नेताजी-३२

सुभाषआख़िर ‘वह’ दिन आ ही गया। सुभाष, दिलीप और किटीश बन्दरगाह पर निःशब्द रूप से खड़े तो थे, लेकिन उस मौन में भी उनके बीच बातचीत हो रही थी। बोट बन्दरगाह में आ चुकी थी। हमारा मित्र अब हमें छोड़कर जानेवाला है, इस कल्पना से ही सुभाष के मित्र उदास हो गये थे; वहीं मेरा लाड़ला सपूत वापस लौट रहा है, इस कल्पना से भारतमाता निश्चित ही बहुत खुश हुयी होंगी। एक तरफदोस्तों के मन पर मायूसी छायी हुई थी; वहीं, दूसरी तरफ हमें सुभाष की प्रेरणा से, देर से ही सही, लेकिन एहसास तो हुआ और उस समय संवेदनशून्यता का प्रतीक बन चुकी भारत की सनदी सेवा – आय.सी.एस. को बीच में ही त्यागने का फैसला हमने लिया, इसका सन्तोष भी था। एक दो साल पहले सुभाष इसी तरह कोलकाता के बन्दरगाह पर खड़ा था। इसी तरह उसके दोस्त उससे विदा लेने के लिए इकट्ठा हुए थे। उस मोहमयी दुनिया में फसकर कहीं हमारा दोस्त सुभाष अपने ध्येय को भूल तो नहीं जायेगा, इस आशंका से दोस्तों के मन कतरा रहे थे। सुभाष के मन को भी एक अनामिक चिन्ता सता रही थी। लेकिन आज किसी भी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं थी। यदि कुछ था, तो वह था – मैं मेरे अन्तर्मन की आवा़ज सुनकर उसके अनुसार कृति करने में क़ामयाब रहा इसका सन्तोष। भारतमाता को ग़ुलामी की जंजीर में जकड़नेवाली शृंखला की एक कड़ी न बनने का सन्तोष। किसी बात को जीतने के बाद स्वेच्छा से उसका त्याग करने का सन्तोष। किसी न मिल सकनेवाली बात के लिए ‘वह मुझे नहीं चाहिए’ यह कहना और उसे परिश्रमपूर्वक हासिल करने के बाद उसका त्याग करने का जिग़र रखना इसमें  फर्क तो है ही; जो एक दुर्बल द्वारा प्रतिपादित शान्ति का उपदेश और सबल मनुष्य द्वारा प्रतिपादित शान्ति का उपदेश इनमें भी होता है।

लेकिन समय को इनमें से किसी भी बात का सुख-दुख न रहने के कारण वह अपनी नित्यगति से ही चल रहा था। अत एव निर्धारित समय पर बोट का हॉर्न बज ही गया। सुभाष ने दिल पर पत्थर रखकर दोस्तों से अलविदा कहा और बोट में कदम रखा। बोट ने प्रस्थान किया। हाथ हिलाते हुए दोस्तों से अलविदा कहते कहते किनारा दूर जाते जाते आख़िर ओझल हो गया। सुभाष ने गहरी सांस ली। जीवन का एक कालखण्ड बीत चुका था और एक नया मोड़ अब सामने आ रहा था।

उसका मन अब भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के बारे में सोच रहा था, अगली योजना निर्धारित कर रहा था। उतने में उसने एक बड़ी ही खुशी की ख़बर सुनी – उसी बोट से गुरुदेव रवींद्रनाथ टागोरजी भी यात्रा कर रहे थे। गुरुदेव रवींद्रनाथ टागोर! उस समय ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई भारतमाता की पीड़ा को अचूक शब्दों में अभिव्यक्त करनेवाले कवी के रूप में सारा भारत उन्हें जानता था। वे भी इसी बोट से सफर कर रहे हैं यह समझने के बाद सुभाष के मन में लड्डू फूटने लगे। वैसे तो प्रेसिडेन्सी कॉलेज के छात्रकाल में समाजकार्य करने के संबंध में उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए अपने कुछ दोस्तों के साथ सुभाष उनसे मिल चुका था। उस समय भारतमाता की स्थिति के बारे में उनके मर्मस्पर्शी विचार सुनकर सुभाष काफीप्रभावित भी हुआ था। उन्होंने सुभाष और उसके दोस्तों को देहातों में जाकर कार्य करने का परामर्श दिया था। सच्चे भारत का दर्शन शहरों में रहकर नहीं हो सकता, उसके लिए देहात में जाना आवश्यक है, यह गुरुदेव ने उन्हें समझाया था। सुभाष के जीवन के ओटन मामले के सन्दर्भ में भी – छात्र ने अध्यापक पर हाथ उठाना यह बात निन्दनीय ही है, यह दृढ़तापूर्वक कहते हुए भी, ‘….लेकिन यदि कोई अध्यापक भारतमाता के बारे में अनाप-शनाप बक रहा हो, तो छात्र भला उसे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?’ यह भी कहकर उन्होंने छात्रों का ही पक्ष लिया था। चारों दिशाओं से आलोचना सामना करनेवाले सुभाष के लिए उस समय गुरुदेव का यह विधान ‘डूबनेवाले को तिनके का सहारा’ इस कदर प्रतीत हुआ था।

काफीप्रतिष्ठित मानी जानेवाली आय.सी.एस. उपाधि अर्जित करने के बाद भी मातृभूमि की सेवा में जीवन व्यतीत करने के लिए एक झटके में उसका त्याग करनेवाले इस युवक के प्रति रवींद्रनाथजी के मन में प्रशंसा की भावना थी। जालियनवाला बाग़ हत्याकाण्ड में अँग्रे़ज सरकार के अमानुष चेहरे की पहचान होते ही एक ही झटके में, अंग्रे़ज सरकार द्वारा प्रदान की गयी ‘सर’ इस उपाधि का निषेधात्मक त्याग करनेवाले गुरुदेव, आय.सी.एस. का इस्तीफ़ा देने के पीछे रहनेवाली सुभाष की व्यथा को समझ सकते थे।

बोट के उस महीने भर के स़ङ्गर के दौरान सुभाष को गुरुदेव के विचार काफीक़रीब से सुनने मिले। उनकी चर्चाएँ प्रमुख रूप से भारतमाता और स्वतन्त्रतासंग्राम इन विषयों पर ही होती थीं। अत्युच्च एहसास की देन प्राप्त हो चुके एक कवि के संवेदनशील मन द्वारा महसूस की गयी वास्तविकता से उनकी जो एक ठोस मनोभूमिका बन चुकी थी, जो एक निश्चित विचारधारा बन चुकी थी, उसका सुभाष को काफीक़रीबी से दर्शन हुआ।

सुभाष के लिए सबसे बड़ी खुशी की बात थी, गुरुदेव की मशहूर कविताओं को उन्हीं की सुस्वर आवा़ज में सुनने का मौक़ा मिलना। कवि हमेशा ही कल्पनाओं की दुनिया में खोये रहते हैं, कल्पनाओं के महल बनाते रहते हैं ऐसा उनके बारे में कहा जाता है। लेकिन यहाँ पर सुभाष की मुलाक़ात एक ऐसे कवि के साथ हुई थी, जो सुभाष के सपनों को ही सच में उतारने की योजना अपनी वास्तववादी कविताओं द्वारा उसे सुना रहा था। उनके कई गीत सुभाष को कण्ठस्थ थे, उनके कई गीत सुभाष के मायूस मनःस्थिति में उसका सहारा बने थे, उसे अन्धेरों में दिशा दिखाने का काम इन गीतों ने किया था। उनका ‘अ‍ॅकला चलो रे, अ‍ॅकला चलो रे’ यह गाना तो सुभाष का मानो जीवनगीत ही बन चुका था – ‘यदि कोई मेरा साथ दे, तो ठीक है; लेकिन कोई मेरे साथ आये या न आये, मैं अपनी मंजिल को पाने के लिए अकेला चलता ही रहूँगा, लोगों को राह दिखाने के लिए अकेला जलता ही रहूँगा।’ यह गीत गुरुदेव के मुख से सुनते हुए सुभाष गद्गद हुआ था।

रवींद्रनाथजी ने सुभाष को भारत की राजकीय, सामाजिक परिस्थिति के बारे में भी विस्तारपूर्वक बताया। स्वतन्त्रतासंग्राम फिलहाल किस मुक़ाम पर है, यह भी निर्देशित किया। इस तरह सुभाष बोट पर के हर एक दिन को पूरी तरह चखकर ही गु़जार रहा था।

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