बेसी ब्लाउंट

आपको याद होगी ना, ऑल टाईम सुपरहिट फ़िल्म ‘शोले’ की दर्शकों के दिल पर अपनी छाप छोड़ जानेवाली, जिनकी दोनों बाहों को पूर्णत: काट दिया गया उन इन्स्पेक्टर ठाकुर का महत्त्वपूर्ण किरदार! जिनके पास सचमुच दोनों हाथ नहीं होते, वे जीवनावश्यक काम कैसे करते होंगे! हस्तविहीन शरीरवाला व्यक्ति सिर, धड़ एवं दोनों पैर के आधार पर आत्मनिर्भर जीवन कहाँ तक जी सकेगा?

bessie_blount

युद्ध में घायल हो जाने के कारण अपने शरीर के अवयवों को गँवा देनेवाले सैनिक की मानसिक स्थिति कैसी होगी, इस बात का अहसास अथवा उनकी इस अवस्था का अनुमान कर पाना यह किसी स्वस्थ मनुष्य के बस की बात हो ही नहीं सकती है। दोनों हाथों के अभाव में जीने के लिए आवश्यक रहने वाले क्रियाकलाप करना यह तो बहुत बड़ी मुश्किल ही बन जाते होंगे।

मुख में कौर लेते समय भी सामने रखी थाली में परोसे गये भोजन का ‘निवाला’ तैयार करने के लिए और उसे मुख तक ले जाने के लिए भी हाथों की जरूरी पड़ती ही है। हाथ न होनेवाले दिव्यांग, दुर्घटनाग्रस्त, वैसे ही सैनिक इन सब की मानसिक स्थिति कैसी होती होगी? शारीरिक पीड़ा से भी कहीं अधिक पीड़ा यह परनिर्भर जीवन जीते समय होती है। जीवनयापन करने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना! स्वयं के कारण दूसरों को कष्ट उठाते हुए देखना! इस परपीड़ा का विचार कर उसका उपाय ढूँढ़नेवाली संशोधनकर्ती हैं – ‘बेसी ब्लाउंट’ नामक एक कृष्णवर्णीय अफ्रिकी मूल की अमरिकी महिला।

२४ नवम्बर १९१४ को वर्जिनिया के हिकरी नामक गाँव में बेसी ब्लाउंट का जन्म हुआ। बचपन से ही बेसी को डॉक्टर बनने की महत्त्वकांक्षा थी। अध्ययन हेतु उन्होंने फ़िजियोथेरपी (उष्णता, प्रकाश, व्यायाम, मसाज इन सब के माध्यम से उपचार करना) इस शाखा का चुनाव किया। पँझट कॉलेज, वैसे ही यूनियन जूनियर कॉलेज में प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के पश्‍चात् शिकागो में जाकर अपनी शिक्षा पूरी की।

इसी दरमियान द्वितीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और वहाँ पर घायल दिव्यांग सैनिकों से चिकित्सालय भरे पड़े थे। ‘हाथ-पैर टूटे इन सैनिकों को समाज में पुन: स्वाभिमान से जीवन जीने के लिए कृत्रिम अवयव देकर ही बात नहीं बनेगी और यह पर्याप्त भी नहीं होगा। उन्हें स्वतंत्र रूप में जीवन जीने के लिए आत्मनिर्भर होना ही चाहिए।’ यह विचार बेसी के मन में गहराई तक फैलता जा रहा था। न्यूयॉर्क के ब्रॉक्स् हॉस्पिटल में बेसी फ़िजियोथेरोपिस्ट थी। पहले जो काम दिव्यांग जवान अपने हाथों से करते थे वही काम अब पैरों की सहायता से करने की शिक्षा वे उन्हें देती थीं। भोजन करना यह एक का़फ़ी बड़ी समस्या थी और इसके उपाय के रूप में बेसी ने अपनी कल्पना, लगन, होशियारी एवं ऐसे लोगों के प्रति मन में होनेवाली तड़प इन सब के जोर पर एक यंत्र का निर्माण किया।

रबर के एक ट्यूब से एक-एक निवाला दिव्यांगों के मुख में डाला जाता था। जब एक निवाला खत्म हो जाता, उस वक्त दूसरे निवाले को वह रबरी ट्युब दाँतों से चबाकर दूसरा निवाला मुख में धकेला जाता था। गले में अटकानेवाले एक पट्टे से इन रबरी नलियों का आधार दिया गया होता था। बिजली पर चलने वाले इस अनोखे भोजन करानेवाले यंत्र का उपयोग दिव्यांग व्यक्ति पलंग पर बैठकर, पहियेवाली कुर्सी पर बैठकर, कहीं पर भी बैठकर कर सकते थे।

भोजन करानेवाले उस यंत्र का उपयोग अमरीका में हो और उसका पेटंट मिल सके इसके लिए बेसी की कोशिशों को सफ़लता नहीं मिल पायी। अमरिका में मान्यता न मिल सकने के कारण उन्होंने उस यंत्र को फ़्रान्स में दान कर दिया। १९५१ में उन्होंने पुन: इसी तरह का एक उपकरण बनाया, उसका आकार गहरी थाली के समान था। गले में पट्टा लगा देने पर एक थाली, कप और एक कटोरी ये थाली मुख के समक्ष सज्ज हो जाते थे और इस भोजन यंत्र की सहायता से बगैर किसी की भी मदद के दिव्यांग व्यक्ति स्वयं ही अपना भोजन कर सकता था। इस उपकरण का पेटंट उन्होंने फ़्रान्स से ही लिया। इसी दौरान बेसी फ़िजियोथेरपी से संबंधित पढ़ाई भी कर ही रही थी।

१९५३ में फिलाडेल्फ़िया नामक स्थान पर दूरदर्शन की ओर से प्रस्तुत किए जानेवाले ‘द बिग आयडिया’ इस प्रतिष्ठित कार्यक्रम में बेसी का इंटरव्ह्यू हुआ। अमरीका ने बेसी के साथ न्याय नहीं किया, ऐसा उनका मानना था। अपने मन के उद्गार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘एक कृष्णवर्णीय महिला मानवजाति के कल्याण हेतु खोज कर सकती है, इस पर दुनिया को तो विश्‍वास रखना ही चाहिए।’’ एक फ़िजियोथेरपिस्ट के रूप में काम करते हुए थॉमस एडिसन के बेटे थिओडोर और उनमें अच्छी दोस्ती हो गई थी। अनेकों शास्त्रीय उपलब्धियों से संबंधित चर्चा उनमें हुआ करती थी। एडिसन कंपनी की विकास योजना में भी बेसी से सलाह ली जाती थी।

संशोधनकर्ती बेसी वैसे शांत बैठनेवाली नहीं थी। पुराने समाचार पत्र एवं केक का आटा एवं पानी इन सब का उपयोग करके उन्होंने पुठ्ठे का वमनपत्र (emesis basin) तैयार किया। अपने घर के ओवन में पकाकर उन्होंने इस पात्र को तैयार किया। वृद्ध मरिजों के लिए विशेष तौर पर उपयोगी साबित होगी ऐसी यह वस्तु थी। अमरीका ने इस बार भी उन्हें निराश कर दिया। परन्तु आज भी बेल्जियम देश में बेसी द्वारा बनाये गए पात्र का उपयोग किया जाता है। १९६९ के पश्‍चात् बेसी ने गुनाह अन्वेषण एवं न्याय-वैद्यकशास्त्र के क्षेत्र में कार्य किया। व्हिनलैंड, न्यू जर्सी, व्हर्जिनिया, पोर्ट स्माऊथ आदि में उन्होंने इसी से संबंधित कार्य किए। अफ़्रीकन-अमेरिकन ऐसे गुलामों की कागज पत्री की छानबीन करनेवाली वे मुख्य निरिक्षक बन गईं। १९७७ में स्कॉटलैंड यार्ड में काम में काम करनेवाली वे एकमात्र अफ्रिकी-अमरिकी महिला थी। उम्र के ८३ वें वर्ष में उन्होंने स्वयं की संस्था स्थापित किया। युद्ध के संदर्भ में उपयोग में लाये जानेवाले कागज़ातों की छानबीन करने का काम बेसी उतनी ही लगन के साथ करती थी।

अमरीका ने हालाँकि बेसी की उपेक्षा की थी, मग़र फ़िर भी हम दोनों हाथों से तालियाँ बजाकर उनके संशोधन की प्रशंसा तो कर ही सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published.