रक्त एवं रक्तघटक – ४५

पिछले लेख में हमने देखा कि हमारे शरीर में कौन-कौन सी अँटिबॉडिज होती हैं। शरीर में प्रवेश करनेवाले जीवाणु, विषाणु एवं अन्य तकलीफदेह घटकों को ‘अ‍ॅँटिजेन’ कहते हैं। अ‍ॅँटिबॉडीज, अ‍ॅँटिजेन के विरोध में काम करती है। इस क्रिया को अ‍ॅँटिजन अ‍ॅँटिबॉडी रिअ‍ॅक्शन कहते हैं। अ‍ॅँटिबॉडीज विभिन्न तरीकों से अ‍ॅँटिजेन का प्रतिकार करती हैं। रक्त में प्रवास करनेवाली अ‍ॅँटिबॉडीज अ‍ॅँटिजेन्स को अपने साथ बाँध लेती है। इस प्रकार एकत्र आये हुए अ‍ॅँटिजेन-अ‍ॅँटिबॉडीज को ‘इम्यून-कॉम्प्लेक्स’ कहते हैं। यदि इस इम्यून कॉम्प्लेक्स की मात्रा रक्त में ज्यादा हो जाता है तो वह शरीर के लिए ही घातक साबित होता है। इससे रक्तवाहनियों का नुकसान होता हैं। कभी-कभी शरीर के अवयवों पर इनका असर हो जाने से उन अवयवों में विकार उत्पन्न हो सकता है। ‘ग्लोमेरूलो नेफ्रायटिस’ नामक मूत्रपिंड में होनेवाली बीमारी इसका एक उदाहरण है। हाँलाकि अ‍ॅँटीबॉडीज शरीर की प्रतिकार शक्ति होती है परन्तु कभी-कभी वे इस तरह घातक भी साबित हो सकती हैं।

माँ के गर्भ में बढ़ते समय बच्चे को माँ से (IgG) नामक अ‍ॅँटीबॉडीज मिलती है। नाल के जरिये ये बच्चे के पास आती हैं। बच्चे के जन्म के बाद माँ के दूध में से बच्चे को (IgA) अँटिबॉडिज मिलते हैं। जन्म के बाद कुछ सप्ताहों तक ये अ‍ॅँटीबॉडीज (IgA) बच्चे की आँतो के जीवाणु व विषाणु से संरक्षण करती हैं।

रक्त की ‘B’ लिंफोसाइटस् बचाव का काम कैसे करती हैं यह हमने देखा। अब हम ‘T’ लिंफोसाइटस् की जानकारी लेंगे।

T लिंफोसाइटस् स्टेम पेशी से बनती हैं। इनकी प्रथम निर्मिति अस्थिमज्जा में ही होती है। आगे चलकर इनका वर्गीकरण एवं चयन थायमस ग्रंथी में होता है। इसीलिए इन पेशियों को T लिंफोसाइटस् (T for Thymus) कहते हैं। इनका बचाव का तरीका अँटिबॉडीज की निर्मिति पर निर्भर नहीं होता। ये पेशियाँ स्वयं अथवा अन्य पेशियों की सहायता से बचाव का कार्य करती हैं। अत: इनके बचाव को पेशी द्वारा किया गया बचाव अथवा प्रतिकार कहते हैं (Cell mediated immunity)। इन पेशियों की कार्यपद्धति दो प्रकर की होती हैं –

१) इफेक्टर या परिणामकारक

और

२) कन्ट्रोलिंग या नियमन / नियंत्रण करनेवाली.

शरीर में प्रवेश कर चुके विषाणु, विषाणुबाधित पेशी, फंगस, एकपेशीय जीव, कर्करोगबाधित पेशी और रोपण पेशी (grafts) इत्यादि पर इफेक्टर लिंफोसाइटस् प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष ढ़ंग से हमला करती हैं।

नियमन अथवा नियंत्रण के दौरान ये पेशियाँ अन्य पेशियों की प्रतिकार शक्ति बढ़ाती है या कम करती है। अन्य पेशियाँ ये B लिंफोसाइटस् अथवा इफेक्टर कार्य करनेवालीढ लिंफोसाइटस् होती हैं।

जब इफेक्टर T पेशी प्रत्यक्ष आक्रमण करती हैं तो उन्हें Cytotoxic T पेशी कहते हैं। ये पेशियाँ सीधे अँटिजेन्स पर हमला करती है। इनके हमले के तरीके अलग-अलग होते हैं। अब हम देखेंगे कि ये पेशियाँ अप्रत्यक्ष रूप से कैसे हमला करती हैं। इस पद्धति में ये पेशियाँ सायटोकाइअन्स (Cytokines) नामक प्रथिन स्रवित करती हैं। यह प्रथिन अ‍ॅँटिजेन्स पर हमला करता है।

उपरोक्त दोनों प्रकार की पेशियों के अलावा तीसरे प्रकार की T पेशियाँ होती हैं। इन्हें Helper T पेशी अथवा मदतनीस T पेशी कहते हैं। (डॉक्टर की भाषा में इसे CD4 पेशी कहते हैं)। यह पेशी दो महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। B लिंफोसाइटस् पेशी को बढ़ाकर उसमें से विविध प्रकार की अ‍ॅँटीबॉडीज को रक्त में स्रवित करने में सहायता करती है। अ‍ॅँटिजेन प्रेसेटिंग पेशी नामक जो पेशियां होती हैं वे हेल्पर T पेशी को उनका कार्य शुरु करने के लिए प्रेरित करती हैं। हेल्पर T पेशी की सहायता से B लिंफोसाइटस् प्रत्येक अ‍ॅँटिजेन को विरोध करनेवाली अ‍ॅँटीबॉडीज का निर्माण करती हैं।

यदि किन्हीं कारणों से ये पेशी (हेल्पर पेशी) नष्ट हो जायें अथवा निष्क्रिय हो जायें तो शरीर की प्रतिकार शक्ति कम हो जाती है। इसे ही इम्युनोडेफिशिअन्सी (immunodeficiency) कहते हैं। ऐसी परिस्थिति में कोई भी व्यक्ति आसानी से किसी भी जीवाणु या विषाणु से बाधित हो सकता है। इस परिस्थिति में उस व्यक्ति के जीवन को खतरा भी हो सकता है। इम्युनोडेफिशिअन्सी का सबसे अच्छा उदाहरण है, एड्स (AIDS)। इस बीमारी में HIV-I नामक विषाणु ठेंठ हेल्पर टी पेशी का नाश करती हैं। साथ साथ अँटिजेन प्रेझेंटिंग पेशियों को भी मार डालते हैं। अन्य विषाणुओं की बाधा, कुपोषण, कर्करोग, कुछ दवाईयाँ और ‘क्ष’ किरण इनके कारण भी शरीर की पेशियों के द्वारा मिली हुई प्रतिकार शक्ति कम होती है।

T लिंफोसाइटस् में सप्रेसिव T पेशियाँ होती हैं। ये पेशियां अन्य B एवं T पेशी के कार्यों को कम करती हैं। ये सेप्रेसिव पेशी जो cytokine स्त्रवित करती हैं, वह cytokines अन्य पेशियों के कार्य को प्रतिबंधित करती है। इसका फायदा शरीर को होता है। हमारे शरीर की बचाव पेशियाँ अब सिर्फ जीवाणुओं एवं विषाणुओं के विरुद्ध कार्यरत रहती हैं और अपने ही शरीर की पेशी पर हमला नहीं करतीं।

इम्युनोडेफिशिअन्सी में इन सप्रेसिव पेशियों की संख्या कम हो जाती हैं। इस कारण शरीर की नॉर्मल पेशियों के लिए खतरा निर्माण होता है।
इसके अलावा ऑटो इम्यून डिसऑर्डर नामक कुछ विकार होते हैं। इन विकारों में शरीर की पेशियों के विरुद्ध ही शरीर की बचाव पेशियाँ कार्य करती हैं और अपने ही शरीर की अन्य पेशियों को मारती हैं। सप्रेसिव T पेशी के कार्य कम हो जाने पर अपने शरीर को तीसरा खतरा निर्माण हो जाता है। शरीर में कुछ अ‍ॅलर्जीक प्रतिक्रियाओं का निर्माण हो जाता है, जिन्हें हायपर सेस्निटिविटी प्रतिक्रिया कहते हैं। ऐसी प्रतिक्रिया के कारण होनेवाली बीमारियाँ हैं – दमा, त्वचा के रोग इत्यादि।

शरीर की रोग प्रतिकार शक्ति के महत्त्व को अलग से बताने की आवश्यकता नहीं हैं। शरीर के लिए अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य ये पेशियाँ करती हैं। वर्तमान में ऐसा रोग जिसे हम सब जानते हैं, वो है एड्स। इस रोग का विषाणु HIV-I यह हेल्पर T पेशियाँ को बाधित करता है और उन्हें नष्ट कर देता है। परन्तु प्रत्यक्ष रूप से उस व्यक्ति के जीवन को खतरा निर्माण नहीं करता। इसीलिए कखत से बाधित व्यक्ति खुद का ख्याल रखते हुए नॉर्मल जीवन जी सकता है। शरीर की प्रतिकार शक्ति कम हो जाने के कारण ऐसे व्यक्ति के प्राणों को खतरा हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में अन्य जीवाणु अथवा विषाणु शरीर में विविध प्रकार की बीमारियाँ निर्माण करते हैं। ऐसी बीमारियाँ बढ़ जाने पर जान को खतरा हो जाता है।

(क्रमश:)

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