रहे थे। दिल्ली पर कब्ज़ा कर लेते ही कॅप्टन हडसन नाम के अँग्रेज़ अफसर ने आख़िर इस बादशाह को बंदी बना ही लिया। इस आखिरी मुग़ल बादशाह को जीवनदान तो मिल गया, लेकिन उन्हें अब भुगतनी पड़ रही थी कैद, अँग्रेज़ों की कैंद।

बादशाह को बंदी बनाने के बाद अगले ही दिन उनके तीनों बेटों को भी अँग्रेज़ों ने गिरफ्तार कर लिया और उसी कॅप्टन हडसन ने इन तीनों राजपुत्रों पर गोलियाँ चलाकर उनका अस्तित्व ही नष्ट कर दिया। उनके सिर बाद में उनके पिता को नज़र कर दिये। अमानुषता और खूँखारपन की हद भला इससे और क्या हो सकती है!

दिल्ली के आख़िरी बादशाह-बहादुरशाह जफर पर अँग्रेज़ों ने कई इलज़ाम लगाये और उनकी तहक़िक़ात शुरू कर दी। ज़ाहिर है कि हर गुनाह में उन्हें दोषी क़रार दिया गया। अब यहीं पर से आगे चलकर इन बादशाह का उनके कुछ परिजनों के साथ अज्ञातवास शुरू हो गया। भारत से दूर ‘रंगून’ में।

सन १८५८ में बादशाह को रंगून भेजा गया और इसके बाद अन्त तक रंगून ही उनका आवासस्थान बना रहा। इसी रंगून में ७ नवंबर १८६२ को दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफर ने आखिरी साँस ली।

वहीं भारत में अब भी स्वतन्त्रता यज्ञ की ज्वालाएँ धधक रही थी। क्योंकि अब भी इस यज्ञ को जारी रखनेवाले क्रान्तिकारी अपनी जान की बाज़ी लगा रहे थे। दिल्ली स्थित क्रान्तिकारियों की सेना को मार्गदर्शन करनेवाले बख्त खान स्वतन्त्रता के ख्वाब देखते हुए ही लखनौ जाने निकले और फिर एक बार लखनौ के क्रान्तिकारियों के कन्धे से कन्धा मिलाकर अँग्रेज़ों से लड़ने खड़े हुए।

लखनौ की रेसिडेन्सी में वहाँ के अँग्रेज़ों ने पनाह ली थी और क्रान्तिकारी उनसे लड़  रहे थे। इन अँग्रेज़ों की सहायता करने के लिए अब कानपुर से मेजर जनरल हॅवलॉक नाम का अँग्रेज़ अफसर डेढ़ हज़ार सैनिकों के साथ निकल पड़ा था और गंगा नदी पार करके लखनौ की ओर आगे बढ़ रहा था। लखनौ की राह में ‘उना’ में उसे अनपेक्षित क़ामयाबी मिली थी। दर असल यहाँ के क्रान्तिकारी उसे पेंच में डालकर अगले मुक़ाम पर चले गये थे। लेकिन लखनौ स्थित अँग्रेज़ों की सहायता करने के लिए यानी लखनौ पर पुन: कब्ज़ा करने के लिए निकले हुए हॅवलॉक को वहाँ पहुँचने के लिए अपेक्षा (एक्सपेक्टेशन) से ज़्यादा दिन लग रहे थे और लखनौ स्थित अँग्रेज़ों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। लखनौ पर पुन: कब्ज़ा करने के काम में अँग्रेज़ अफसरों की बड़ी फौज ही जुट गयी थी।

लखनौ के क्रान्तिकारियों में जिस तरह भारतीय सैनिक थे, उसी तरह कई छोटे बड़े ज़मीनदार भी थे। यह लखनौ में हो रहे संघर्ष की एक विशेषता थी। एक और खासियत यह भी थी कि लखनौ के बाहर से लखनौ आये हुए अँग्रेज़ लखनौ रेसिडन्सी में ङ्गँसे हुए अँग्रेज़ों के साथ संपर्क स्थापित करने में क़ामयाब हुए थे। उसी रेसिडन्सी का ही एक अँग्रेज़ नागरिक भारतीय सैनिकों की तरह का भेस करने में क़ामयाब हुआ था और वही लखनौ के बाहर से आये अँग्रेज़ों के साथ संपर्क कर रहा था।

२५ सितंबर १८५७ को यह संघर्ष तीव्र होने लगा। रेसिडन्सी में पनाह ले चुके अँग्रेज़, लखनौ शहर में रहनेवाले क्रान्तिकारी और लखनौ पर कब्ज़ा करने कानपुर से आयी हुई अँग्रेज़ सेना ऐसी स्थिति बन गयी थी। अब यह अँग्रेज़ सेना एक के बाद एक जगह पर कब्ज़ा करते करते रेसिडन्सी की दिशा में आगे बढ़ रही थी। हॅवलॉक की सहायता करने अब जनरल ऑट्रम आया हुआ था। यहाँ पर रेसिडन्सी से इन्ग्लिस नाम का अँग्रेज़ अफसर इनसे संपर्क बनाये हुए था। लगभग ८७ दिनों तक यह संघर्ष चल रहा था।

इसी दौरान अक्तूबर के पहले ही हफ्ते में आग्रा के अँग्रेज़ों ने भी अन्य जगह से मदद मँगवायी थी और उनकी सहायता करने आये अँग्रेज़ों नेआग्रा पर फिर एक बार कब्ज़ा कर लिया। लेकिन अँग्रेज़ों की इस जीत के कारण दिल्ली से लेकर कानपुर तक के बड़े इला़के पर रहनेवाला क्रान्तिकारियों का वर्चस्व खत्म हो गया, ऐसा इतिहास बयान करता है।

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