गॉटफ्रिड लेबनिझ

गणित, इतिहासविशेषज्ञ, आंतरराष्ट्रीय राजनीति और शास्त्रज्ञ ऐसी अनेक भूमिकाएँ और उतनी ही कुशलता से सभी क्षेत्रों में भाग लेनेवाले बहु आयामी व्यक्तित्व के रूप में गॉटफ्रिड लेबनिझ मशहूर हैं। १६४६ में जर्मनी के लेपझिग में जन्में लेबनिझ के जीवन के का़फी वर्ष अमीर लोगों की सेवा करने में बीते। ऐसा होने पर भी उनके बौद्धिक क्षेत्र की प्रगति कुंठित नहीं हुई।

गॉटफ्रिड लेबनिझलेबनिझ के पिता मॉरल लेबनित्झ लेपझिग विद्यापीठ में प्राध्यापक थे जिसके कारण उम्र के छठें वर्ष से ही उन्हें अपने पिता की प्रायव्हेट लायब्ररी में पुस्तकें पढ़ने को मिलती थी। इसीलिए उनके अंदर वाचन की रुचि निर्माण हो गई थी। बारह वर्ष की उम्र में उन्होंने स्वयं ही लॅटिन भाषा सीखी। जिसका उन्होंने अपने जीवन में मुक्त रूप से उपयोग किया। आगे चलकर कानून इस विषय में डॉक्टरेट हासिल करके, गणित विषय के साथ धर्मशास्त्र, इतिहास, वाङ्मय, तत्त्वज्ञान इत्यादि विषयों में भी उन्होंने निपुणता हासिल की। युवावस्था में ही उन्होंने अपने लेबनित्झ इस उपनाम की स्पेलिंग बदलकर लेबनिझ लगाने की शुरुआत की।

१६६६ में उन्होंने तत्त्वज्ञान विषय के ‘ऑन द आर्ट ऑफ कॉम्बिनेशन्स’ इस पुस्तक को प्रसिद्ध किया।

लेबनिझ की तर्कशास्त्र और गणित विषय के प्रति होनेवाली रुचि के कारण ‘वस्तू ये अंक की तरह होती हैं’ उनके इस विचारशैली से व्यक्त होते हैं। अंकों के जोड़ से गुणाकार कर सकते हैं और उससे जटिल संख्या तैयार की जा सकती है। इसी प्रकार से निरवयव वस्तू के विधान से जटिल वस्तूओं के बारे में विधान तैयार कर सकते हैं।

संख्या शास्त्र के विकास में लेबनिझ का बहुत बड़ा योगदान है। पास्कल के जोड़, घटाना (बेरीज, वजाबाकी) करनेवाले गणक यंत्र की अपेक्षा लेबनिझ ने सत्रहवें (१७) शतक में खोज़ किया गया गणक यंत्र अधिक अच्छा था। गणकशास्त्र में आजकल प्रचलित संख्या लेखन की नींव (पाया) लेबनिझ के संशोधन पर ही रखी गयी है, ऐसा माना जाता है। गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल निकालना इस गणकयंत्र की मदत से का़फी महत्त्वपूर्ण साबित हुए।

जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, इटली इत्यादी देशों में उन्होंने बहुत बड़े प्रमाण में प्रवास किया। पॅरिस और लंडन के प्रवास के दौरान प्रख्यात गणितज्ञ हायजीन और बॉइल से उनकी मुलाकात हुई। इस मुलाकात के परिणाम स्वरूप लेबनिझने स्वतंत्ररूप से गणनशास्त्र (कॅल्क्युलस) और संयोगिक विश्‍लेषण के बारे में अपना संशोधन शुरु किया।

‘अपरिमित श्रेणी’ (इनफिनिट सिरीज) विषय पर संशोधन करके उन्होंने उसे प्रसिद्ध किया। गणित विषय के अतिरिक्त विविध विषयों पर भी वे अपने विचार व्यक्त करते थे। सन् १७०० में उन्होंने प्रशिया के राजा पहले फेड्रिक के मत को बदलकर ‘प्रशियन अ‍ॅकॅडमी ऑफ सायन्सेस’ की स्थापना की। लेबनिझ इस संस्था के पहले अध्यक्ष थे। आधुनिक संख्याशास्त्र की प्रगति उन्हीं के संशोधन के कारण हुई। भौतिकशास्त्र और तंत्रज्ञान इन दोनों क्षेत्रों में भी उनका काम महत्त्वपूर्ण माना जाता है। राजकारण, कानून, इतिहास, अध्यात्म, फिलोलॉजी और कुछ प्रासंगिक इत्यादि विविध विषयों पर उन्होंने कई लेख लिखे।

सन् १७११ में यूरोप के उत्तरी भाग में प्रवास करते समय रशिया के झार पिटर द ग्रेट ने लेबनिझ को हॅनोव्हर में रोका। एक वर्ष राजकीय योजना के बारे में सलाह मशवरा करके अगले दो वर्ष लेबनिझ ने व्हिएन्ना यें व्यतीत किए।

हॅनोव्हर में ही सन् १७१६ में उनका निधन हो गया। लंडन के राजघराने, रॉयल सोसायटी के द्वारा उस समय इस घटना पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। लेबनिझ के द्वारा उपयोग में लाये गए चिन्ह और संज्ञा प्रभावी होते हुए आसान भी थी। इसीलिए आगे चलकर उन्हीं का उपयोग किया जाने लगा। ब्रिटीश गणितज्ञों ने मात्र, इस समय आडमुठे धोरण को स्विकारते हुए न्यूटन का कहना ही अधिक योग्य है यही जिद करके चलाया।

लेबनिझ के चिह्नों को न स्वीकारने के कारण और संश्‍लेषण पद्धति के बारे में अरुचि होने के कारण अठारहवें शतक में गणितीय संशोधन में अधिक प्रगति नहीं हो सकी। इसी समय यूरोप में गणित में काफी महत्त्वपूर्ण कार्य हुए। सन् १८५४ वर्ष में बूल नामक ब्रिटीश गणितज्ञ ने ‘लॉज़ ऑफ थॉट’ यह पुस्तक प्रकाशित करके लेबनिझ के प्रतीकों और संज्ञाओं को स्वीकार करने से होनेवाले लाभ को ब्रिटीश गणितज्ञों को समझाया और फिर ब्रिटन में गणितज्ञों की परंपरा फिर से शुरु हो गई।

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