९१. इस्रायली समाजव्यवस्था की नींव

इस्रायल के लिए १९५० का दशक यह वैसे देखा जाये, तो ‘रेशनिंग सिस्टीम’ अर्थात् ‘ऑस्टेरिटी मेझर्स’ का ही साबित हुआ| लेकिन आगामी इस्रायली समाजव्यवस्था की नींव भी इसी दशक में बनायी गयी|

आज हालॉंकि इस्रायल की गणना ‘विकसित राष्ट्रों’ में की जाती है, १९५० के दशक में वह इस संज्ञा से कोसों दूर था| बहुत ही अपर्याप्त संसाधनों के कारण मजबूरन् रेशनिंग सिस्टिम लागू करना पड़ा हुआ राष्ट्र, ज्यू-स्थलांतरितों के रेलों के कारण अक्षरशः ट्रान्झिट कँप्स में लोगों का प्रबंध करना पड़ा हुआ राष्ट्र; यह अपने नागरिकों के निवास की, खानेपीने की, रोज़गार की समस्या तो हल करता ही है; साथ ही, एक विलक्षण लगन से एक ‘विकसित राष्ट्र’ में कैसे रूपांतरित होता है, यह अब इसके आगे के प्रवास में हमें जान लेना है| यहॉं पर ‘नागरिकों का सहभाग तथा लगन’ यह घटक भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण साबित होता है; क्योंकि नागरिकों के देशप्रेम में से आये सहभाग के बिना, लगन के बिना और सहनशीलता के बिना यह संभव ही नहीं हो पाता था| ‘देश’ और ‘मैं’ ये दो अलग बातें न होकर, ऐसे कई ‘मैं’ मिलकर ही देश बनता है, यह जन्मघूंटी इस ज्यूराष्ट्र के हर एक नागरिक को जन्म से ही प्राप्त हुई थी|

माआबोरोत्स में जहॉं पर मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव था, वहॉं वैद्यकीय सुविधाओं की पूर्ति करना तो बहुत ही मशक्कत का काम था; लेकिन वह भी निष्ठावान् इस्रायली डॉक्टरों ने लगनपूर्वक किया|

शुरू से ही इस्रायल की हर बात में यह ‘नागरिकों का सहभागी होना’ दिखायी दिया है| आज ‘वर्ल्ड हॅपीनेस इंडेक्स’ इस दुनिया के लगभग १५६ देशों के नागरिकों के किये सर्वेक्षण में इस्रायल का नंबर १३वॉं यानी बहुत ऊपर का है| इस सर्वेक्षण में, नागरिकों द्वारा उनके देशों की विभिन्न बातों को लेकर – ‘मैं मेरे देश की इस बात को लेकर खुश (हॅपी) हूँ/खुश नहीं हूँ’ ऐसा मत ज़ाहिर किया गया होता है और इस सर्वेक्षण के आधार पर ही उस उस देश का ‘हॅपीनेस इंडेक्स’ में होनेवाला स्थान निश्चिसत होता है;

और चूँकि इस्रायल का स्थान इतना ऊँचा है, ज़ाहिर है, उस देश की बातों को लेकर उस देश के नागरिक खुश हैं| किसी राष्ट्र के ‘जीडीपी’ आदि अन्य कोई भी इंडेक्सेस नापते समय केवल विभिन्न आँकड़ों की सहायता से गिने जाते हैं, जिनमें मानवी भावनाओं का समावेश नहीं होता; लेकिन यह हॅपीनेस इंडेक्स नापते समय नागरिकों का, उनकी खुशी का सहभाग होता है|

लेकिन १९५० के दशक में इस्रायल में हालॉंकि खुशी मनाने के हालात हरगिज़ नहीं थे, मग़र समान दुख को एकत्रित रूप में बॉंट लेने के कारण, ये नागरिक भिन्न भिन्न संस्कृतियों में से और माहौलों से आये हुए होने के बावजूद भी उनमें होनेवाली बंधुता की भावना वृद्धिंगत होने लगी थी, जो ‘कम्युनिटी लिव्हिंग’ के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है|

इन तंबुओं के माआबोरोत्स का रूपांतरण धीरे धीरे ऐसे ‘डेव्हलपमेंट टाऊन्स’ में होने लगा|

झायोनिस्ट एजन्सी के महत्प्रयासों से जब ज्यूधर्मीय २०वीं सदी की शुरुआत से दुनियाभर से इस्रायल (तत्कालीन पॅलेस्टाईन प्रांत) में लौटने लगे थे, तब इतने बड़े पैमाने पर जनसंख्या के पुनर्वास का प्रबंध यह ‘किब्बुत्झ’ और ‘मोशाव्ह’ इन दो ‘कम्युनिटी लिव्हिंग’ संकल्पनाओं की ज़रिये ही किया गया था|

लेकिन इस समय, अर्थात् इस्रायल यह स्वतंत्र ज्यू-राष्ट्र बनने के बाद, यह इस्रायल लौटनेवाली ज्यू जनसंख्या इतनी तेज़ी से और इतने बड़े पैमाने पर बढ़ रही थी कि ये दोनों संकल्पनाएँ भी उसके लिए पर्याप्त साबित होनेवालीं नहीं थीं!

इस कारण इस बार इतनी बड़ी जनसंख्या को समा लेने के लिए ‘ट्रान्झिट कँप्स’ (‘माआबारोत’) का इस्तेमाल किया गया| ऐसे तक़रीबन १२५ माआबारोत में पूरे सव्वा-दो लाख स्थलांतरित ज्यूधर्मियों की प्रबंध किया गया था| ये स्थलांतरित ज्यू प्रायः मध्यपूर्व से तथा उत्तर अफ्रिका के अरब और मुस्लिम देशों से आये थे|

शुरू शुरू में महज़ ‘सैंकड़ों-हज़ारों तंबुओं का संकुल’ ऐसा रूप होनेवाले माआबारोत में, स्थलांतरितों का इन्तज़ाम धीरे धीरे टिन (पत्रों) के घरों में किया जाने लगा| लेकिन शुरुआती दौैर में इन स्थलांतरितों ने काफ़ी कष्ट उठाये| नहाने की तथा शौचालय की सुविधाएँ ये बहुत ही अल्प प्रमाण में उपलब्ध थीं| (तक़रीबन ५०-६० लोगों में एक स्नानगृह या शौचालय ऐसा यह प्रमाण था|) लेकिन शिक़ायत करने की कोई गुंजाईश ही नहीं थी, क्योंकि ये स्थलांतरित जहॉं से आये थे, वहॉं की उनकी उस समय की सामाजिक स्थिति को मद्देनज़र करते हुए ‘उसकी तुलना में कुछ भी चलेगा’ ऐसा कहने की नौबत थी|

यहॉं तक कि बिजली के कनेक्शन जैसीं बुनियादी बातें, जो जो आज के हमारे जीवन का अविभाज्य अंग बन चुकी हैं, वे भी उस समय ‘ऐय्याशी’ प्रतीत होती थीं; फिर गाड़ियॉं, टेलिफोन आदि बाक़ी की चीज़ों की बात ही छोड़ो! हालॉंकि तेल अवीव्ह, हैफा, जेरुसलेम जैसे बड़े शहरों में सड़कों में गाड़ियॉं दिखायी देती थीं, बड़े ऑफिसेस् में टेलिफोन की घंटियॉं बजा करती थीं; मग़र फिर भी कुल मिलाकर गॉंवों या छोटे शहरों में भी गाड़ियॉं, टेलिफोन, एअर कंडिशनर्स ये चीज़ें यानी आम इन्सान कल्पना तक नहीं कर सकता था इतनीं दुर्लभ ऐय्याशी की बातें थीं, फिर माआबारोत में उनका होना नामुमक़िन ही था|

लेकिन स्थलांतरितों को इन माआबारोत्स में सदा के लिए तो नहीं रखा जानेवाला था| जैसे जैसे १९५० का दशक मध्य की ओर बढ़ने लगा, वैसे वैसे इन माआबारोत्स का रूपांतरण धीरे धीरे ‘डेव्हलपमेंट टाऊन्स’ में होने लगा; जिनमें इन स्थलांतरितों को स्थायी रूप में निवास की सुविधा उपलब्ध करा दी जाने लगी|

आंतर्राष्ट्रीय पद्धति की बहुमंज़िला ईमारतों की अपनी संकल्पना को प्रस्तुत करते हुए आर्किटेक्ट एरिएप शेरॉन

इसके लिए एक ‘मास्टर प्लॅन’ बनाया गया, जिसका निर्माणकर्ता था ‘एरिएह शेरॉन’ नामक एक युवा इस्रायली आर्किटेक्ट| जर्मनी में पढ़ाई पूरी कर सन १९३१ में इस्रायल लौटे हुए शेरॉन ने तेल अवीव्ह में गृहनिर्माण की शुरुआत भी की थी| आंतर्राष्ट्रीय पद्धति की बहुमंज़िला ईमारतों का काम शेरॉन की ही देखरेख में शुरू हुआ| उसके काम से खुश होकर डेव्हिड बेन-गुरियन ने उसे सन १९४८ के स्वतंत्रतायुद्ध के दौरान सरकार के प्लॅनिंग विभाग का प्रमुख नियुक्त किया, जो ठेंठे बेन-गुरियन को ही रिपोर्ट करता था|

इस मास्टर प्लॅन का प्रमुख ध्येय था – बड़े शहरों के आसपास अनियंत्रित रूप में बढ़ीं हुईं बस्तियों की भीड़ को कम कर, उन बस्तियों को पूरे इस्रायल में समान रूप में फैलाना| इसमें, इस्रायल की सीमाओं पर दावा सुनिश्चिकत करने की दृष्टि से, सीमाओं से सटे भूभागों में इन टाऊन्स का नियोजन करना, यह प्रमुख संकल्पना थी|

यह मास्टर प्लॅन अत्यधिक सफल साबित हुआ, जिसके लिए आगे चलकर शेरॉन को ‘इस्रायल प्राईझ फॉर आर्किटेक्चर’ (इस्रायल सरकार की ओर से दिया जानेवाला सर्वोच्च सांस्कृतिक सम्मान) मिला|(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

 

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