परमहंस- ८

गदाधर अब छः साल का हो चुका था और अपनी बाललीलाओं द्वारा पूरे गाँव को आनन्द प्रदान कर रहा था। हालाँकि उसकी बाललीलाओं ने सबके मन को भा लिया था, मग़र फिर भी यह बालक सबको अभी भी अन्य आम बालकों की तरह ही प्रतीत हो रहा था, उसमें रहनेवाले दिव्यत्व का किसी को भी अनुभव नहीं हुआ था।

गदाधर

लेकिन उसके मन में चल रहे विचार, वह पूछ रहे प्रश्‍न प्रगल्भ, बुज़ुर्गों की तरह रहते थे और ‘ऐसा क्यों?’ यह प्रश्‍न, उसके मन में चल रहे विचारों का प्रायः स्थायीभाव रहता था। उसके मासूम सवालों के जवाब देते देते बड़े बड़े लोगों के तोते उड़ जाते थे। कई बार गाँव के नज़दीक के श्मशान में भी जाकर वह घण्टों तक बैठता था। जलती हुईं लाशों को देखकर भी उसे यत्किंचित भी डर नहीं लगता था। उल्टे उसके मन में – ‘इन्सान मर जाता है यानी निश्‍चित रूप में क्या होता है? मरने के बाद इन्सान कहाँ जाता है?’ आदि सवाल उठते रहते थे।

कुल मिलाकर उसके लक्षण वैराग्य के, आध्यात्मिक प्रगल्भता के ही दिखायी दे रहे थे। लेकिन वह दर्शानेवाला कोई ख़ास वाक़या तब तक घटित नहीं हुआ था।

….और आख़िरकार ‘वह’ दिन आ ही गया जब, जिसे ‘साक्षात्कार’ कहा जा सकता है ऐसी कुछ बात छोटे गदाई के जीवन में पहली ही बार घटित हुई!

वह बरसात का मौसम था। उस दिन गाँव की एक महिला ने गदाधर को बुलाकर कुछ छोटासा एक काम बताया था और उसने वह कर दिया इसलिए उसे एक द्रोण की कटोरी में पोहे ‘बक्षिस’ के तौर पर खाने को दिये थे। वह कटोरी अपनी कमीज़ में पकड़कर उसमें से थोड़े थोड़े पोहे खाते हुए गदाई अपने घर की ओर रवाना हुआ था।

उस समय हवामान बहुत ही सुखदायी था। ठण्ड़ी हवाएँ चल रही थीं। बारीश शुरू होने के आसार थे और आसमान में काले बादल जमा होने लगे थे। आसमान में चल रहा काले-स़फेद बादलों का खेल तन्मयता से देखते हुए गदाई, रास्ते के खेतों के बीच से पोहे खाते निकला था।

धीरे धीरे काले बादलों से सामने का सारा आसमान ही भर गया। बिजलियों की कड़कड़ाहट, बादलों की गड़गड़ाहट शुरू हुई। पल में रौद्र, तो पल में सुखदायी ऐसा विलक्षण खेल प्रकृति दिखा रही थी।

अब तो बारीश भी शुरू हुई। उन जलधाराओं में सराबोर होकर भिगते हुए गदाई टकटकी लगाकर प्रकृति का यह खेल देख रहा था….

….और अचानक उन काले बादलों की पार्श्‍वभूमि पर, स़फेद बगुलों की माला एक क़तार में आकाश में उड़ती हुई गदाई को दिखायी दी। गदाई को वह ‘स़फेद-काला’ दृश्य अत्यधिक विलोभनीय साबित हुआ और उसे देखते हुए वह दंग रह गया!

टकटकी लगाकर वह उस विलक्षण दृश्य को देख रहा था। उस दृश्य को देखते हुए, ना जाने क्यों, मग़र उसे चरमसीमा का आनंद हो रहा था?
….और उस दृश्य को देखते देखते ही एक पल वह आनंद अत्यानंद के कारण ज़मीन पर ही गिर गया!
….साथ लाये पोहे अब मिट्टी में बिखर गये थे।

खेतों में खेती के काम चल ही रहे थे। उनमें से किसी का गदाई की ओर ध्यान गया….और तुरन्त – ‘गदाई बेहोश हो गया रे….’ ऐसा शोरगुल हो गया और चारों ओर से लोग दौड़ते हुए चले आये।

वे गदाई को उठाकर उसके घर ले गये।

यहाँ पर, इतनी रात होने के बावजूद भी गदाई अब तक घर कैसे नहीं आया, इस कल्पना से चिंतित हुए उसके मातापिता – खुदिराम एवं चंद्रमणीदेवी तो गदाई की यह हालत देखकर सुन ही हो गये। यह क्या बीमारी गदाई को हुई है, यही उनकी समझ में नहीं आ रहा था। किसी की नज़र तो नहीं लगी बच्चे को, ऐसा सोचकर उस भोलीभाली माँ ने तो नज़र भी उतारी गदाई की!

वह रात इसी तरह चिंता में बीत गयी। लेकिन गदाई गहरी नींद सो गया था।

सुबह उठने पर गदाधर हमेशा की तरह हँसतेखेलते घर में विचरण करने लगा। लेकिन माँ की कठिन हालत देखकर – ‘मैं मज़े में हूँ, मुझे कुछ भी नहीं हुआ है’ ऐसा माँ का धीरज बँधाने लगा। लेकिन – ‘मैं कल बेहोश नहीं हुआ था, भीतर से मेरी सबकुछ समझ में आ रहा था, मुझे सबकुछ महसूस हो रहा था’ ऐसा उसने माँ को बताने के बाद, ‘अब क्या बोलूँ’ यही माँ की समझ में नहीं आ रहा था।

अहम बात तो यह थी कि वैद्यजी भी उसकी पिछली रात की अवस्था के बारे में कुछ कह नहीं पाये थे!

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