काशी भाग-१

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प्रकाश का और मनुष्य का क़ाफ़ी क़रीबी रिश्ता है। मॉं की कोख से जन्म लेने के बाद यह प्रकाश ही उस बालक को आसपास की सृष्टि का ज्ञान कराता है। फिर चाहे वह प्रकाश सूरज का हो, ट्यूबलाईट का हो या मोमबत्ती का। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह प्रकाश ही मनुष्य को आसपास की परिस्थिति का ज्ञान करानेवाला है। वह प्रकाश फिर ज्ञान का भी हो सकता है। इस ज्ञान के प्रकाश की नगरी है, ‘काशी’।

हमारे भारतवर्ष में प्राचीन समय से काशीयात्रा के पुण्य को महान समझा जाता है और कम से कम एक बार तो मुझे काशीयात्रा करनी चाहिए, यह सभी की इच्छा रहती है। इस काशीयात्रा के कारण ही लगभग सभी लोग काशी के बारे में जानते हैं।

‘काश्’ इस संस्कृत धातु से ‘काशी’ शब्द बना है। ‘काश्’ का अर्थ है- प्रकाशित होना, चमकना। जो ज्ञान का प्रकाश प्रदान करती है, वह ‘काशी’। मनुष्य को उसके आत्मस्वरूप का ज्ञान जो कराती है, वह काशी।

काशीक्षेत्र में मृत्यु हो जाने से वह मनुष्य मुक्त हो जाता है, ऐसी प्राचीन समय से काशी की महिमा गायी जाती है, इसीलिए मनुष्य की मुक्ति के मार्ग की दृष्टि से भी काशी को देखा जाता है।

इसी काशीनगरी को आज हम ‘वाराणसी’ और ‘बनारस’ इन नामों से जानते हैं।

जिस के बारे में भारतीयों के मन में अपरंपार श्रद्धा है, ऐसी गंगा के तट पर बसी यह नगरी है। उत्तरप्रदेश की यह काशीनगरी या वाराणसीनगरी या बनारस शहर यह सात मोक्षदायक पुरियों में से एक है और बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग यहॉं पर है।

‘वरुणा’ और ‘असी’ इन दो नदियों के बीच में बसी हुई होने के कारण इस नगरी को ‘वाराणसी’ कहा जाता है।

Kashi-Vishwanath-Temple

काशी के वाराणसी एवं बनारस इन नामों के अलावा और भी कईं नाम हैं। आनन्दकानन, अविमुक्त, महाश्मशान इन नामों से भी यह पहचानी जाती है। काशीनगरी यह भगवान शिवजी का स्थान है और शिव-पार्वतीजी हमेशा यहॉं निवास करते हैं, इसीलिए इसे ‘अविमुक्त’ कहा जाता है। भगवान शिवजी को यहॉं पर आनन्द का लाभ होता है, इसीलिए इसे ‘आनन्दकानन’ कहते हैं। पुराणों में काशी के बारे में यह कहा गया है कि यह नगरी शिवजी के त्रिशूल पर स्थित हैऔर प्रलयकाल में भी वह नष्ट नहीं होती; इसीलिए जब प्रलय हो जाता है, तब पंचमहाभूत यहॉं पर शव अर्थात् जड़ रूप में शयन करते हैं, अत एव इसे ‘महाश्मशान’ कहते हैं। पद्मपुराण में कहा गया है कि कल्प के अन्त में भगवान शिव यहॉं रहकर ही समस्त सृष्टि का लय करते हैं, इसीलिए इस स्थान को ‘महाश्मशान’ कहते है।

वैदिक धर्म के समान ही बौद्ध तथा जैन धर्म की दृष्टि से काशी का स्थान अनन्यसाधारण महत्त्व रखता है।

जैनधर्मियों के विभिन्न तीर्थकल्पों में काशी के भिन्न-भिन्न चार भाग माने गये हैं – १) देववाराणसी, २) राजधानी वाराणसी, ३) मदन वाराणसी, ४) विजय वाराणसी।

बौद्ध साहित्य में इस नगरी के सुरुंधन, रम्म, मालिनी, सुदस्सन, ब्रम्हवद्धन, पुष्पवती आदि विभिन्न नाम पाये जाते हैं।

मानव ने जहॉं बहुत पुराने समय से वास्तव्य किया और जहॉं पर हमेशा मानव का वास्तव्य रहा है, ऐसा भूतल पर विद्यमान यह सबसे पुराना शहर माना जाता है।

काशी नगरी के इतिहास के कईं पहलु हैं।

भगवान शिवजी की नगरी ऐसी इस काशी के सन्दर्भ में एक पौराणिक कथा पायी जाती है।

शिवजी-पार्वतीजी का वास्तव्य हिमाचल पर था। हिमाचल यह पार्वतीजी का नैहर होने के कारण इस प्रकार वहॉं कायमस्वरूपी वास्तव्य करना उचित नहीं, ऐसा विचार पार्वतीजी के मन में उत्पन्न हुआ और उन्होंने शिवजी से उसका जिक्र किया। शिवजी ने भी उस पर गौर कर किसी एकाद सिद्धक्षेत्र में निवास करने का निर्णय लिया और काशीक्षेत्र उन्हें निवास की दृष्टि से पसन्द आया। फिर उन्होंने निकुम्भ नामक अपने एक गण को काशीक्षेत्र निर्जन करने के लिए कहा। उस गण ने शिवजी की आज्ञा का पालन करते हुए वहॉं के राजा दिवोदास को सीमापार किया और फिर वहॉं पर शिवजी ने अपने गणों के साथ निवास किया। उनके पीछे-पीछे स्वर्गस्थित देव तथा पातालस्थित नाग भी वहॉं पर निवास करने आ गएँ।

फिर दिवोदास ने तप किया और ब्रह्मदेवजी को प्रसन्न होकर उसे वर मॉंगने के लिए कहा। तब उसने यह वर मॉंगा कि देव दिव्य लोक में निवास करें, नाग पाताल में निवास करें और पृथ्वी मानवों के निवास के लिए हों। ब्रह्मदेवजी ने उसे ‘तथास्तु’ कहा और फिर इस वर के अनुसार काशी पर पुनश्च दिवोदास का राज्य स्थापित हुआ। शिवजी मन्दराचल पर निवास करने लगे, लेकिन उन्हें पुनश्च काशी लौटने की इच्छा थी। इसलिए दिवोदास काशी का त्याग करें, इस हेतु उन्होंने विभिन्न देव-देवताओं द्वारा प्रयास कियें। अन्ततः विष्णुजी इन प्रयासों में सफल हुएँ। उन्होंने ब्राह्मणरूप में दिवोदास को जो ज्ञानोपदेश दिया, उससे दिवोदास विरक्त हुआ और काशी त्यागकर विमान में बैठकर वह शिवलोक चला गया। फिर शिवजी मन्दराचल से उतरकर काशी में निरन्तर निवास करने के लिए आ गएँ।

इस कथा में कितनी सत्यता है और कितनी असत्यता, इसकी जानकारी नहीं, लेकिन इससे एक भावार्थ यह प्रतीत होता है कि शिवजी को हिमाचल से काशीक्षेत्र में वास्तव्य के लिए लानेवालीं देवी पार्वती थीं। हिमाचल तक हर एक मानव का पहुँचना बहुत ही कठिन है। मानव की इस मर्यादा को ध्यान में रखकर उस निर्गुण ब्रह्म को जहॉं तक मानव पहुँच सकें, ऐसे काशीक्षेत्र में अर्थात् सगुण रूप में लानेवालीं, वह देवी पार्वती। परमात्मा को निर्गुण रूप से सगुण रूप में केवल उनकी शक्ति ही लाती है। निर्गुण से सगुण रूप में आना अर्थात् प्रकाशित करना। परमात्मा को सगुण रूप में लाकर मानव को उनका ज्ञान करा देना। इसीलिए देवी पार्वती के कहेनुसार शिवजी काशीक्षेत्र में निवास के लिए आ गएँ। परमात्मा ही मूल प्रकाश और मूल ज्ञान हैं और इस बात की अनुभूति जिस क्षेत्र मे प्राप्त होती है, वह काशीक्षेत्र।

इसवीपूर्व छठी सदी में अर्थात् जनपदयुग में काशी का समावेश सोलह महाजनपदों में होता था। व्याकरणकार पाणिनी तथा अष्टांगयोगकर्ता पतंजलि इन दोनों ने भी काशी जनपद का निर्देश किया है।

अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यकोपनिषद और जैमिनीय ब्राह्मण इनमें काशी में निवास करनेवालें काशी अथवा काश्य इस नाम के लोगों का निर्देश मिलता है। इन्हीं लोगों ने मूलतः इस नगरी का निर्माण किया, ऐसा कहा जाता है। ब्राह्मण काल में भी ये लोग प्रसिद्ध थें।

काशी नगरी और आयुर्वेद का भी बहुत पुराना रिश्ता है। आयुर्वेद के शल्यतन्त्र(सर्जरी) इस विषय के प्रणेता आचार्य सुश्रुत इन्होंने काशिराज दिवोदास धन्वन्तरी से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। सुश्रुत के समेत उनके वैतरण, औरभ्र, औपधेनव, करवीर्य, गोपुररक्षित, पौष्कलावत इन सहाध्यायियों को भी काशिराज दिवोदास धन्वन्तरी ने आयुर्वेद का उपदेश किया था।

काशी के इतिहास के अन्य पहलुओं पर अगले लेख में ग़ौर करेंगे।

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