हैदराबाद भाग-२

वह देखिए, वहाँ ऊँचाई पर दिखायी दे रहा है, वह है ‘गोलकोंड़ा क़िला’! और हमें उसे देखने ही तो जाना है।

दूर से दिखायी देनेवाले इस गोलकोंड़ा क़िले की विशालता एवं विस्तृतता पास जाते ही सुस्पष्ट रूप में दिखायी देती है। कई सदियों तक इस क़िले में काफ़ी चहलपहल रहती थी, क्योंकि यहाँ के राजा यहाँ पर रहते थे, साथ ही उनकी प्रजा भी क़िले के भीतर ही बसा करती थी। इसीलिए सुरक्षा की दृष्टि से गोलकोंड़ा क़िले को अच्छी तरह से मज़बूत बनाया गया है और यह हमें आज भी दिखायी देता है।

आज यहाँ पर गोलकोंड़ा क़िले के बस अवशेष ही बाक़ी हैं। अब इसके बाद हम गोलकोंड़ा क़िले का उल्लेख सिर्फ़ ‘गोलकोंड़ा’ इस शब्द से ही करेंगे।

जिस पहाड़ी पर यह क़िला बनाया गया है, उसकी ऊँचाईर्र् है लगभग ४०० फीट। पहले मिट्टी से इस क़िले का निर्माण किया गया। कुतबशाही राजवंश के राजाओं के शासनकाल में धीरे धीरे इस क़िले का विस्तार होता गया और मिट्टी का क़िला यह उसका स्वरूप पूरी तरह बदल गया। सोलहवीं सदी के अन्त तक यह क़िला और यह स्थल केंद्रस्थान में था। क्योंकि इस प्रदेश पर राज्य करनेवाले राजाओं की गोलकोंड़ा यह राजधानी थी। इसीलिए इस क़िले का महत्त्व भी अनन्यसाधारण था। सोलहवीं सदी के अन्त में इस प्रदेश की राजधानी हैदराबाद बना दी गयी और उसके बाद गोलकोंड़ा के वैभव का अस्त होने लगा।

११ किलोमीटर्स के विशाल भूप्रदेश पर गोलकोंड़ा का निर्माण किया गया है। इस क़िले की बाहरी चहारदीवारी की लंबाई भी उतनी ही है। बाहरी चहारदीवारी के भीतर और दो दीवारें हैं। इससे हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस क़िले की सुरक्षा यह उस ज़माने में कितना अहम मुद्दा होगा।

इस बाहरी चहारदीवारी में यानी बाहरी दीवार में कुल ८७ अर्धवर्तुल आकारवाले बुर्ज़ हैं। इनमें से कुछ बुर्ज़ोंपर आज भी हमें उस समय की तोपें रखी हुई दिखायी देती हैं। इस क़िले के कुल आठ प्रवेशद्वार हैं और क़िले के भीतर चार क़िले हैं।

क़िले में दाखिल होने के लिए बाहरी चहारदीवारी में बनाये गये बड़े दरवाज़े से भीतर दाखिल होते है। इस दरवाज़े को ‘फ़तेह दरवाज़ा’ कहा जाता है। इस फ़तेह दरवाज़े पर लोहे की विशाल कीलों जैसी रचना दिखायी देती है। दुश्मनों के हाथियों से प्रमुख प्रवेशद्वार को सुरक्षित रखने के लिए इस तरह की रचना की गयी है।

लेकिन ज़रा एक मिनट रुकिए, इस प्रमुख प्रवेशद्वार के पास ही हमें एक दिलचस्प बात देखनी है, दर असल सुननी है। अब पहेलियाँ न बुझाते हुए आइए देखते हैं।

इस प्रवेशद्वार में से क़िले में दाखिल होने के बाद एक विशिष्ट स्थान पर रुककर यदि ताली बजायी जाये, तो उसकी प्रतिध्वनि (एको) ठेंठ इस क़िले की सब से ऊँची जगह पर सुनायी देती है। इस क़िले की सब से ऊँची जगह ‘बल हिसार’ इस नाम से जानी जाती है और प्रमुख प्रवेशद्वार से यह जगह लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर है। ग़ौर करने लायक बात यह है कि प्रमुख प्रवेशद्वार के पास बजायी गयी ताली हो या खुसुरफुसुर हो, बल हिसार इस स्थान पर वह साफ़ साफ़ सुनायी देती है और खास बात यह है कि वह सिर्फ़ इसी जगह सुनायी देती है, अन्य किसी जगह पर नहीं सुनायी देती।

यह देखकर यक़ीनन ही हम उस ज़माने के वास्तुरचनाकारों की सोच की दाद देते हैं। इस तरह की रचना का निर्माण केवल कुशलता से नहीं किया जा सकता, बल्कि उसके लिए विज्ञान की जानकारी रहना भी ज़रूरी है।

इस रचना का उपयोग जब यहाँ पर एक बड़ा नगर उसके राजा के साथ बसा करता था, तब सबसे अधिक होता था।

‘बल हिसार’ नाम की जगह पर कुछ सैनिक तैनात किये गये रहते थे। प्रवेशद्वार के पास यदि कुछ गड़बड़ी हो रही है यानी कोई दुश्मन हमला बोल रहा है; इसकी जानकारी मिलते ही प्रवेशद्वार पर तैनात किये गये सैनिक इसकी सूचना ठेंठ ‘बल हिसार’ पर तैनात किये गये सैनिकों को दे देते थे और वह भी बिलकुल सरल पद्धति से, बिना किसी यन्त्र का इस्तेमाल किये, सिर्फ़ कुदरत और विज्ञान की सुसंगति से की गयी रचना के माध्यम से। इस बात की सूचना मिलते ही सारे क़िले की सुरक्षा यन्त्रणा अपने काम में जुट जाती थी और क़िले के साथ साथ उसमें बसनेवाले नागरिकों की भी सुरक्षा की जाती थी।

इस अनोखी रचना को देखने के बाद आइए चलते हैं क़िले की प्रमुख रचनाओं को देखने।

इस पूरे क़िले में कई राजमहल थे, जिनमें राजा और उनका परिवार रहता था। शस्त्र-अस्त्रों के भण्डार, अनाज के भण्डार, प्रार्थनास्थल, तरह तरह के दालान, अश्‍वशाला इन जैसी कई रचनाएँ थी। उनमें से कुछ ही आज सुस्थिति में हैं।

सुस्थिति में रहनेवाले महलों और दालानों की दीवारों एवं खम्भों पर नक़्काशी काम किया हुआ दिखायी देता है और साथ ही मनमोहक मोरपंखयुक्त मोर और सिंह भी तराशे गये हैं।

कहा जाता है कि इस क़िले में से कई सुरंगों का निर्माण किया गया था और वे सुरंगें क़िले के भीतर और बाहर भी खुलती थीं।

इस क़िले की एक और विशेषता है, यहाँ पर की गयी जल आपूर्ति की व्यवस्था। आज भी यह व्यवस्था एक मिसाल है। क़िले में जल की आपूर्ति करने के लिए मिट्टी के पाईपों का एक नेटवर्क ही बनाया गया था। ऊँचाई पर, अलग अलग स्तर पर बनायी गयी टंकियाँ यहाँ पर मौजूद थी और उन टंकियों में विशिष्ट पद्धति से जल चढाया जाता था और वहीं से मिट्टी के पाइपों के माध्यम से सारे क़िले में विभिन्न जगहों तक पहुँचाया जाता था।

‘कलामंदिर’ यह क़िले का वह हिस्सा है, जहाँ राजाओं का मनोरंजन करनेवाले कलाकार तरह तरह के रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किया करते थे।

इस क़िले के वायुवीजन की यानी व्हेंटिलेशन की भी अपनी खासियत है। यहाँ के महलों में बाहर से आनेवाली हवा और यहाँ से बाहर निकलनेवाली हवा का अच्छा तालमेल बिठाया गया है। लगता है कि जैसे ए.सी. ही लगाया है। यह हुनर उस ज़माने के वास्तुरचनाकारों का है।

इस क़िले के अहाते में ही नया क़िला दिखायी देता है।

चलिए, सारा क़िला तो हमने देख लिया। अब गोलकोंड़ा को अलविदा कहकर लौटने का वक़्त भी हो गया। अब चलते हैं हैदराबाद शहर। राह में गोलकोंड़ा के गतवैभव से संबंधित कुछ बातें भी करते हैं।

इस वैभवशाली राजधानी के शासकों के खज़ाने में किसी ज़माने में अनमोल हीरें थे यह तो हम जान ही चुके हैं। लेकिन आज गोलकोंड़ा तो छोड़िए, हमारे देश में भी उन्हें हम देख नहीं सकते।

अब हम उन्हें देख तो नहीं सकते, लेकिन उनके बारे में जानकारी तो अवश्य प्राप्त कर सकते हैं।

गोलकोंड़ा के आसपास की खानों में से मिले हुए ‘कोहिनूर’, ‘दर्या-ए-नूर’, ‘होप डायमंड’ इन जैसे हीरों ने यहाँ के वैभव को शिखर पर चढा दिया था।

‘कोहिनूर’ यह मशहूर हीरा बहुत ही अनमोल एवं खूबसूरत माना जाता है। १०५ कॅरट वज़नवाला यह हीरा कई शासकों के खज़ाने की शान था। पुराने समय में यह दुनिया का सबसे बड़ा हीरा माना जाता था।

‘दर्या-ए-नूर’ यह गोलकोंड़ा की खान में पाया गया १८२ कॅरट वज़नवाला हीरा दुनिया का सब से बड़ा हीरा माना जाता है। फ़ीके गुलाबी रंग का यह हीरा है। हीरे के रंगों में इस तरह का रंग बहुत ही दुर्लभ माना जाता है।

‘होप डायमंड’ यहाँ की ही खानों में से प्राप्त हुआ लगभग साढे पैतालिस कॅरट वज़नवाला हीरा है और इसका रंग गहरा नीला है।

इन सब हीरों का अध्ययन दुनियाभर के अध्ययनकर्ताओं ने किया है। इनमें से प्रत्येक हीरा कुछ सदियों पूर्व खान में से बाहर निकाला गया है।

गोलकोंड़ा के हीरों के बारे में तो हमने जानकारी हासिल कर ली। अब चलते हैं ‘हैदराबाद’ की ओर।

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