कोची भाग -३

सूरज के उगते ही फ़ोर्ट कोची के किनारे पर चहलपहल शुरू हो जाती है। नये दिन की शुरुआत के साथ ही नये उत्साह के साथ फ़िशिंग नेट्स् समुद्र में डाले जाते हैं और मत्स्यप्रेमियों के आहार को उनतक पहुँचाया जाता है।

 

१४वीं सदी में बाँधीं गयी ये फ़िशिंग नेट्स् आज भी अच्छी स्थिति में काम कर रहे हैं। लकड़ी की तख़्तियाँ, बाँस और रस्सियाँ इनकी सहायता से इन फ़िशिंग नेट्स् को यहाँ पर बाँधा गया है। इन बाँस और रस्सियों को शिथिल करके इन बड़े बड़े फ़िशिंग नेट्स् को समुद्र में फ़ेका जाता है। यह काम करनेवालों को इसके लिए बाँ स पर से का़फ़ी दूर चलकर जाना पड़ता है। एक बार इन फ़िशिंग नेट्स् को समुद्र में फ़ेकने के बाद कुछ मिनटों तक उसी स्थिति में रहने दिया जाता है और फ़ीर इन्हीं बाँस और रस्सियों के सहारे उन्हें बाहर निकाला जाता है। रस्सियों को पत्थर भी बाँधे जाते हैं, ताकि वे पानी पर न तैरें। आप इस वर्णन से यह समझ ही चुके होंगे कि इन फ़िशिंग नेट्स् की रचना में किसी भी यांत्रिक साधन का इस्तेमाल नहीं किया गया है। बाँस, रस्सियाँ, लकड़ी की तख़्तियाँ और पत्थर इनजैसे प्राकृतिक साधनों का ही उपयोग किया गया है और शायद यही इन फ़िशिंग नेट्स् की लंबी उम्र का राज़ है।

इन फ़िशिंग नेट्स् को समुद्र में फ़ेकने और बाहर निकालने के लिए मानवीय परिश्रम आवश्यक रहते हैं। एक बार एक नेट को समुद्र में फ़ेकने के लिए छह लोगों की आवश्यकता होती है। इन ‘चायनीज फ़िशिंग नेट्स्’ को स्थानीय निवासी ‘चीनावाला’ कहते हैं। चंद कुछ मिनटों के लिए भी इन नेट्स् को समुद्र में फ़ेका जाये और फ़िर बाहर निकाला जाये, तब भी इन नेट्स् द्वारा कितनी मछलियाँ प्राप्त होती होंगी, इस बारे में यदि आप अटकलें लगा रहे हैं तो बस एक बार इन नेट्स् को ध्यान से देखिए, उनके आकार को देखकर ही आप इस संदर्भ में अनुमान कर सकते हैं।

फ़ोर्ट कोची के इस विभाग में टहलते हुए ‘फ़ोर्ट’ यह शब्द सुनकर शायद किसी के मन में ‘यहाँ पर कोई क़िला अवश्य होगा’, यह विचार उठ सकता है। पुर्तग़ालियों ने कोची में आने के बाद यहाँ के राजा से अनुमति प्राप्त करके यहाँ पर एक क़िले का निर्माण किया था, यह इतिहास तो हम पढ़ ही चुके हैं। उस क़िले का नाम था- ‘फ़ोर्ट इमॅन्युएल’। आगे चलकर कोची के शासक बदल गये और समय की धारा में यह फ़ोर्ट भी अतीत का एक हिस्सा बन गया। आज इस क़िले के बस कुछ निशान ही बाक़ी हैं।

कोची के इस स़फ़र में कोची के भौगोलिक विस्तार की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है; क्योंकि इस भौगोलिक विस्तार को जानना पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।

फ़ोर्ट कोची, मट्टनचेरी/मातनचेरी और एर्नाकुलम ये कोची शहर के प्रमुख विभाग हैं। साथ ही कुछ छोटे-बड़े टापू (द्वीप) कोची के पास बसे हुए हैं, जो आज के कोची शहर का एक अविभाज्य अंग हैं। इस शहर के लोगों के स़िर्फ़ निवास की ही नहीं बल्कि रोज़ीरोटी की व्यवस्था भी इन टापुओं ने की है। इनमें से कईं टापू कोची की मुख्य भूमि के साथ पुलों/सड़कों द्वारा जोड़े गये हैं। साथ ही इन टापुओं से आने-जाने के लिए जलमार्ग का उपयोग भी किया जा सकता है।

आइए, तो पहले इन द्वीपों की ही सैर करते हैं।

इनमें से कई द्वीपों का आकार बहुत ही छोटा है। बोलघाट्टी, विलिंग्डन, वायपीन, रामन्थुरुथु, वल्लर्पदम्, कुंबलम् ये उनमें से कुछ के नाम हैं। इन सब द्वीपों पर लोग बसते हैं।

‘बोलघाट्टी’ नाम का द्वीप कोची की प्रमुख भूमि से का़फ़ी नज़दीक है। १८वीं सदी के मध्य में डचों ने इस बोलघाट्टी द्वीप पर एक महल का निर्माण किया। फ़िर अँग्रेज़ों का यहाँ पर शासन रहा और आज उस महल को एक हेरिटेज हॉटेल के रूप में रूपान्तरित किया गया है।

इन द्वीपों की सूचि में सबसे छोटा द्वीप है- ‘रामन्थुरुथु’।

‘विलिंग्डन’ यह मानवनिर्मित टापू है। कोची बंदरगाह का विकास करनेवाले लॉर्ड विलिंग्डन का नाम इसे दिया गया है। अँग्रेज़ों ने उनके शासनकाल में इस द्वीप को का़फ़ी विकसित किया। कोची यह एक बड़ा बंदरगाह रहने के कारण यह विलिंग्डन द्वीप बंदरगाह से जुड़े हुए कईं उद्योगों का एक प्रमुख केन्द्र है। साथ ही वह भारतीय नौसेना का एक महत्त्वपूर्ण थाना है।

सबसे अधिक आबादीवाला टापू है- ‘वायपीन टापू’।

आज इन सभी द्वीपों का का़ङ्गी विकास हुआ है और वे कोची इस शहर का एक अविभाज्य अंग ही बन चुके हैं।

कोची और मसालों का व्यापार इनका संबंध पुराने समय से ही अटूट है। कोची की प्रगति भी इसी व्यापार के कारण हुई ऐसा भी कहा जा सकता है। आज भी कोची की यह पहचान क़ायम है। मसालों के इस व्यापार में सबसे ऊपर है- काली मिर्च।

कोची में एक नहीं, बल्कि दो राजमहल हैं। उनमें से पहला राजमहल देखने के लिए हमें मट्टनचेरी/मातनचेरी जाना पड़ेगा। वहीं दूसरा राजमहल देखने के लिए कोची शहर से थोड़ा सा दूर जाना होगा। तो आइए, पहले मट्टनचेरी चलते हैं।

राजमहल या पॅलेस कहते ही हम जिस भव्यता एवं विशालता की कल्पना करते हैं, उसके लिए यह पॅलेस अपवाद है। इसे ‘मट्टनचेरी पॅलेस’ अथवा ‘डच पॅलेस’ कहा जाता है।

कहा जाता है कि १६वीं सदी में ‘वीर केरल वर्मा’ नामक कोची के राजा को पुर्तग़ालियों ने यह पॅलेस बनाकर उपहारस्वरूप में दिया था।

डचों के शासनकाल में उन्होंने इस पॅलेस में कुछ सुधार किये, कुछ नयी रचनाओं का निर्माण भी किया और उसके बाद यह पॅलेस ‘डच पॅलेस’ इस नाम से जाना जाने लगा।

केरल में ‘नलकेट्टु’ नामक वास्तुरचना प्रचलित है। वही वास्तुरचना हमें यहाँ पर दिखायी देती है। इस नलकेट्टु वास्तुरचना की ख़ासियत यह है कि इसमें वास्तु का आँगन वास्तु के मध्यवर्ती विभाग में रहता है। नलकेट्टु वास्तुरचना के साथ साथ पुर्तग़ाली एवं डच वास्तुशैली का प्रभाव भी यहाँ पर दिखायी देता है।

चौकोर (स्क्वेअर) आकार की इस वास्तु (पॅलेस) में केरल के राजवंश के कई आराध्यों के मन्दिर हैं। इस पॅलेस के फ़र्श को देखिए! इस चमकदार, चिकने फ़र्श को देखते ही यह प्रतीत होना स्वाभाविक ही है कि वह काले संगेमर्मर का बना हुआ है। लेकिन इसका राज़ जानना ज़रूरी है। कहा जाता है कि जली हुईं नारियल की करोटियाँ, कोयला, चूने का पत्थर, विभिन्न वनस्पतियों के रस आदि के मिश्रण द्वारा इसका निर्माण किया गया है।

यह मट्टनचेरीचा पॅलेस केरल चित्रशैली के विभिन्न चित्रों के लिए मशहूर है। यहाँ की दीवारों पर रामायण की घटनाओं को चित्रित किया गया है। श्रीकृष्णलीलाओं को भी हम यहाँ पर चित्ररूप में देख सकते हैं। राजा का शयनकक्ष अथवा ‘पल्लियर’ कहे जानेवाले इस विभाग की दीवारों पर इस तरह रामायण और कृष्णलीला के कुल ४८ प्रसंगों को चित्रित किया गया है।

इनके अलावा राजा से संबंधित वस्तुएँ यानि कि पालकी, राजवस्त्र एवं उस समय का फ़र्निचर ये सभी यहाँ की शान बढ़ाते हैं। इस पॅलेस की कुछ दीवारों पर कालिदास की प्रतिभा भी चित्ररूप में साकार हुई दिखायी देती है।

देशी एवं विदेशी वास्तुशैली के मिश्रण द्वारा बनाया गया यह मट्टनचेरी पॅलेस और यहाँ के विभिन्न चित्र यह सब इतिहास की एक बहुमूल्य धरोहर है और उसे जतन करने की कोशिशें आज की जा रही हैं।

इस पॅलेस को देखने के बाद दूसरे पॅलेस को देखने की उत्सुकता अवश्य ही आपके मन में जागृत हो चुकी होगी। आइए, तो चलते हैं, कोची से कुछ ही दूरी पर बसे ‘त्रिपुर्णीथुरा’ में।

कोची से लगभग १० कि.मी. की दूरी पर बसे त्रिपुर्णीथुरा में बना यह पॅलेस ‘हिल पॅलेस’ इस नाम से जाना जाता है। कोची के राजाओं का वास्तव्य पुराने ज़माने में यहीं पर होता था। ५२ एकर्स क्षेत्रफ़लवाले इस पॅलेस में कुल ४९ इमारतें हैं।

इस पॅलेस का म्युज़ियम यहाँ का एक प्रमुख आकर्षण है। यहाँ पर पहले हेरिटेज म्युज़ियम का निर्माण किया गया। इस म्युज़ियम में ग्यारह गॅलरीज हैं। इन गॅलरीज का वर्गीकरण वहाँ जतन की गयी वस्तुओं के संग्रह के अनुसार किया गया है। उदा. ‘न्युमिस्मॅटिक गॅलरी’ में पुराने सिक्कों (कॉइन्स) का संग्रह किया गया है। ‘ज्वेलरी गॅलरी’ में राजवंश के व्यक्तियों द्वारा इस्तेमाल किये गये गहनों का संग्रह किया गया है; वहीं राजाओं द्वारा उपयोग में लायी गयी एवं विदेश से मँगायी गयी बग्गियों का संग्रह एक अलग गॅलरी में किया गया है।

साथ ही राजाओं के द्वारा उस ज़माने में इस्तेमाल में लायी जानेवाली कईं वस्तुओं का, वस्त्रों का संग्रह यहाँ के का म्युज़ियम में किया गया है। १९वीं सदी के उत्तरार्ध में बनाया गया यह ‘हिल पॅलेस’ केरलीय वास्तुशैली का एक बेहतरीन नमूना है।

जहाँ साल के १३२ दिनों तक बारिश होती है, उस शहर ने अपने अतीत का हाथ भी बड़े प्यार से थामा हुआ है, जिसमें परंपरागत नृत्यकला का भी समावेश होता है। फ़िर सोचिए कि कोची के वास्तव्य में बदरिया छायी हुई किसी शाम को यदि कथकली से हमारा परिचय हो जाये, तो उस शाम का मज़ा कुछ और ही होगा। कथकली का आस्वाद लिये बिना हमारी कोची की यात्रा सुफ़ल संपूर्ण नहीं हो सकती।

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