गुवाहाटी भाग-८

जनवरी महीने के आते ही उत्तरायण की आहट सुनायी देती है। जनवरी में आनेवाली मकरसंक्रान्ति के बाद तो सारी सृष्टि का रूप ही बदलने लगता है। कृषिप्रधान संस्कृति रहनेवाले हमारे भारत के हर एक प्रदेश का इस ऋतु-परिवर्तन के साथ घना रिश्ता है। वैसे देखा जाये तो हमारे अधिकतर त्योहार एवं उत्सव इस ऋतुचक्र से घनिष्ट रूप में जुड़े हुए हैं।

फ़िलहाल हम गुवाहाटी शहर में डेरा डाले हुए हैं। फिर यहाँ मनाये जानेवाले त्योहारों-उत्सवों का ऋतुचक्र के साथ क्या संबंध है यह जानते हैं।

गत कई लेखों से हम बार बार ‘बिहू’ इस त्योहार की बात कर रहे हैं। तो आइए, पहले ‘बिहू’ की जानकारी प्राप्त करते हैं।

असम की मिट्टी में एवं यहाँ के जनजीवन में अपनी जड़ें मज़बूत बना चुका ‘बिहू’। खेतीप्रधान असम में इस बिहू का संबंध यदि खेती से न होता, तो वही ताज्जुब की बात होती। जिस तरह ‘बिहू’ का संबंध फ़सल से है, उसी तरह उसका संबंध नवनिर्माण तथा पशुधन से भी है।

पुराने समय में यहाँ के निवासी अपनी पहली फ़सल को ईश्‍वर के चरणों में अर्पण करते थे और शान्ति-सन्तोष-समृद्धि की कामना करते थे और इसीमें से जन्म हुआ, ‘बिहू’ नाम के इस उत्सव का।

असम में साल में तीन बार अलग अलग नामों से यह ‘बिहू’ मनाया जाता है। ‘रोंगाली या रंगाली बिहू’, ‘भोगाली बिहू’ और ‘कोंगाली या कंगाली बिहू’ ये बिहू के तीन प्रकार हैं।

साधारणतः जनवरी के मध्य में ‘भोगाली बिहू’ मनाया जाता है। ‘रंगाली या रोंगाली बिहू’ मनाया जाता है अप्रैल के मध्य में, वहीं ‘कंगाली या कोंगाली बिहू’ अक्तूबर के मध्य में मनाया जाता है। भोगाली बिहू माघ के महीने में आने के कारण उसे ‘माघ बिहू’ भी कहते हैं। इसी तरह वैशाख में आनेवाले रंगाली बिहू को ‘बोहाग बिहू’ कहते हैं और कार्तिक में आनेवाले कंगाली बिहू को ‘काटी बिहू’ कहते हैं।

सबसे पहले बात करते हैं, माघ में आनेवाले ‘भोगाली बिहू’की। वैसे तो इसी महिने में इस बिहू को मनाया जाता है, लेकिन कभी कभी अगले महिने में भी भोगाली बिहू मनाया जाता है। भोगाली बिहू या माघ बिहू के समय फ़सल खेतों में लहराती रहती है और इसीलिए माहौल खुशी एवं उत्साह का रहता है।

बिहू की पूर्वसंध्या को ‘उरुका’ कहते हैं। उस दिन घर के पुरुष सदस्य खेतों में जाते हैं और वहाँ पर एक छोटी सी कुटिया का निर्माण करते हैं। उसे ‘मेजी’ कहते हैं। वहीं खेत में ही इकट्ठा होकर भोजन करने के लिए अस्थायी रूप में एक कुटिया बनायी जाती है। उसे ‘भेलाघर’ कहते हैं। उत्सव की पूर्वरात्री में सभी लोग यहाँ पर इकट्ठा होकर साथ में खाना खाते हैं, खुशियाँ मनाते हैं, एकदूसरे को शुभकामनाएँ, मिठाइयाँ देते हैं। मेजी के चारो ओर बैठकर गाने गाकर सभी उस रात जागते हैं। अगले दिन सुबह में ही स्नान करके सबसे पहले उस ‘मेजी’ नाम की कुटिया को जला दिया जाता है। फिर उस दिन पूजा, प्रार्थना आदि करके खुशियाँ मनायी जाती हैं। जलायी गयी ‘मेजी’ के कुछ हिस्से को ले आकर, अगले साल अच्छी फ़सल हो इस कामना के साथ खेत में डाला जाता है, यह भी पढने में आया। दिन भर मनोरंजन के कार्यक्रमों और खेलों का आयोजन किया जाता है। इस उत्सवकाल में अग्नि का बहुत महत्त्व रहता है।

माघ के महीने में धीरे धीरे सूर्य की उष्मा बढने लगती है और उसके बाद आनेवाले वैशाख में मनाया जाता है ‘रंगाली बिहू’। इस समय पेडोंपर उगे नये पत्तों और रंगबिरंगी फूलों से समूचे माहौल में चेतना भर जाती है।

सृष्टि जब तरह तरह के रंगों से रंगी हुई होती है, उस समय मनाया जाता है, ‘रंगाली बिहू’। साधारण रूप से अप्रेल के मध्य में और असम के नववर्ष की शुरुआत में यह मनाया जाता है। इस अवसर पर घर के मवेशियों को भी नहलाया जाता है।

लगभग सात दिनों तक यह उत्सव चलता है। इसका पहला दिन रहता है, गतवर्ष का अन्तिम दिन, जिसे ‘गोरु बिहू’ कहा जाता है। इसी दिन मवेशियों का नहलाकर उनकी पूजा की जाती है, उन्हें प्यार से खिलाया जाता है।

नये वर्ष का पहला दिन यानी बिहू का दूसरा दिन होता है, ‘मनु बिहू’। इस दिन घर की साफ़सफ़ाई करके, नये कपड़े पहनकर एकदूसरे को शुभकामनाएँ दी जाती हैं। इस दिन घर के बुज़ुर्गों को गमोसा, रूमाल देकर उनके प्रति सम्मान की भावना व्यक्त करके उनसे आशीर्वाद लिया जाता है।

इस बिहू के उत्सव के खान पान में पिठा, तरह तरह की मिठाइयाँ और जोलपान का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

बिहू का तीसरा दिन रहता है, ईश्‍वर से आशीर्वाद लेने का और ‘नया वर्ष सुखसमृद्धि भरा जाये’ इस भाव के साथ उनसे प्रार्थना करने का।

इस रंगाली बिहू के उत्सव में बिहू गीतों एवं नृत्यों से चार चाँद लग जाते हैं विशिष्ट्य लय के साथ किया जानेवाला बिहू नृत्य इस उत्सव की एक प्रमुख विशेषता है।

रंगाली बिहू उत्सव में बिहू गीतों के अलावा एक विशेष प्रकार के गीत गाये जाते है। इन गीतों को ‘हुसोरी या हुकरी’ कहा जाता है। इन गीतों को गानेवाले ग्रुप्स घर घर में जाकर इन्हें गाते हैं। हर एक गाँव में ये गीत गानेवाले ग्रुप्स होते हैं। शुरुआत में प्रार्थनाघर में जिसे ‘नामघर’ कहा जाता है, उसमें जाकर प्रार्थना करते हैं और फिर प्रत्येक घर के प्रवेशद्वार के पास जाकर ढोल बजाकर अपने आगमन की सूचना देते हैं। फिर घर के आँगन में प्रवेश करके वहाँ पर घेरा बनाकर आशीर्वादवाचक गीत गाते हैं। घर के यजमान उन्हें पान-सुपारी या अन्य सम्मानदायक वस्तुएँ देकर उनका स्वागत करते हैं। हुसोरी गानेवाले अपने गीतों के द्वारा प्रत्येक घर को आशीर्वाद देते हैं, ऐसा भी कहा जाता है। यह भी पढने में आया कि यदि किसी दुखद घटना के कारण हुसोरी गीत गानेवाले घर के आँगन में नहीं आ सकते, तो वे प्रवेशद्वार पर से ही आशीर्वाद देकर अगले घर की ओर रवाना होते हैं। हुसोरी गीतसमूह के सदस्य पुरुष रहते हैं।

सात दिनों तक चलनेवाले इस रंगाली बिहू को ‘हाट बिहू’ भी कहा जाता है। इस बिहू के हर दिन को अलग अलग नाम दिया गया है।

कार्तिक के महीने में आता है, ‘कंगाली बिहू या काटी बिहू’। इस बिहू के समय भंडार में रहनेवाला अनाज ख़त्म होने आया हुआ रहता है। इसलिए अब नयी फ़सल के आने तक जितना बाक़ी है उसी अनाज में गुज़ारा करना होता है। सारांश, अनाज के मामले में इस समय कमी की स्थिती रहती है। इसीलिए इसे ‘कंगाली बिहू’ कहते हैं, ऐसा पढने में आया।

इस बिहू उत्सव में घर के आँगन के तुलसीवृंदावन के सामने एक दीप प्रज्वलित किया जाता है। साधारणतः एक महीने तक प्रतिदिन तुलसीवृन्दावन के साथ साथ अनाज का भंडार एवं खेत में भी दीप प्रज्वलित रखा जाता है। इसी समय बाँस की ऊँचीं लाठियों पर दीये लगाकर रखे जाते हैं, जिन्हें ‘आकाक्शी गंगा’ या ‘आकाश बोन्ती’ कहा जाता है।

असम में कई त्योहार एवं उत्सव मनाये जाते हैं। यहाँ की जनजातियों के भी अपने ख़ास उत्सव हैं, लेकिन इन सब में बिहू का स्थान अनोखा ही है।

सतरहवीं सदी में किसी अहोम राजा ने बिहू नृत्य करनेवाले नर्तकों को नृत्य के लिए न्योता दिया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। लेकिन बिहू नृत्य के उद्गम के बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं होती।

बिहू नृत्य में स्त्री और पुरुष दोनों भी शामिल होते हैं। नवनिर्माण यह बिहू नृत्य की प्रमुख संकल्पना है। इसमें कभी सिर्फ़ महिलाओं का, कभी स्त्री-पुरुषों का एकत्रित रूप में, तो कभी दोनों का अलग अलग लेकिन एक ही स्थान पर नृत्य होता है।

इस अवसर पर गाये जानेवाले छोटे छोटे गीत यह इस नृत्य का प्रधान अंग है। ढोल, ताल, बान्ही, गोगोन्त, पेपा, टोका आदि पारंपरिक वाद्य नृत्य-गीतों का साथ देते हैं। इस नृत्य की अपनी एक गति, लय एवं ताल होता हैं। स्त्री-पुरुषों के एकत्रित नृत्य में या अलग अलग किये जानेवाले नृत्य में विशिष्ट क़तार में या वर्तुल में नृत्य करने की पद्धति है। इसमें कभी स्त्री-पुरुषों के संमिश्र नृत्य में महिलाएँ नृत्य करती हैं और पुरुष वाद्य बजाते हैं।

देखिए, शाम ढलने लगी है। गुवाहाटी की सैर करते हुए हमने गुवाहाटी के साथ साथ असम के बारे में भी काफ़ी जानकारी हासिल की। अब रेलवे स्टेशन पर हमें अगले स्थान की ओर ले जानेवाली रेलगाड़ी हमारी राह देख रही है। तो चलिए, चढते हैं उस ट्रेन में!

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