हिप्पोक्रॅटिस

‘खुबसूरत’ इस हिन्दी फ़िल्म में रेखा ने मध्यवर्ती भूमिका निभायी थी। अधिकतर लोगों ने शायद यह फ़िल्म देखी होगी। इस फ़िल्म के अन्त में हम देखते हैं – फिल्म के अभिनेता अशोक कुमार को आया हार्टअटैक, रेखा के द्वारा हार्ट स्पेशालिस्ट को किया गया फ़ोन, उस डॉक्टर की ओर से किसी अन्य अपॉईंमेन्ट के होने का दिया गया कारण और उसके पश्‍चात् दी गयी सीख कि आप लोग अपने व्यवसाय के प्रति जो शपथ (ओथ) लेते हो उसे ईमानदारी से निभाना सीखो और आगे फ़िल्म हमेशा की तरह आगे बढ़ती है। तो क्या होती है यह ‘ओथ’ यानी शपथ और इस शपथ का आरंभ किसने किया? इसके लिए हमें इतिहास के कुछ पन्ने पलटने पड़ेंगे, जिन्हें पलटना इन सब बातों को जानने के लिए आवश्यक भी है।

इसा पूर्व पाँचवी शताब्दी में ग्रीस में ‘एस्क्युपिअस’ को आरोग्यशास्त्र का देवता माना जाता था! और इन्हें प्रसन्न करते ही सभी रोगों से मुक्ति मिल जाती है, ऐसा लोगों का मानना था। मंदिर के पुजारियों को वैद्यक एवं आरोग्य के संबंध में सब कुछ पता चल जाता है और अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार वे उपाय भी बताते थे। परन्तु वैसे रोगों पर उपाय ढूँढ़ने के लिए कोई खास कोशिशें नहीं की जाती थीं। ईसापूर्व ४६० में ‘कॉस’ के टापू पर हिप्पोक्रॅटिस का जन्म हुआ था। हिप्पोक्रॅटिस के पिता हेरोक्लेडीस भी इन्हीं मंदिर के पुजारियों में से एक थे। यह स्वाभाविक है कि घर पर प्राथमिक शिक्षा, साहित्य एवं ज्ञान की उपलब्धता थी। इसके पश्‍चात् का अध्ययन उन्होंने अन्य वैद्यकशास्त्रज्ञों के पास जाकर पूरा किया। उन्होंने अपना ज्ञान एवं अनुभव बढ़ाने के लिए कुछ देशों की यात्रा भी की।

ज्ञानी एवं अनुभवी हिप्पोक्रॅटिस ने मेसॅडेनिया को अपने कार्य क्षेत्र हेतु चुन लिया। अ‍ॅथेन्स शहर में प्लेग की महामारी फ़ैल गई थी। उपचार हेतु हिप्पोक्रॅटिस को वहाँ पर भेजा गया। वहाँ पर उन्हें इस बात का पता चला कि जहाँ पर भट्टियाँ जलायी जाती हैं, जहाँ का वातावरण बहुत ही गरम होता है, वह स्थान रोगमुक्त होता है। इसलिए उन्होंने उष्ण एवं धुआँ युक्त वातावरण की व्यवस्था अ‍ॅथेन्स शहर के चिकित्सालयों में कर दी। इससे संक्रामक बीमारी का जोर कम हो गया। रोग निवारण हेतु, रोग परीक्षा, निरीक्षण एवं चिकित्सा को महत्त्व देकर यूरोप के इतिहास में ‘मानवी उपाय से ही रोगनिवारण का मार्ग दिखाई देता है’, यह उस समय दृढ़ता पूर्वक कहनेवाले वे प्रथम वैद्यकशास्त्रज्ञ थे। रोगों का विशेष कारण ढूँढ़ते समय अंधश्रद्धा एवं भ्रामक समझ को एक ओर रख देना चाहिए, यह उनका विशेष आग्रह था। वैद्यकशास्त्र यह हिप्पोक्रॅटिस के लिए एक कला थी। वहीं डेमॉक्रिट्स यह मित्र एवं विशेषज्ञों की ओर से उन्होंने दर्शनशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था। उत्कृष्ट वक्तृत्व, नेतृत्व इन सभी बातों का आकलन भी उन्होंने किया था।

उस कालखंड में बीमार पड़ने का मूल कारण ही अज्ञात अवस्था में होता है। काले जादू का प्रभाव, देवताओं का प्रकोप इन सब में उलझते चले जा रहे वैद्यकों को खुले प्रकाश में लाकर निरामय आरोग्य अर्थात शरीरस्थ चार तत्त्वों का संतुलन (रक्त, पित्त, श्‍वेत पित्त एवं कृष्ण पित्त) इस प्रकार के उसमें तत्त्व थे। मौसम, पानी, ग्रहमान आदि का परिणाम प्रकृति पर पड़ता है, परिस्थिति में बदलाव लाकर बीमारी पर नियंत्रण प्राप्त करना संभव है। मनुष्य के शरीर में स्वाभाविक तौर पर उष्णता होती है, यदि यह कम हो जाए तो मृत्यु भी हो सकती है। इसके साथ ही बीमारी ईश्‍वरी कोप से नहीं होती। पाप-पुण्य का एवं प्रकृति का संबंध नहीं होता। मन:शांति के लिए परमार्थी विचारों का महत्त्व भी उन्होंने प्रस्थापित किया। पहले उल्लेख किए गए चार तत्त्वों का पृथ्वी, आप, वायु, जल इस नैसर्गिक तत्त्वों के साथ भी संबंध जोड़ा गया था। प्राचीन भारतीय वैद्यक एवं चीनी वैद्यकशास्त्र इनके साथ का़फ़ी कुछ मिलता-जुलता यह एक लक्षणीय संजोग होना चाहिए।

आज के वैद्यकशास्त्र को अन्य का़फ़ी कुछ वैद्यक एवं समवैद्यक (Para-Medical) शास्त्रों की मदद लेनी पड़ती है। विशेषज्ञ एवं रोगी ये दोनों ही पक्ष इस निदान परीक्षण के मामले में का़फ़ी उत्सुक होते हैं ‘बेड साईड वॉर्ड मेडिसिन’ की मूल शक्ति का़फ़ी कम होती जा रही है। हिप्पोक्रेटिस रुग्ण के बेड के पास बैठकर निरीक्षण करके निदानकर्ता एवं एक होशियार वैद्यकशास्त्री के पास होनेवाली वह एक ‘कला’ थी। इस कला की आज बहुत ज़रूरत है। Art is long & time is fleeting.

जंतु संसर्ग के कारण आसन्न मरण अवस्था में पहुँच चुके रोगी का चेहरा कैसा दिखाई देगा इस बात का प्रभावी वर्णन उन्होंने किया है। आज भी उस चेहरे को हिप्पोक्रॅटिक चेहरा (Hippocratic Facies) नाम से संबोधित किया जाता है।

बीमारी के निदान के बारे में और उसके बाद की अवस्थाओं के के बारे में अचूक रूपरेखा तैयार करने में हिप्पोक्रॅटिस कुशल थे। उनकी शल्यशास्त्र की कुशलता भी का़फ़ी महत्त्वपूर्ण है। रक्तस्राव को रोकने के लिए दाबपद्धति का उपयोग, अग्नि के उपयोग से उस पर किया गया नियंत्रण यह सब का़फ़ी उल्लेखनीय है। आज इक्कीसवी सदी में भी कुछ बातों को घुमाफ़िराकर कुछ बढ़ा-चढ़ाकर हम भी यही कर रहे हैं।

हिप्पोक्रॅटिस द्वारा लिखा गया प्रकांड लेखन ‘कॉर्पस हिप्पोक्रॅटिकम’ नामक इस खंडप्राय ग्रंथ में संपादित किया गया है। अनेक पुस्तकें शोध-निबंध जैसी अनेक दुर्लभ धरोहर अलेक्झांड्री के ग्रंथालय में जतन करके संजोया गया है।

अनेक वर्षों तक कॉस में बैठकर एक डेरेदार घने वृक्ष के नीचे बैठकर वे विद्यादान का काम करते रहे। तेजस्वी चेहरा, हृदय में उठनेवाली सहवेदना शिरस्थ बुद्धिमत्ता एवं अथक शारिरीक परिश्रम इन सब का मिलाप, उनके नाम का तात्कालिक सिक्का आदि इन सभी बातों का जीता-जागता उदाहरण है। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण देन है। उनके द्वारा तैयार की गई वैद्यकीय व्यवसाय के नीतिमत्ता का अहसास करवानेवाला ओथ।

हिप्पोक्रॅटिक ओथ – ‘मैं अपने गुरुजनों का आदर करूँगा। रूग्णों को अच्छा करने के लिए मैं अपने जान की बाजी लगा दूँगा, उन्हें किसी भी बात की तकलीफ़ हो, दु:ख हो, दर्द हो ऐसा कोई भे काम मैं नहीं करूँ गा। इस बात का पूरा ध्यान मैं स्वयं रखूँगा। अपना जीवन व्यवसाय मैं हमेशाही स्वच्छ एवं निर्मल रखूँगा। अपने ज्ञान एवं अधिकार का दुरुपयोग मैं कभी नहीं करूँगा। मुझे व्यवसाय से संबंधित प्राप्त जानकारी को मैं दूसरों के समक्ष उजागर नहीं करूँ गा। मेरे जीवन में, व्यवसाय में, नीतिमत्ता में, धार्मिक कर्तव्य में और शीलवान चरित्र में भी इन सबका ही सहभाग होगा।’

रुग्ण के क्लेश को कम करने के लिए कर्तव्य किजिए और यदि यह संभव नहीं होगा तो उन्हें और भी अधिक तकलीफ़े उठाने के लिए उनकी दुर्दशा भी ना करना और ना ही उनकी तकलीफ़े बढ़ाने की कोशिश करना।’ हिप्रोक्रेटिस का वह आचरण उनके वचन यह सब आज दुर्लभ हो गया है। एक आजीवन समर्पित जीवन, वैद्यकीय व्यवसाय के नीतिमत्ता का वस्तूपाठ रचनेवाले हमारे पूजनीय पूर्वज ९० वर्ष की दीर्घायु जिन्दगी जीने के पश्‍चात् भी दुनियाभर के वैद्यकों के लिए नंदादीप के समान प्रेरणा देता ही रहेगा।

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