परमहंस-३

कामारपुकूर में धीरे धीरे खुदिरामजी का जीवन सुचारु रूप से जम रहा था।

वैसे तो वे पहले से ही धार्मिक वृत्ति के होने के कारण, जैसा हो सके वैसी तीर्थस्थलों की यात्राएँ भी करते थे। यहाँ कामारपुकूर में थोड़ाबहुत जीवन दस्तूरी हो जाने के बाद खुदिराम ने रामेश्वर की यात्रा की थी। उसके कुछ समय बाद उनके दूसरे बेटे का जन्म हुआ था। इसलिए उस बालक के इन श्रद्धालु मातापिता ने श्रद्धापूर्वक उसका नाम ‘रामेश्वर’ रखा था।

ramkrishna paramhansa-001

आय का स्रोत हालाँकि मर्यादित था, मग़र फिर भी उत्तरोत्तर उनकी स्थिति सुधरती जा रही थी और पेट पालने की चिन्ता अब बहुत ही कम हो गयी थी।

उनके पहले बेटे ‘रामकुमार’ ने अब संस्कृत की पढ़ाई ख़त्म करके थोड़ीबहुत कमाई करते हुए घर में हाथ बटाना शुरू किया था।

‘रामेश्वर’ के जन्म के चार साल बाद यानी सन १८३५ के मई महीने में खुदिरामजी ने ‘गया’ इस तीर्थस्थल की यात्रा की। तीर्थयात्रा के साथ साथ अपने गुजरे हुए पुरखों के प्रति कुछ विधियाँ भी उन्हे इस तीर्थस्थल में करनी थीं।

इस गया यात्रा के समय खुदिरामजी एवं उनकी पत्नी चंद्रमणीदेवी भी कई शुभशकुनों का अनुभव कर रहे थे।

खुदिरामजी को सबसे बड़ा ईश्वरीय साक्षात्कार, गया में उनके निद्राधीन रहते हुए हुआ, ऐसा कहा जाता है।

इस सिलसिले में ऐसी कथा बतायी जाती है –

सपने में खुदिरामजी को गया स्थित मंदिर के देवता के यानी महाविष्णु के ‘गदाधर’ स्वरूप के दर्शन हुए और उसने खुदिरामजी को शुभाशीर्वाद देते हुए, ‘मैं तुम्हारे घर….तुम्हारे कुल में….तुम्हारे बेटे के रूप में जन्म लेनेवाला हूँ’ यह बताया!

ईश्वर के प्रेम में आकंठ डूबे हुए एक श्रद्धावान के लिए ज़ाहिर है, यह सर्वोच्च स्तर का साक्षात्कार था। साक्षात् ईश्वर का अपने कुल में जन्म लेना, यह तो अद्वितीय बात ही थी। इसलिए स्वाभाविक तौर पर खुदिरामजी को अभूतपूर्व आनंद हुआ। लेकिन इस आनंद में भी उन्हें वास्तविकता का भान था ही। इसलिए ‘मेरे जैसे ग़रीब के घर जन्म लेकर भगवान को कितने अपार कष्टों का सामना करना पड़ेगा और मैं उन्हें देकर भी क्या दे सकता हूँ’ ऐसा विचार मन में आकर वे उदास हुए और उन्होंने भगवान से यह सवाल पूछा।

तब ईश्वर ने – ‘वह मेरी इच्छा है, इसलिए तुम उसकी चिन्ता मत करो। जैसा तुम रखोगे वैसा मैं रहूँगा, जो तुम खिलाओगे मैं खाऊँगा’ ऐसा उन्हें आश्‍वस्त किया। यह खिन्नता दूर होने के बाद स्वाभाविक रूप में खुदिराम एक अत्यधिक विलक्षण आनंद से भरकर ही घर की ओर रवाना हुए।

यहाँ कामारपुकूर में लगभग उसी समय चंद्रमणीदेवी को भी ईश्वरीय साक्षात्कार हुआ था, ऐसा बताया जा रहा है। वे हमेशा की तरह एक पड़ोसन के साथ घर के नज़दीक के एक शंकरजी के मंदिर में दैनंदिन दर्शन-पूजन-अर्चन के लिए जब निकली थीं, तब मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अचानक एक विलक्षण नज़ारा दिखायी देने के कारण वहीं पर थम गयीं।

उन्हें दिखायी दिया कि मंदिर का गर्भगृह एक विलक्षण प्रकाश से भर गया है। यह ईश्वरीय प्रकाश मंदिर की प्रतिमा में से उद्गमित हो रहा था और उसकी कुछ लहरें उनकी ओर आ रही थीं। उन प्रकाशलहरों ने उन्हें पूरी तरह घेर लिया था। वह दिव्य प्रकाश उनके देह में प्रवेश कर रहा है, ऐसा उन्हें महसूस हुआ। एक ओर थोड़ासा डर; वहीं, दूसरी ओर विलक्षण आनंद, ऐसी अनुभूति में वे बाह्याभ्यंतर नहा रही थीं। आनंदातिरेक के कारण वे बेहोश हो गयीं।

वे जब होश में आयीं, तर ‘वह’ प्रकाश अभी तक अपने पेट में है, ऐसा अहसास उन्हें हो रहा था। लेकिन उनकी उस पड़ोसन को, वे चक्कर आकर बेहोश हो गयीं ऐसा ही लग रहा था और वह चिन्ता में पड़ गयी थी। इस कारण, जब उन्होंने उस पड़ोसन को इसके बारे में बताया, तब उसे उनकी बात का विश्‍वास नहीं हो रहा था। लेकिन चंद्रमणीदेवी के लिए वह अनुभव सच्चा ही था। इतना ही नहीं, बल्कि उन्हें गर्भधारणा हुई है, ऐसा वे महसूस कर रही थीं।

उन्होंने और तीर्थयात्रा से लौटे खुदिराम ने अपने अपने अनुभवों को एकदूसरे के साथ बाँटा, तब दोनों को भी उन अनुभवों का महत्त्व ध्यान में आ गया

….और वे अब ‘उस’ अगली घटना की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे!

Leave a Reply

Your email address will not be published.