कोची भाग-४

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वाद्यों के सूर गूँज रहे हैं। श्रीराम-रावण के बीच के युद्ध की अब फ़ैसले की घड़ी क़रीब आ चुकी है। सारे दर्शक उस दृश्य को देखने में मग्न हो चुके हैं। कोई भी किसी के साथ बात नहीं कर रहा है। रंगमंच पर नृत्य करनेवाले नर्तक भी संवाद नहीं कह रहे हैं। यह सुनकर आप ताज्जुब में पड़ गये ना! कथकली नृत्य में कथा या उस कथा का प्रसंग अथवा पात्र चाहे कोई भी हो, उसमें संवाद नहीं रहते।

कोची की सैर करते हुए कथकली के बारे में जानकारी प्राप्त करने का निश्‍चय हमने पिछले लेख में ही किया था। दर असल इस शास्त्रीय नृत्यप्रकार को ‘कथकळी’ भी कहा जाता है। केरल यह इस नृत्यशैली की जन्मभूमि है।

केरल में प्राचीन समय से कई नृत्यप्रकार प्रचलित थे। उनमें से दो महत्त्वपूर्ण नृत्यप्रकार हैं – ‘कृष्णनाट्टम्’ और ‘रामनाट्टम्’। ‘रामनाट्टम्’ की निर्मिति को कृष्णनाट्टम् ने चालना दी, ऐसा कहा जाता है और ये कृष्णनाट्टम् एवं रामनाट्टम् ही कथकली/कथकळी के निर्माण के प्रेरणास्रोत साबित हुए, ऐसा कहा जाता है।

नृत्यनाट्य के माध्यम द्वारा दर्शकों के सामने किसी कथा को प्रस्तुत करना, यह कथकली शब्द का सरलार्थ है।

चेहरे पर विभिन्न रंगों से मेक अप किये हुए, बड़ी बड़ी आँखोंवालें और लंबी लंबी पोशा़कें पहने हुए नर्तक यह कथकली की आत्मा है। लेकिन ये नर्तक एक भी लब्ज़ न कहते हुए केवल अपने चेहरे के अभिनय द्वारा, शरीर के अंगों के न्यास द्वारा किसी भी कथा के संपूर्ण आशय को दर्शकों तक पहुँचाते हैं। इसका अर्थ है कि इस नृत्य में कलाकार का अभिनय ही दर्शकों से संवाद करता है।

पुराने ज़माने में कथकली का कार्यक्रम सूर्यास्त के समय शुरू होता था और रात भर चलता था। मनुष्य की ऊँचाई जितना पितल का बड़ा दीपक इस नृत्य के कार्यक्रम के समय रंगमंच पर रखा जाता था। उसमें वह रात भर जल सके इतना तेल भर दिया जाता था। उस दीपक की एक बाती दर्शकों की दिशा में रहती थी, वहीं दूसरी नर्तकों की दिशा में और इन दो बातियों की रोशनी में संपूर्ण नाट्य को यानि उसकथा को दर्शकों तक पहुँचाया जाता था। इस बड़े दीपक को ‘कळिविळक्कु’ कहते हैं। आज समय के साथ साथ कथकली के कार्यक्रम आज के युग के अनुसार कुछ घंटों तक ही चलते हैं।

कथकली इस संपूर्ण नृत्यप्रकार में कुल पाँच बातों का समावेश होता है। ‘नाट्य’ अर्थात् नर्तक का अभिनय यानि कि उसके चेहरे के भाव- चेहरे एवं आँखों की विभिन्न प्रकार की मुद्राएँ। कईं बार हम लोग कहते हैं कि किसी का चेहरा या आँखें बोलती हैं। कथकली के नर्तकों के अभिनय को देखकर इस बात का हमें यक़ीन हो जाता है। उसके बाद बात आती है नृत्य की। ‘नृत्य’ अर्थात् नर्तक द्वारा किया गया विशिष्ट पदन्यास और साथ ही हाथों की तथा हाथों की ऊँगलियों की विभिन्न मुद्राओं (विशिष्ट रचनाओं) द्वारा आशय अभिव्यक्त करना। इस नृत्यप्रकार में कुल चौबीस प्रमुख मुद्राएँ मानी जाती हैं। ‘गायन’ यह भी कथकली के प्रस्तुतीकरण का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। आख़िरी लेकिन उतना ही महत्त्वपूर्ण घटक है, इस नृत्य के दौरान बजाये जानेवाले ‘वाद्य’। ‘चेंडा’, ‘मड्डलम्’ इन जैसे वाद्यों के साथ साथ ‘चेंगिला’, ‘मुरली’ आदि वाद्य भी बजाये जाते हैं।

इस विवेचन द्वारा आपको कथकली के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी अवश्य प्राप्त हुई होगी। मग़र तब भी शायद कोई यह सोच सकता है कि इसमें संभाषण (डायलॉग्ज) का न होना इसमें ऐसी कौनसी बड़ी बात है; क्योंकि नृत्य में तो गीत ही महत्त्वपूर्ण रहता है। लेकिन ज़रा सोचिए, दिल पिघला देनेवाला कोई करूणरसपूर्ण प्रसंग चल रहा है अथवा वीरश्री जगानेवाला निर्णायक युद्ध चल रहा है और ऐसे समय बिना कुछ कहे सिर्फ आँखों, हाथों एवं शरीर के अन्य अवयवों द्वारा दर्शकों के साथ संवाद करना यह वाक़ई नर्तक का एक हुनर ही है।

फिर इस हुनर को अपनाने के लिए कथकली को शास्त्रशुद्ध पद्धति से सीखना यह इस दिशा में उठाया गया पहला कदम है। इस नृत्य में नर्तक के अभिनय की ही कसौटी नहीं रहती बल्कि उसके साथ ही उसकी शारीरिक क्षमता (फिजिकल स्टॅमिना) एवं एकाग्रता (काँसंट्रेशन) इनकी भी कसौटी रहती है। इसके लिए कईं वर्षों तक अभ्यास करना पड़ता है, नृत्यशाला में गुरु के मार्गदर्शन में शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण लेना पड़ता है। केरल के ‘कलरीपयट्टु’ इस मार्शल आर्ट की तरह रहनेवाले व्यायाम का अभ्यास करके बदन को लचीला बनाना पड़ता है। साथ ही चेहरे की, आँखों की, हाथ-पैरों की विशिष्ट मूव्हमेंट्स् भी सीखनी पड़ती हैं।

कथकली के द्वारा प्रस्तुत की जानेवालीं कथाएँ साधारणत: पौराणिक एवं रामायण-महाभारत की कथाएँ रहती हैं। आधुनिक युग के साथ साथ कुछ ज्ञात लोकप्रिय कथाओं का प्रस्तुतीकरण भी इस माध्यम द्वारा किया जाता है।

बदन को लचीला एवं सुगठित बनानेवाले और अभिनय के प्रशिक्षण को पूरा कर चुके नर्तक को नृत्य के प्रत्यक्ष प्रस्तुतीकरण के पूर्व एक और महत्त्वपूर्ण बात करनी पड़ती है और वह है, चेहरे पर मेक अप लगाना।

हर एक नृत्यनाट्य में प्रत्येक पात्र के संपूर्ण चेहरे पर वैशिष्ट्यपूर्ण और विभिन्न रंगों द्वारा मेक अप किया जाता है, जिसीश कि उस कलाकार का चेहरा अब उस किरदार का मुखौटा बन जाता है। मेक अप बॉक्स खोलकर मेक अप कर लिया इतना यह मेक अप आसान नहीं होता। इस मेक अप की शैली भी शास्त्रशुद्ध रहती है और यह मेक अप करने में ही कईं घण्टें लग जाते हैं। आजकल कथकली के नर्तकों का मेक अप करते हुए उन्हें देखना यह भी दर्शकों के लिए एक कौतूहल का विषय बन गया है। कई बार दर्शक इन कलाकारों के मेक अप को देखने के लिए कार्यक्रम के शुरू होने से कुछ समय पहले ही वहाँ पर पहुँच जाते हैं।

फाऊंडेशन, लिपस्टिक लगाने से कथकली का मेक अप पूरा नहीं होता; बल्कि उस नृत्यनाट्य में जो पात्र हैं, उनके स्वभाव के अनुसार उस पात्र का किरदार निभानेवाले कलाकार को मेक अप किया जाता है यानि कि सात्त्विक प्रवृत्ति के किरदारों का मेक अप अलग रहता है और दुष्ट-दुर्जन प्रवृत्ति के किरदारों का मेक अप अलग रहता है।

कथकली के पात्रों का मेक अप पाँच प्रकार से किया जाता है। उनके नाम हैं- पच्चा, कट्टी, करी, थडी और मिनिक्कु/मिनुक्कु।

‘पच्चा’ यानि कि हरे रंगका। उच्च दर्जे के किरदार को, सात्त्विक किरदार को यह मेक-अप किया जाता है। अर्थात् उन पात्रों के चेहरे पर वह रंग चढ़ाया जाता है। साथ ही ठोढ़ी पर एक कान से लेकर दूसरे कान तक सफ़ेद रंग की एक पट्टी चिपकायी जाती है, जिसे ‘चुट्टी’ कहते हैं।

‘कट्टी’ नाम के मेक अप प्रकार में हरे रंग का ही मेक अप किया जाता है; लेकिन उसके साथ लाल और सफ़ेद रंग भी पोता जाता है; क्योंकि यह किरदार होता है, दुष्ट-दुर्जन प्रवृत्ति (व्हिलन) का।

‘करी’ यह मेक अप भी दुष्ट प्रवृत्ति के किरदार को ही किया जाता है। विशेषत: राक्षसियों के किरदार का चेहरा काले रंग में रंग दिया जाता है, जिसे ‘करी’ कहते हैं।

‘थडी’ का अर्थ है ख़ास क़िस्म की दाढ़ी लगाना। किरदार के स्वभावधर्म के अनुसार उसे सफ़ेद, लाल अथवा काले रंग की दाढ़ी लगायी जाती है।
मिनिक्कु/मिनुक्कु इस आख़िरी प्रकार में बिलकुल साधारण सा मेक अप किया जाता है। इस मेक अप में किरदार के होठों को लाल रंग में और आँखों एवं भौहों को काले रंग में रंग दिया जाता है। ॠषिवर आदि आध्यात्मिक प्रवृत्ति के किरदार का मेक अप मिनुक्कु पद्धति द्वारा किया जाता है।

अब मेक अप करने के बाद किसी भी क़िस्म के कपड़ें पहन लिये और जाकर खड़े हो गये रंगमंच पर ऐसा यहाँ नहीं है। कथकली के नर्तक के मेक अप की तरह इसके किरदार के अनुसार उसकी पोशाक़ भी निर्धारित की गयी होती है। बड़े घेरे एवं झोल वाली, लंबी-चौड़ी ये विशेषण ही उस पोशाक़ का वर्णन कर सकते हैं। पच्चा, कट्टी मेक अप किये हुए किरदारों को सफ़ेद रंग की फूली हुई पोशाक़ पहनायी जाती है, वहीं करी मेक अप किये हुए किरदारों की पोशाक़ भूरे (ग्रे) रंग की रहती है। इस पोशाक़ के साथ साथ उस प्रकार के गहने और मुकुट पहनने के बाद ही वह किरदार रंगमंच पर जाकर अपनी कला प्रस्तुत कर सकता है।

वंदनश्‍लोक यानि कि मंगलाचरण के बाद परदे के पीछे एक भक्तिनृत्य शुरू हो जाता है। उसके बाद प्रमुख नर्तक रंगमंच पर आकर नृत्य का आरंभ करते हैं। अधिकांशत: प्रेमप्रसंग द्वारा शुरू हो चुका नृत्य युद्ध के अन्तिम पड़ाव तक आ पहुँचता है और दुष्टनिर्दालन होने के बाद ही नृत्य समाप्त हो जाता है। अत्यंत नेत्रदीपक, विलोभनीय और दर्शकों के मन को मोह लेनेवाले इस नृत्य के पीछे बहुत बड़ी साधना रहती है, लेकिन उस साधना को करनेवाले कलाकारों के उस प्रवास के बारे में दर्शकों को ज़्यादा जानकारी नहीं रहती। एक बार जब वह नर्तक रंगमंच पर आ जाता है, तब वह ‘क्ष’ नाम का कलाकार नहीं रहता बल्कि उस कथा के उस प्रसंग का एक किरदार (कॅरॅक्टर) बन चुका होता है।

कथकली के प्रांत की सफ़र करते करते हम उस दुनिया में खो ही गये थे। आइए, अब कथकली की दुनिया से निकलकर फिर दाखिल हो जाते हैं, कोची की मुख्य भूमि में। ‘क्विन ऑफ अरेबियन सी’ इस नाम से गौरवान्वित कोची में दो महत्त्वपूर्ण वास्तुओं को जतन किया गया है।

१६वीं सदी की शुरुआत में जिसका निर्माण किया गया, वह ‘सेंट फ्रान्सिस चर्च’। यहीं पर वास्को-द-गामा ने आख़िरी साँस ली, ऐसा कहा जाता है और दूसरी महत्त्वपूर्ण वास्तु है, ‘सांता क्रुज़ बॅसिलिका’ नाम का गिरजाघर (चर्च), जिसे ‘कॅथिड्रल’ का दर्जा दिया गया है। इनके साथ ही ज्यू धर्मीयों का प्रार्थनास्थल, जिसे ‘सिनेगॉग’ कहा जाता है, वह भी कोची में है।

कोची के अब तक के सफ़र में समुद्र यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटक साबित हुआ है; क्योंकि इस समुद्र के कारण ही कोची का विस्तार भी हुआ और विकास भी। इसी समुद्रमार्ग से कईं देशों के लोग कोची में दाखिल हुए और अपनी निशानी छोड़ गये; लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस हर एक को कोची की भूमि ने उदारतापूर्वक पनाह दी और आज भी उनकी यादों को जतन कर रखा है।

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