परमहंस- १

‘‘रामकृष्ण परमहंस का जीवनचरित्र यानी दैनंदिन जीवन में भी धर्मपालन किस तरह किया जा सकता है, इसकी मूर्तिमान् मिसाल ही है। उनके जीवनचरित्र का पठण हमें, परमात्मा का साक्षात्कार प्राप्त कर लेने के लिए आवश्यक रहनेवाली मन की बैठक प्रदान करता है। उनके जीवनचरित्र का अध्ययन करते हुए, ‘परमात्मा यही एकमात्र सत्य है और बाक़ी सब आभासमात्र है’  इसका यक़ीन हुए बग़ैर नहीं रहेगा। रामकृष्ण ये मानो देवत्व की सजीव मूर्ति ही थे।

रामकृष्णजी के वचन यानी महज़ पढ़त-विद्वानों के अनुभवशून्य वचन न होकर, वे मानो रामकृष्णजी के जीवनग्रंथ के पन्नें ही हैं….उनके स्वयं के अनुभवों में से प्रकट हुए! आज की बढ़ती नास्तिकता के इस  दौर में रामकृष्णजी यानी तेजःपुंज और जीतीजागती श्रद्धा का मूर्तिमान् उदाहरण होकर, श्रद्धा के मार्ग पर चलना चाहनेवालें हज़ारों-लाखों लोगों के लिए वह उदाहरण मार्गदर्शक एवं आश्‍वासक साबित होगा। रामकृष्णजी का जीवन यह मानो ‘अहिंसा’धर्म का जीताजागता उदाहरण ही है। उनका प्रेम किसी भी भौगोलिक या अन्य किसी मर्यादा में बंदिस्त नहीं था। वह ईश्वरीय प्रेम था, इसलिए वह सभी को हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।’’

– महात्मा गाँधी

 

ramkrishna paramhansa-001एक महामानव ने अपने श्रद्धास्थानों में से एक रहनेवाले दूसरे महामानव के बारे में उच्चारण किये हुए ये गौरवोद्गार हैं और वे कितने यथोचित एवं यथार्थ ही हैं, इस बात का हम रामकृष्ण परमहंस के जीवनचरित्र का अध्ययन करने के बाद, स्वीकार किये बग़ैर नहीं रहेंगे।

रामकृष्ण एवं गाँधीजी ये दोनों भी अलग अलग मार्गों से उस ‘अंतिम सत्य’ की ही खोज कर रहे थे। उन दोनों ने भी यह खोज करते समय अनगिनत आध्यात्मिक प्रयोग किये। उन प्रयोगों के जो उत्तर मन को-बुद्धि को भा गये, उनके अनुसार ही उनका आगे का मार्ग तय होता गया।

ख़ासकर गाँधीजी ने अपने संदेश में जो लिखा है कि रामकृष्णजी के वचन यानी महज़ पढ़त-विद्वानों के अनुभवशून्य वचन न होकर, वे मानो रामकृष्णजी के स्वयं के अनुभवों में से प्रकट हुए. उनके जीवनग्रंथ के पन्नें ही हैं; उसकी प्रचिति रामकृष्णजी के जीवनचरित्र का अध्ययन करते हुए बार बार आती रहती है।

अनुभव….

किसी भी क्षेत्र में अनुभव यही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। बिना अनुभव के, केवल पढ़-सुनकर इकट्ठा की हुई जानकारी यह महज़ ‘जानकारी’ होती है, वह ज्ञान नहीं होता। इसलिए केवल जानकारी के आधार पर कहे गये वक्तव्य यह कई बार महज़ अनुभवशून्य ‘तोते की रट’ साबित हो सकती है।

लेकिन रामकृष्णजी ने जो वचन कहे, वे सब के सब, उन्हें अध्यात्ममार्ग पर मार्गक्रमणा करते हुए आये अनुभवों पर ही आधारित थे। लेकिन उनमें जडजंबाल बातें कुछ भी न होकर, सभी वचन निरागसता से ही स्फुरित हुए हैं। उनका स्वभाव बचपन से ही, निरागस ही था; इतना कि सारा गाँव ही उनसे प्रेम करता था। ये उच्चकोटि के अनुभव प्राप्त करते समय की हुईं कठोर साधनाओं में उन्होंने ‘निरागसता’ इस अपने भावविशेष को कभी भी खोने नहीं दिया। सर्वोच्चकोटि के ज्ञानी होकर भी उनका मन किसी नन्हें बालक की तरह निरागस था। उन्होंने ईश्वर से – उस अंतिम सत्य से प्रेम किया, वह भी निरागसता से ही; और इसी कारण उनके वचन किसी भी दौर में कभी भी बासे हो ही नहीं सकते, वे ताज़ा ही महसूस होंगे – यहाँ तक कि आज के विज्ञान-तंत्रज्ञान के दौर में भी!

वाक़ई, आज के वैज्ञानिक दौर में दुनिया विज्ञान-तंत्रज्ञान ने की प्रगति के कारण प्राप्त हुए ऐशो-आराम में मशगूल हो रही है, उस मूल तत्त्व का-ईश्वर का एहसास अधिक से अधिक लोगों के मन से धीरे धीरे मिटता जा रहा है और नास्तिकता या ईश्वर के अस्तित्व के बारे में साशंकता बढ़ती चली जा रही है। ऐसे समय में, रामकृष्ण परमहंस के विचार – ठोस अनुभवों के आधार पर उनके मन में प्रकट हुए स्वयंप्रकाशी विचार, ये आध्यात्मिक दुर्बलता की दिशा में धीरे धीरे मार्गक्रमणा कर रही नयी पीढ़ी को मार्गदर्शक साबित होंगे, इसमें कोई दोराय नहीं है।

‘परमहंस’ इस शब्द के अर्थों में से एक सरलार्थ यह है कि ऐसा उच्चतम कोटि का संन्यासी, जिसने भावात्मक समाधि के द्वारा अपनी इंद्रियाँ का दमन कर उनपर क़ाबू पा लिया है।

हम हमारे इस अध्ययन में रामकृष्णजी के इसी – ‘गदाधर’ (रामकृष्णजी का मूल – पलने में रखा गया नाम) से लेकर ‘परमहंस’ तक के इस प्रवास की खोज करने का प्रयास करनेवाले हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published.