७५. महायुद्ध ख़त्म हुआ….‘युद्ध’ नहीं

सन १९४५ में दूसरा विश्‍वयुद्ध समाप्त हुआ। दूसरे विश्‍वयुद्ध में ज्यूधर्मियों ने ब्रिटन को समर्थन दिया था और ज्यूधर्मीय सैनिक ब्रिटन की ओर से जर्मनी के खिलाफ़ लड़े थे। लेकिन ऐसा होने के बावजूद भी विश्‍वयुद्ध के पश्‍चात् पॅलेस्टाईन प्रान्त के बारे में ब्रिटन की अरबानुनयी नीति पुनः जारी हुई। इसका कारण, मध्यपूर्वी क्षेत्र में कई जगह ब्रिटन के हितसंबंध (‘इन्टरेस्ट्स’) फँसे हुए थे और उन्हें मह़फूज़ रखने के लिए अरबविश्‍व का सहकार्य ब्रिटन चाहता था। इस कारण अरबविश्‍व को न दुखाने की नीति के तहत, पॅलेस्टाईनप्रवेश के बारे में ज्यूधर्मीय स्थलांतरितों पर पुनः स़ख्त पाबंदियाँ थोंपीं गयी।

इसका एक और अहम कारण यानी विश्‍वयुद्ध के दौरान जिन्होंने ब्रिटन के नेतृत्व का बागड़ोर मज़बूती से सँभाली हुई थी और अग्रणी ब्रिटीश नेताओं में माने जानेवाले जो पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र निर्माण करने के लिए अनुकूल थे, उन प्रधानमन्त्री विन्स्टन चर्चिल को विश्‍वयुद्ध के पश्‍चात् के ब्रिटीश चुनावों में ब्रिटीश मतदाताओं ने नकार दिया और ‘कॉन्झर्वेटिव्ह’ पार्टी की सत्ता का त़ख्ता पलटकर ‘लेबर पार्टी’ के नेता क्लेमेंट अ‍ॅटली प्रधानमन्त्री बने।

लेकिन विश्‍वयुद्धकाल में ज्यूधर्मीय सैनिकों को युद्ध में लड़ने का अच्छाख़ासा अनुभव प्राप्त हुआ था। साथ ही, युद्धसंसाधनों की बढ़ती माँग के कारण पॅलेस्टाईनस्थित ज्यूधर्मियों के उद्योग-व्यवसायों की भी अच्छी तरक्की हुई थी।

उसीके साथ, ज्यूधर्मियों के ‘पॅलेस्टाईन प्रान्त में ज्यू-राष्ट्र स्थापन करने के’ ध्येय के लिए अनुकूल ऐसी एक और घटना घटी थी। जागतिक मंच पर, ख़ासकर अमरीकास्थित ज्यूधर्मियों ने किये हुए चरमसीमा के प्रसार-प्रचार के कारण और अमरिकी सरकार के नेताओं पर रहनेवाले अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अमरिकी सरकार को इस समस्या के बारे में ठोंस भूमिका अपनाने के लिए उन्होंने मजबूर करने के कारण, अब अमरीका इस समस्या का समाधान ढूँढ़ने के प्रयासों में उतरी थी।

अमरीकास्थित ज्यूधर्मियों ने किये निरन्तर पृष्ठपोषण को सफलता प्राप्त होकर, अमरिकी अध्यक्ष हॅरी ट्रुमन ने ब्रिटीश प्रधानमन्त्री क्लेमेंट अ‍ॅटली को पत्र लिखकर पॅलेस्टाईन समस्या में पुनर्विचार करने की विनति की। इस पत्र में ट्रुमन ने, ‘युरोपस्थित जिन ज्यूधर्मियों को वंशविद्वेष का सामना करना पड़ रहा है, उनमें से ऑस्ट्रिया-जर्मनी के कम से कम पहले लगभग १ लाख ज्यूधर्मियों को फ़ौरन पॅलेस्टाईनप्रवेश की अनुमति दी जायें; इतना ही नहीं, बल्कि जब तक पॅलेस्टाईन के भूमि की इन ज्यूधर्मीय स्थलांतरितों को समा लेने की क्षमता है, तब तक ज्यूधर्मियों के स्थलांतरण पर किसी भी प्रकार की पाबंदियाँ ही न लगायीं जायें’ ऐसी विनतिरूप सूचना की। अपनी इस विनति को वैधता प्राप्त होने के लिए ट्रुमन ने अमरिकी संसद में दिसम्बर १९४५ में उससे संबंधित (‘ज्यूधर्मियों के अनिर्बंधित पॅलेस्टाईनप्रवेश से संबंधित’) प्रस्ताव भी पारित करा लिया था।

सन १९४४ में इजिप्त में हुए ‘अलेक्झांड्रिया प्रोटोकॉल’ के लिए उपस्थित अरब राष्ट्रों के प्रतिनिधि

अब पॅलेस्टाईन प्रान्त का भवितव्य तय करनेवाले राष्ट्रों के ‘गुट में’ अमरीका का भी प्रवेश हो चुका था और यह घटना बहुत ही दूरगामी साबित होनेवाली थी। वैसे भी, उस कालावधि में ज्यूधर्मियों को युरोप में जिसका सामना करना पड़ रहा था, उस वंशविद्वेष की जानकारी दुनिया के सामने आ जाने के कारण, कुल मिलाकर पूरी दुनिया की भी हमदर्दी ज्यूधर्मियों के साथ थी। उसी में अब अमरीका भी इस प्रश्‍न में उतरने के कारण इस प्रश्‍न का तेज़ी से और बड़े पैमाने पर आंतर्राष्ट्रीयीकरण होनेवाला था।

दोस्त राष्ट्रों को दूसरा विश्‍वयुद्ध जिता देने में अमरीका का बहुत अहम हिस्सा था। लेकिन यह विश्‍वयुद्ध जीतने के बावजूद भी वह ब्रिटन को आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर बनानेवाला साबित हुआ था। उससे ‘जागतिक सर्वोच्च महासत्ता’ इस स्थान पर से ब्रिटन च्युत होकर वह स्थान अब अमरीका ने लिया था। इस कारण उसके शब्द को अब आंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारी वज़न प्राप्त हुआ था। उसकी ‘विनति’ ठुकराना ब्रिटन के लिए संभव नहीं था।

इस दूसरे विश्‍वयुद्ध के कारण जागतिक मंच पर भी कई घटनाक्रम घटित हुए थे। कई अरब प्रदेशों का ‘स्वतंत्र देश’ के रूप में अस्तित्व में आना, यह उन्हींमें से एक घटनाक्रम था। पहले विश्‍वयुद्ध के पश्‍चात् के क़रारनामे में ब्रिटिशों के नियंत्रण में आये लेबेनॉन, सिरिया, ट्रान्सजॉर्डन जैसे कई अरब प्रदेश ब्रिटिशों के अमल में से आज़ाद हो चुके थे। इजिप्त जैसे कुछ देश हालाँकि पहले ही आज़ाद हुए थे, फिर भी वे ब्रिटिशों के भारी प्रभाव में थे। इस दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ये देश उस प्रभाव में से बाहर निकलने में क़ामयाब हुए।

पॅलेस्टाईन प्रान्त के ईर्दगिर्द होनेवालीं इन सब अरब सत्ताओं ने, विश्‍वयुद्ध ख़त्म होने के बाद पॅलेस्टाईन प्रान्त को ‘अरब राष्ट्र’ बनाने की ठान ली थी और उस दृष्टि से सक्रिय कदम उठाने भी चालू किये थे। अक्तूबर १९४४ में इजिप्त के अलेक्झांड्रिया शहर में अरब देशों की इस मामले में चर्चापरिषद हुई, जिसमें ऐसा प्रस्ताव (‘अलेक्झांड्रिया प्रोटोकॉल’) पारित किया गया कि – ‘ज्यूधर्मियों को युरोप में, ख़ासकर जर्मनी में जो भुगतना पड़ा वह बुरा ही हुआ और अरब जनता को उसके बारे में यक़ीनन ही हमदर्दी है; लेकिन उसके साथ पॅलेस्टाईन प्रश्‍न को ना बाँधा जाये। इन युरोपीय ज्यूधर्मियों को इन्साफ़ दिलाते समय, पॅलेस्टाईन प्रान्त के अरबों के साथ नाइन्साफ़ी ना की जाये।’

अरब लीग राष्ट्र

इससे अगले कदम के रूप में अरब राष्ट्रों ने, अपना आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए और बतौर एक दबावगुट अस्तित्व में आने के लिए, ब्रिटिशों के ही मशवरे पर सन १९४५ में ‘अरब लीग’ की स्थापना की। उनके मसूदे पर ‘पॅलेस्टाईन को अरब राष्ट्र बनाना’ यह मुद्दा था ही। इस अरब लीग ने, विभिन्न मंचों पर पॅलेस्टाईन के अरबों का पक्ष रखने के लिए और चर्चाओं में भाग लेने के लिए ‘अरब हाय कमिटी’ की स्थापना की। साथ ही, अरब लीग ने पॅलेस्टाईन स्थित ज्यूधर्मियों के उद्योगधंधों का बहिष्कार करने की भी घोषणा की। अरब विश्‍व अब इस मामले में अधिक आक्रामक बनने लगा था।

लेकिन गत कई सदियों से हमेशा परिस्थिति की और दुर्भाग्य की मार खाते आने के बाद, अनगिनत आक्रमकों के आक्रमण सहने के बाद अब ज्यूधर्मीय भी पॅलेस्टाईन में अपने हक़ का ज्यू-राष्ट्र स्थापन हुए बग़ैर चुप बैठनेवाले नहीं थे। अब ‘युद्ध’ अटल था और वह नज़दीक भी आया था!

उस दिशा में ज्यूधर्मियों ने कदम उठाना शुरू भी किया था। अब ब्रिटीश सरकार ने स्थलांतरण पर लगायीं गयीं पाबंदियों को ठुकराकर, हॅगाना की सहायता से अधिक से अधिक ‘बिनापरवाना’ ज्यूधर्मीय स्थलांतरितों को किसी न किसी मार्ग से पॅलेस्टाईन प्रान्त में घुसाना शुरू हुआ था।

उसीके साथ, ‘इर्गुन’, ‘लेही’ जैसे पॅलेस्टाईन के अन्य सशस्त्र भूमिगत ज्यूइश संगठनों ने, पॅलेस्टाईनस्थित ब्रिटीश आस्थापनों पर और विभिन्न कार्यालयों पर हमले करके ब्रिटिशों की नाक में दम करने की शुरुआत की।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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