हैदराबाद भाग-५

महाशिवरात्रि’ के पावन पर्व पर हमने इस श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन शिवलिंग के दर्शन किये। प्रमुख गर्भगृह में स्थित इस शिवलिंग की ऊँचाई आठ अंगुल है ऐसा कहा जाता है। इस प्रमुख मन्दिर की दीवारें पत्थरों से बनायी गयी हैं और उनपर विभिन्न प्रकार के शिल्प, कथाप्रसंग तराशे गये हैं। यहाँ पर मनाये जानेवाले उत्सवों में ज़ाहिर है कि ‘महाशिवरात्रि’ यह एक महत्त्वपूर्ण उत्सव है और वह लगभग एक सप्ताह तक मनाया जाता है। इस उत्सव के दौरान श्रद्धालुओं की भीड़ यहाँ पर उमड़ती है।

इस प्रमुख मन्दिर के सामने ही हमें विजयनगर के राजा द्वारा पंद्रहवीं सदी की शुरुआत में बनाया गया शिल्प-अलंकृत ‘मुखमंडप’ दिखायी देता है। प्रमुख मन्दिर और मन्दिर के पूर्वीय प्रवेशद्वार के बीच में दो बहुत ही शानदार मंडप दिखायी देते हैं। अरे, वह देखिए, उनमें से एक मंडप में शिववाहन नन्दि विराजमान हैं।

प्रमुख मन्दिर से कुछ ही दूरी पर एक और मन्दिर है और यहाँ का शिवलिंग बहुत ही प्राचीन माना जाता है। इसे ‘वृद्ध मल्लिकार्जुन मन्दिर’ कहा जाता है। लेकिन यहाँ पर शिवलिंग के सामने नन्दि दिखायी नहीं देते।

इस मन्दिर के गोपुरों की पुनर्रचना विजयनगर के राजा ने की, ऐसा कहा जाता है। मन्दिर का उत्तरी गोपुर बहुत ही सुन्दर है। इसी मन्दिर के अहाते में एक अनोखा पेड़ है, जिसे ‘त्रिफलेश्‍वर वृक्षम्’ कहा जाता है। कहते हैं कि यह वृक्ष तीन पेड़ों के एकत्रीकरण से बना है। एक ही शिवलिंग में तराशे गये सहस्र शिवलिंग यहाँ हमें दिखायी देते हैं और इस शिवलिंग को ‘सहस्रलिंगम्’ कहा जाता है।

मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन करने के बाद आइए अब चलते हैं, भ्रमराम्बा के दर्शन करने। देवी माँ यहाँ पर ‘भ्रमराम्बा’ इस नाम से विराजमान हैं। उनके इस नाम के बारे में एक कथा बतायी जाती है। यहाँ पर स्थित एक असुर का विनाश करने के लिए देवी माँ ने भ्रमर का यानी भौंरे का रूप लिया और उस असुर का नाश किया इसीलिए उनका पूजन ‘भ्रमराम्बा’ इस नाम से किया जाने लगा।

इस श्रीशैल पर्वत के चारों ओर जो आठ पर्वतशिखर हैं, उन्हें रत्नों के नाम दिये गये हैं।

देखिए, बातें करते करते एक बात तो बताना मैं भूल ही गयी। हमने जिन भ्रमराम्बा के दर्शन किये, वहाँ प्रमुख मन्दिर के पीछे के एक स्थान में एक छोटे से छिद्र में से भौंरे की तरह गुंजन सुनायी देता है, ऐसा कहा जाता है।

यहाँ आने के लिए चार दिशाओं में चार प्रवेशद्वार हैं और वे त्रिपुरांतकम्, अलंपुरम्, सिद्धवटम् और उमामहेश्‍वरम् (महेश्‍वरम्) इन नामों से जाने जाते हैं। इनके अलावा अन्य चार प्रवेशद्वार भी हैं। उनके नाम हैं – ‘एलेश्‍वरम्’, ‘पुष्पगिरि’, ‘संगमेश्‍वरम्’ और ‘सोमशिला’।

इस शिवलिंग के ‘मल्लिकार्जुन’ इस नाम के संदर्भ में एक और कथा है।

पांडव जब वनवास में थे, तब उनके राज्य एवं अधिकारों को भी छीना गया था। लेकिन अपने सामर्थ्य पर भरोसा रहने के कारण वनवास समाप्त होने के बाद हम राज्य पुनः प्राप्त कर लेंगे, इस बात पर उन्हें यक़ीन था। लेकिन उनका बल जाननेवाले व्यासजी ने अर्जुन से श्रीपर्वत पर जाकर शिवजी की आराधना करने के लिए कहा। उनका कहा मानकर अर्जुन ने श्रीशैल पर्वत पर जाकर आराधना की। तब शिव-पार्वतीजी अर्जुनपर प्रसन्न हो गये। इस पर्वत पर आराधना करनेवाले अर्जुन पर शिवजी प्रसन्न हुए, इसलिए इस क्षेत्र का नाम ‘मल्लिकार्जुन’ हो गया। पर्वत को यहाँ की भाषा में ‘मलै’ कहते हैं। इस पर्वत पर यानी मलै पर अर्जुन को शिवजी से अनुग्रह प्राप्त होने के कारण इस क्षेत्र का नाम ‘मल्लिकार्जुन’ हो गया।

श्रीशैलपर रहनेवाला मल्लिकार्जुन का लिंग स्वयंभू माना जाता है और इस क्षेत्र को ‘दक्षिण कैलास’ भी कहा जाता है।

यहाँ के ‘चेंचु’ नाम के स्थानीय निवासियों को ‘मल्लिकार्जुन’ में दृढ विश्‍वास है और यह सदियों से है। चेंचुओं में इस जगह से जुड़ी कई कहानियाँ प्रचलित हैं। एक लोककथा के अनुसार शिवजी यहाँ के निवासियों के आराध्य हैं और ये निवासी स्वयं को इस स्थान के रक्षणकर्ता मानते हैं।

इस मन्दिर की दीवारों पर कई कथाप्रसंग, दैवत आदि तराशे गये हैं। साथ ही यहाँ पर धातु से बनी कुछ मूर्तियाँ भी हैं।

इन मूर्तियों में से एक है नृत्यमुद्रायुक्त शिवजी की मूर्ति। अध्ययनकर्ताओं की राय में यह तांडव करनेवाले शिवजी की मूर्ति है। यह बड़ी ही खूबसूरत मूर्ति है। शिवजी के ऊपर के दाहिने हाथ में डमरू है, वहीं नीचे का दाहिना हाथ अभयहस्त स्वरूप में है। ऊपर के बाये हाथ में अग्नि की ज्योत है और नीचे का बाया हाथ गजहस्त स्थिती में है। इस मूर्ति में शिवजी एक राक्षस की पीठ पर खड़े हैं और उन्होंने उस राक्षस का मर्दन किया है। उस राक्षस का नाम है ‘अपस्मार’। कुछ लोगों की राय में इस मूर्ति के द्वारा विश्‍व की उत्पत्ति, स्थिती और लय को दर्शाया गया है।

दूसरी एक मूर्ति है, ‘सोमस्कंद’। इस मूर्ति में कमल के आसन पर बैठे हुए शिवपार्वतीजी हैं और बालक स्कंद उनके बीच में खड़े हैं।

शिव-पार्वतीजी और स्कंद यानी कार्तिकेयजी से संबंधित एक कथा इस क्षेत्र के संदर्भ में बतायी जाती है।

एक बार कार्तिकेय शिव-पार्वतीजी से रुठकर यहाँ आकर रहे। उन्हें ढूँढते ढूँढते शिव-पार्वतीजी भी यहाँ इस पर्वत पर आ गये और यहीं पर बस गये। तब से लेकर आज तक उनका वास यहीं पर है।

श्रीशैलपर कई संतों-साधकों ने उपासनाएँ कीं। लेकिन इस श्रीशैल के संदर्भ में एक अनोखी जानकारी प्राप्त हुई।

आयुर्वेद में विभिन्न प्रकारके खनिज द्रव्यों से दवाइयाँ बनायी जाती हैं। इस औषधि शाखा को ‘रसशास्त्र’ कहा जाता है। पुराने समय में कई आचार्य अपने शिष्यों को इस औषधि शास्त्र का ज्ञान देते थे। यह ज्ञान उनके शिष्यों तक ही सीमित रहता था और इसी प्रक्रिया में से कई रसाचार्यों के विभिन्न संप्रदायों का जन्म हुआ। पुराने समय में इसी जगह रसविद्या का प्रशिक्षण दिया जाता था और यह स्थान रसविद्या के अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र था, ऐसी जानकारी प्राप्त होती है।

बताया जाता है कि श्रीनृसिंह सरस्वतीजी अवतार समाप्ति के समय यहाँ आये थे और यहाँ की पातालगंगा के प्रवाह में से उस पार जाते हुए बीच में ही गुप्त हो गये।

यहाँ की दीवारों पर तराशे गये चित्रों में एक प्रसंग है। अपने गणों के साथ शिवजी निकले हैं और उनके उस रूप को देखकर लोग स्तब्ध होकर उन्हें निहार रहे हैं।

इस संपूर्ण परिसर में अन्य मंदिर भी हैं और अमृतकुंड, पापनाशन आदि तीर्थ भी हैं।

कृष्णा नदी यहाँ पर्वत की तलहटी से बहती है और उसे ‘पातालगंगा’ कहा जाता है। यहाँ कृष्णा नदी पर एक बाँध (डॅम) बनवाया गया है। दर असल बिजली का निर्माण करना यह इसे बनवाने के पीछे का प्रमुख उद्देश्य था, लेकिन आगे चलकर इस जल का उपयोग पीने तथा खेती के लिए किया जाने लगा। कुदरती सुंदरता से भरपूर रहनेवाले स्थान में यह बाँध बनाया गया है।

अब श्रीशैलम् के परिसर में पर्वत और पेड़-पौधें होने के कारण यहाँ पर तरह तरह के वन्य जीवों का रहना तो स्वाभाविक बात है। इसी बात को ध्यान में रखकर यहाँ पर एक अभयारण्य की स्थापना की गयी। यहाँ की वनसंपदा और कृष्णा के प्रवाह के कारण यहाँ पर तरह तरह के वन्य जीव तो हैं ही और साथ ही जलचर यानी पानी में रहनेवाले जीव भी हैं।

यहाँ के स्थानीय निवासियों के बारे में यानी चेंचु लोगों के बारे में हमने पढा। इनकी विशेषताओं को जतन करनेवाले म्युज़ियम की स्थापना भी यहाँ पर की गयी है, जो ‘ट्रायबल म्युज़ियम’ इस नाम से जाना जाता है।

श्रीशैलम् के परिसर ने हमारा मन मोह लिया। दो हफ़्तों से हम यहाँ पर हैं। लेकिन अब यहाँ से प्रस्थान करने की तैयारी करनी होगी। क्यों? हमें हैदराबाद जो देखना है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.